तत्कालीन भारतीय विदेश मंत्री जसवंत सिंह को आज भी वह घटना सताती है जब उन्होंने जेलों में बंद तीन आतंकवादियों को रिहा कराके विशेष विमान से कंधार के हवाई अड्डे पर ले जाकर तालिबानी शासन के तत्कालीन विदेश मंत्री मुल्ला वकील अहमद मुतवकील को सौंप दिया था। बाद में मुतवकील को अमेरिकी सेना ने बंदी बना लिया था। अब वित्तामंत्री पी. चिदंबरम तालिबानी नेता मुल्ला अब्दुल सलीम जईफ का स्वागत करने और उससे बातचीत करने गोवा पहुंचे। अफगानिस्तान में अमेरिकी हमले से पहले तक जईफ पाकिस्तान में तालिबान का राजदूत था। बाद में इसे भी अमेरिका ने चार साल तक क्यूबा की गुआंतेनमो जेल में बंद रखा। स्पेन में जन्मे अमेरिकी दार्शनिक जॉर्ज सांतायाना की चेतावनी खासतौर पर भारत के लिए सटीक है- जो अतीत को याद नहीं रखते वे इसे दोहराते हैं। भारत की ऊट-पटांग व्यक्ति केंद्रित कूटनीति स्वतंत्रता के बाद से जारी है और भारत अपनी गलतियों से कोई सबक नहीं सीख रहा है। 1999 में जैसे ही आइसी-814 उड़ान का अपहरण कर उसे कंधार में उतारा गया, वैसे ही जसवंत सिंह ने मीडिया के सामने घोषणा की कि यह तालिबान और उसके प्रायोजक पाकिस्तान को एक-दूसरे के विरोध में खड़ा करने का एक अच्छा अवसर है। वास्तव में वह आधुनिक विश्व इतिहास में अब तक की सबसे अधम घटना की भूमिका तैयार कर रहे थे- एक विदेश मंत्री तीन आतंकियों को आतंकियों के इलाके में ले जाकर उन्हें मुक्त कर दे।

अब 14 साल बाद प्रधानमंत्री और उनके सलाहकार देश को बता रहे हैं कि तालिबान के साथ व्यवहार बढ़ाने से कुख्यात लड़ाकुओं और पाकिस्तान को एक-दूसरे के खिलाफ भिड़ाने में मदद मिलेगी और अफगानिस्तान से अमेरिका की विदाई के बाद वहां खाली होने वाली कूटनीतिक जगह को भरने में सहायता मिलेगी। मनमोहन सिंह के नीति-नियंता यह कहना चाहेंगे कि वे पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के विशेष दूत सरताज अजीज तथा कश्मीरी अलगाववादी नेताओं के बीच वार्ता कराकर पाकिस्तान और जम्मू कश्मीर में 'स्वतंत्रता सेनानियों' के बीच मतभेद पैदा करना चाहते हैं। भारत ने बलूच नेताओं को तोवीजा जारी नहीं किया, किंतु आइसी-814 का अपहरण करने वाले आतंकियों के स्वागत में झुक गई। यही नहीं, भारत के दौरे पर आए सरताज अजीज और पाकिस्तानी उच्चायुक्त की अलगाववादी नेताओं यासीन मलिक और हुर्रियत काउंसिल के अध्यक्ष मीरवाइज उमर फारुख के बीच वार्ता कराने की भारत सरकार ने व्यवस्था की। इन दोनों मामलों में पहले से ही हाशिये पर डाल दिए गए विदेश मंत्रालय को दरकिनार किया गया। असल में जईफ की गोवा यात्रा तालिबान को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता दिलाने के अमेरिकी प्रयासों का नतीजा है। अमेरिका अगले साल अफगानिस्तान में युद्ध समाप्त करने और वहां से अपनी इच्जत बचाकर निकलने के लिए तालिबान के साथ संधि करना चाहता है। इसके अलावा 2014 के बाद अफगानिस्तान में अपने सैन्य शिविरों की सुरक्षा के लिए भी वह तालिबान पर निर्भर है। इन कोशिशों को परवान चढ़ाने के लिए अमेरिका पाकिस्तान को फुसला रहा है।

