मीडिया ट्रायल की सच्चाई
यह आरोप अक्सर लगता है कि किसी अपराध को सनसनीखेज बनाकर मीडिया खुद ही जांचकर्ता, वकील और जज बन जाता है, जबकि पुलिस अभी दूर-दूर तक मामले की सच्चाई के आसपास भी नहीं पहुंचती।
यह आरोप अक्सर लगता है कि किसी अपराध को सनसनीखेज बनाकर मीडिया खुद ही जांचकर्ता, वकील और जज बन जाता है, जबकि पुलिस अभी दूर-दूर तक मामले की सच्चाई के आसपास भी नहीं पहुंचती। इस मीडिया ट्रायल का नतीजा यह होता है कि पुलिस यानी जांचकर्ता ही नहीं जज भी दबाव में आ जाते हैं और हकीकत और फैसला सब कुछ उल्टा-पुल्टा हो जाता है। सवाल यह है कि अगर मीडिया का दबाव जजों को भी प्रभावित करता है तो फिर क्यों यह दावा किया जाता है कि जजों का फैसला ट्रेंड माइंड से होता है? फिर आम आदमी और जज में अंतर क्या? क्या पूरी जांच इस बात से नहीं प्रभावित होती कि महाराष्ट्र सरकार अपनी सनक में उस समय जांच अधिकारी राकेश मारिया को बदल देती है जब सच्चाई सामने आने ही वाली होती है? क्या इससे जांच की गुणवत्ता प्रभावित नहीं होगी और क्या यह भी मीडिया के दबाव में किया गया है?
ऐसे सैकड़ों आपराधिक मामले हैं जिसमें सत्र न्यायालय ने दुष्कर्म और हत्या के मामले में अभियुक्त को सजा दी, लेकिन जब वह हाईकोर्ट गया तो कोर्ट ने उसे न केवल छोड़ा, बल्कि सत्र न्यायलय को डांट लगाई कि उसने अमुक-अमुक तथ्यों का फैसला लेते समय संज्ञान नहीं लिया, लेकिन फिर जब राज्य हाईकोर्ट के उस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गया तो शीर्ष अदालत ने न केवल सत्र न्यायालय के फैसले को सही करार दिया, बल्कि हाईकोर्ट को ताकीद की वह तथ्यों का सही आकलन किया करे। अब अगर मीडिया ने घटना के दिन अभियुक्त का आरोप बताया और दिखाया कि उसने दुष्कर्म के बाद हत्या कैसे की तो सत्र न्यायालय के फैसले ने मीडिया को सही ठहराया, लेकिन हाईकोर्ट ने गलत। लिहाजा अब तथाकथित मीडिया ट्रायल की सत्यता इस बात पर निर्भर करेगी कि अभियुक्त या सरकार के पास न्यायिक सीढ़ी दर सीढ़ी जाने की कितनी क्षमता है। अगर सरकार ने मारिया को इसलिए हटाया कि केस से जुड़े किसी एक ताकतवर पीटर मुखर्जी से उनके संबंध हैं और जांच की विश्वसनीयता प्रभावित हो सकती थी तो प्रश्न यह उठता है कि अगर मीडिया के इतने जबरदस्त कवरेज के बाद भी कोई अधिकारी जांच प्रभावित कर सकता है तो समझा जा सकता है कि सत्ता में बैठे लोगों के खिलाफ मीडिया की कितनी जरूरत इस देश में है। अगर मारिया सही जांच कर रहे थे और सरकार ने जांच को किसी अन्य दिशा में ले जाने के लिए हटाया तो भी मीडिया की अपरिहार्यता को समझा जा सकता है। गौर कीजिए अगर मीडिया अलर्ट न हो तो सत्ताधारी वर्ग कैसा तांडव कर सकता है।
