हाल के लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी को मिली जबर्दस्त सफलता ने राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तरों पर राजनीतिक परिदृश्य को कई मायनों में बदल दिया है। तमाम राज्यों में अब कांग्रेस के तिरंगे का स्थान भारतीय जनता पार्टी के केसरिया रंग ने ले लिया है। देखा जाए तो कांग्रेस की हार बहुत ही व्यापक रही है, जिस कारण वह राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर खत्म होने के दौर से गुजर रही है। इसका बहुत कुछ श्रेय भाजपा को जाता है। उदाहरण के लिए 2009 के लोकसभा चुनावों में देश के 35 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में से 29 में कांग्रेस को सफलता मिली, जबकि 2014 में यह महज 15 राज्यों तक सिमट गई। इसी प्रकार 2009 के लोकसभा चुनावों में 14 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों तक सीमित रही भाजपा ने इस वर्ष 23 राज्यों में जीत दर्ज की। इसके अतिरिक्त कुछ संकेतों को भी देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए 2009 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी को कुल मतों का 28.55 फीसद हिस्सा और उसके खाते में 12 करोड़ वोट गए, जबकि 2014 में इसका मत प्रतिशत गिरकर 19.30 फीसद पहुंच गया और इसे महज 10.7 करोड़ मतदाताओं का वोट मिला।

पिछले लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस को हुए मतों का नुकसान अधिक मायने रखता है, क्योंकि मतदाता सूची में इस बार 10 करोड़ नए वोटर जुड़े थे। दूसरी तरफ 2009 में कुल 7.8 करोड़ वोट पाने वाली भाजपा का मत प्रतिशत दोगुने से भी अधिक रहा और उसे कुल 17 करोड़ वोट मिले। इसके चलते लोकसभा में कांग्रेस की शक्ति संख्या 206 सीटों से घटकर 44 सीटों तक सिमट गई। इस संदर्भ में 2014 के लोकसभा चुनावों के राज्यवार अध्ययन से पता चलता है कि चुनावी क्षति से गुजर रही कांग्रेस पार्टी का नुकसान लगाए जा रहे अनुमान से कहीं अधिक व्यापक और गहरा है। कुछ राज्यों में विशेषकर क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के हाथों अपनी राजनीतिक जमीन खोने के बाद पार्टी की अपनी इच्छाशक्ति भी जाती रही। यदि चुनाव के तथ्यों पर नजर डालें तो साफ होता है कि भारत की सबसे पुरानी पार्टी से जनता कितनी नाराज थी। कांग्रेस गुजरात, राजस्थान, तमिलनाडु, ओड़िशा, दिल्ली, आंध्र प्रदेश, झारखंड, जम्मू एवं कश्मीर, उत्ताराखंड, हिमाचल प्रदेश और गोवा में एक भी सीट नहीं जीत सकी। इसी तरह उत्तार प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, तेलंगाना और असम आदि राज्यों में कांग्रेस की सफलता एक अंक तक सिमट कर रह गई। कर्नाटक और केरल समेत कुछ राज्यों में बेहतर की आकांक्षा पाले कांग्रेस दो अंकों तक भी नहीं पहुंच सकी। यदि मत प्रतिशत के लिहाज से देखा जाए तो कई राज्यों में पार्टी का प्रदर्शन सर्वाधिक खराब रहा। इनमें से कांग्रेस को उत्तार प्रदेश में 7.5 फीसद, आंध्र प्रदेश में 11.5, पश्चिम बंगाल में 9.6, बिहार में 8.4, झारखंड में 13.3 और तमिलनाडु में महज 4.3 फीसद वोट मिले। हालांकि यह सही है कि किसी राजनीतिक पार्टी के बारे में अंतिम तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन यह बिल्कुल साफ है कि देश के कई राज्यों में कांग्रेस की गिरावट के संकेत हैं।