हम यहां कुछ अन्य उदाहरण लेते हैं। आसाराम बापू दुष्कर्म केस, यादव सिंह भ्रष्टाचार केस और हालिया शीना बोरा हत्या केस, इन तीनों मामलों में कम से कम दो में एक तथ्य कॉमन है और वह यह कि इनमें स्थापित सामाजिक या नैतिक मूल्य टूटे हैं, जबकि एक शुद्ध भ्रष्टाचार का केस है और तीनों अभिजात्य वर्ग या ताकतवर व्यक्ति या परिवार से जुड़े हैं। पूरे विश्व में न्यूज की परिभाषा है-घटना या तथ्य अथवा घटनाओं या तथ्यों के आधार पर इंगित होता वह सच जो समाज को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित करता हो या संवेदनाओं को झकझोरता हो। यही कारण है कि सिख आतंकवाद की घटनाएं दस साल के अंदर पहले पेज से खिसकते हुए अंतिम पेज तक पहुंच गईं, लेकिन आज अगर फिर कोई ऐसी घटना हो तो वह चैनलों के लिए कई दिन की व्यस्तता होगी और अखबारों में फिर पहले पेज पर आ जाएगी। इसे स्टनिंग वैल्यू (चौंकाने वाला महत्व) कहते हैं। इस देश में नैतिक मूल्यों के पश्चिमीकरण को लेकर एक जंग चल रही है और ये तीनों घटनाएं हर दृष्टिकोण से इन मूल्यों को लेकर हमारी संवेदनाएं झकझोरती हैं। आसाराम को एक वर्ग भगवान के रूप में देखता था। उसे अगर ये तथ्य बुलंद आवाज में न बताए जाते तो न जाने कितने नए आसाराम पैदा होते रहते और कितने भगवत-प्रेम भाव से आंखें और दिमाग बंद किए श्रद्धालु अपने बच्चों का भविष्य खराब करते रहते। मीडिया का यह कवरेज उसी अनुपात में होता है जिस अनुपात में घटना का या उसके अपरिहार्य प्रभाव का महत्व होता है। यह अनुपात इस बात पर भी निर्भर करता है कि आरोपी व्यवस्था को दबाने की कितनी क्षमता रखता है यानी जितनी क्षमता उतनी ही तेज मीडिया की आवाज। मीडिया का स्वर ऊंचा होने के कुछ मूल और सार्थक कारण होते हैं। शीना हत्याकांड के परिप्रेक्ष्य को देखें तो आने वाला भारत किस नैतिक मूल्य का होने जा रहा है, यह उसका संकेत है। आज भारत वहां पहुंच रहा है जहां संतान किसकी है, इसका निर्धारण डीएनए से होगा।
मीडिया का दबाव न होने का एक अंतर देखें। नोएडा के चीफ इंजीनियर यादव सिंह के घर के सामने खड़ी कार में करोड़ों रुपये नकदी के रूप में आयकर अधिकारी बरामद करते हैं और आगे की जांच में करोड़ों रुपये की संपत्ति का पता चलता है। ताजा जानकारी के अनुसार यादव सिंह की पत्नी की कंपनियों में मुलायम सिंह के भतीजे के शेयर हैं, लेकिन राज्य की सरकार जांच को किसी निष्पक्ष एजेंसी को देना तो दूर इस अधिकारी को निलंबित भी नहीं करती। मीडिया इस पर ज्यादा तेज आवाज में नहीं बोल सकता, क्योंकि आरटीआइ के तहत व्यक्तिगत जानकारी का प्रावधान नहीं है। तथ्य के लिए जरूरी जांच राज्य सरकार की सोची समझी ढिलाई के कारण नहीं हो पाती। अंत में हाईकोर्ट को निर्देश देना पड़ता है कि इस मामले की सीबीआइ जांच करवाई जाए, लेकिन अखिलेश सरकार इस आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाती है यह कहते हुए कि सीबीआइ के मार्फत केंद्र सरकार उसे ब्लैकमेल करेगी। विश्व में शासन की प्रत्यक्ष अनैतिकता का शायद इससे बड़ा कोई अन्य उदाहरण न हो। अगर अगर आय से अधिक संपत्ति मामले में किसी नेता को राहत मिली है तो क्या सीबीआइ ने मामला कमजोर किया था? आज इस सड़ांध वाले सिस्टम को बदलने के लिए सामूहिक चेतना की गुणवत्ता बदलनी होगी जो केवल एक स्वतंत्र मीडिया ही कर सकता है। हां, मीडिया को ब्रेकिंग न्यूज-इंद्राणी ने आज जेल में सैंडविच खाया-रूपी मानसिक स्तरहीनता से बचना होगा ताकि सत्ता पक्ष इसे कमजोर न कर सके।
[लेखक एनके सिंह, वरिष्ठ पत्रकार हैं]