आजादी के दशकों बाद तक कांग्रेस उत्तार प्रदेश और बिहार में शासन करती रही, लेकिन अब यहां इसका किला पूरी तरह ध्वस्त हो चुका है। 1984 में कांग्रेस को उत्तार प्रदेश की कुल 85 में से 84 सीटों पर जीत मिली और उसे 51 फीसद वोट मिले थे, लेकिन इसके बाद पार्टी को राज्य में लगातार गिरावट का दौर देखना पड़ा। हालांकि 2009 में किसी तरह से कांग्रेस ने सम्मानजक 21 सीटें जीतीं और उसे कुल 18.25 फीसद मत प्रतिशत मिले, लेकिन 2014 में कांग्रेस की बुरी हार हुई और उसे महज दो सीटों यानी रायबरेली में सोनिया गांधी और अमेठी में राहुल गांधी को जीत मिली। उसका मत प्रतिशत सिकुड़कर 7.5 फीसद पहुंच गया। 1980 के उत्तारार्ध में अपनी जमीन खोने के बाद कांग्रेस कभी भी उबर नहीं सकी। बिहार की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। 1984 में कांग्रेस को यहां कुल 48 सीटों पर जीत मिली थी और 52 फीसद वोट मिले थे, लेकिन इस वर्ष यह मात्र 2 सीटें जीत सकी और मत प्रतिशत भी सिकुड़कर 8.4 रह गया।

वर्षो से कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी का रुतबा खोती जा रही है और उसे लालू यादव के राजद जैसे क्षेत्रीय दलों की जरूरत पड़ रही है। कई राज्यों विशेषकर पश्चिम बंगाल, ओड़िशा और अब आंध्र प्रदेश में इस पार्टी के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है। पश्चिम बंगाल में 1977 में कम्युनिस्टों के हाथों हारने से पूर्व कांग्रेस ने यहां लंबे समय तक शासन किया था। इसके बाद यहां की सत्ता 34 वषरें तक वामपंथियों के हाथ में रही, लेकिन कांग्रेस कभी भी अपनी जमीन वापस नहीं पा सकी। आठवें दशक की शुरुआत में कांग्रेस की एक युवा जुझारू महिला ममता बनर्जी उम्मीद बनकर उभरीं। उन्होंने मा‌र्क्सवादियों का सामना किया। जैसे जैसे उनका राजनीतिक उभार हुआ पार्टी हाईकमान यानी नेहरू-गांधी परिवार एक मजबूत और स्वतंत्र नेता के तौर पर उन्हें सहन नहीं कर सका। कांग्रेस उनकी उग्र राजनीति की फसल तो काटना चाहती थी, लेकिन वह उन्हें दबाकर भी रखना चाहती थी। हाईकमान के इस षड्यंत्र से आजिज आकर ममता बनर्जी फूट पड़ीं और अलग तृणमूल कांग्रेस का गठन किया। इसके बाद राज्य में दूसरे स्थान पर काबिज कांग्रेस पार्टी को ममता ने तीसरे स्थान पर धकेल दिया। इस क्रम में मई 2014 पार्टी के लिए एक और बड़ा झटका साबित हुआ। इस राज्य में अब भाजपा एक मजबूत दावेदार के तौर पर उभरी है और मत प्रतिशत के लिहाज से कांग्रेस को चौथे स्थान पर ढकेल दिया है।

ओड़िशा एक अन्य राज्य है जहां कांग्रेस को स्थानांतरित करके भाजपा अब मुख्य विपक्षी दल की भूमिका निभाने को तैयार है। आंध और तेलंगाना के तौर पर विभाजन के बाद अब आंध्र प्रदेश में भी कांग्रेस की हालत कहीं अधिक खराब है। 2009 के लोकसभा चुनावों में सफाया करने वाली कांग्रेस इस बार बुरी तरह से हारी है। इसके ज्यादातर प्रत्याशियों को 3 से 4 फीसद मत मिले। इस राज्य में यह पार्टी अब तेलुगू देसम, वाइएसआर कांग्रेस और भाजपा के बाद चौथे स्थान पर है। यहां भी कांग्रेस के उभार की कोई संभावना नहीं है। मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, छत्तीसगढ़, दिल्ली, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक जैसे बड़े राज्यों में भी पार्टी कमजोर है। कर्नाटक को छोड़कर अन्य सभी राज्यों में मत प्रतिशत के लिहाज से भाजपा और कांग्रेस के बीच अंतर बहुत अधिक है। इन सभी बातों के मद्देनजर कोई भी कह सकता है कि नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस मुक्त भारत की दिशा में उल्लेखनीय प्रगति की है। हालांकि अभी कुछ काम किए जाने शेष हैं। कांग्रेस के कई नेता जैसे दिग्विजय सिंह चाहते हैं कि राहुल गांधी लोकसभा में पार्टी का नेतृत्व करें। ऐसे नेता वस्तुत: कांग्रेस मुक्त भारत के रूप में मोदी के लक्ष्य को पूरा करने में सहायक बनने का ही काम कर रहे हैं।

[लेखक ए. सूर्य प्रकाश, वरिष्ठ स्तंभकार हैं]