अमेरिका ने पाकिस्तान की सहायता राशि फिर से शुरू कर दी है और पाक सेना तथा आइएसआइ के साथ पींगे बढ़ा रहा है। वह भारत-पाक संबंधों को सुधारने पर भी जोर दे रहा है। उदाहरण के लिए पिछले दिनों न्यूयॉर्क में मनमोहन सिंह-नवाज शरीफ मुलाकात का अमेरिका ने खुलकर समर्थन किया था। इस बैठक से तुरंत पहले पाकिस्तानियों ने भारतीय सैनिकों को मौत के घाट उतारा था और भारत के जलालाबाद में सैन्य शिविर पर आतंकी हमला हुआ था। यही नहीं इस वार्ता में रुकावट रोकने के लिए मनमोहन सिंह ने भारत के केरन क्षेत्र में पाकिस्तानी सेना की उन्हीं दिनों चल रही घुसपैठ को छुपाया था। वास्तव में सितंबर के अंत में मनमोहन सिंह के राजकीय दौरे की पूर्व संध्या पर व्हाइट हाउस ने 23 अक्टूबर को इसी प्रकार के दौरे के लिए नवाज शरीफ को आमंत्रित किया था। दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय संतुलन कायम करने और भारत-पाकिस्तान के बीच वार्ता जारी रखने को जरूरी बताने संबंधी ओबामा-शरीफ का संयुक्त बयान नई दिल्ली के लिए किसी बम धमाके से कम नहीं है। पाकिस्तान को वैश्रि्वक आतंकवाद की धुरी मानने के मनमोहन सिंह के अनुरोध को दरकिनार करते हुए बराक ओबामा ने आतंकियों को परास्त करने के लिए इस्लामाबाद के फॉर्मूले पर मुहर लगा दी। उन्होंने अफगान शांति प्रक्त्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए जरूरी साझेदार बताकर पाकिस्तान की तारीफ भी की।

तालिबान के साथ शैतानी मोल-भाव की योजना को उचित ठहराने के लिए ओबामा टीम अलकायदा और तालिबान के बीच अंतर बता रही है। यही नहीं, यह इस करार के लिए तैयार होने वाले तालिबान को अच्छे तालिबान और करार की खिलाफत करने वाले को बुरे तालिबान के बीच भी बांट रही है। जईफ एक 'अच्छा' आतंकवादी है इसीलिए जसवंत सिंह के दोस्त मुतवकील की तरह उन्हें भी काबुल में रहने के लिए एक शानदार बंगला दिया गया है। अमेरिका ने कतर में तालिबान के कूटनीतिक मिशन की स्थापना करने और कुछ 'अच्छे' आतंकियों को बर्लिन से लेकर टोकियो तक की सैर कराने में सहायता प्रदान की। अब अपने प्रयासों को वैध ठहराने के लिए अमेरिका ने तालिबान कमांडर को भारत भेजा है।

अफगान युद्ध के अपने प्रमुख विरोधी तालिबान को अपने पक्ष में लाने के प्रयास में अमेरिका यह भूल रहा है कि वह एक आतंकी समूह को वैधता प्रदान कर रहा है, जो अपने नियंत्रण क्षेत्र में मध्यकालीन युग के कायदे-कानून लागू करना चाहता है। यह अमेरिकी नीति की लंबे समय से चली आ रही कमजोरी की ही कड़ी है- क्षेत्र में अपने मित्रों के हितों को दरकिनार करते हुए अपने संकीर्ण लक्ष्यों की पूर्ति करना। तालिबान, अलकायदा और लश्करे तैयबा जैसे समूहों की आत्मा को अलग-अलग करना संभव नहीं है। ये सब मिलकर वैश्रि्वक जेहाद सिंडिकेट का निर्माण करते हैं। एकमात्र अंतर यह है कि अलकायदा पाकिस्तान स्थित पहाड़ों की गुफाओं से अपनी गतिविधियां संचालित करता है जबकि तालिबान और लश्करे तैयबा पाकिस्तान की पश्चिमी और पूर्वी सीमाओं से खुलेआम अपनी गतिविधियां चलाते हैं। इस त्रिमूर्ति में से किसी के भी साथ समझौता करने से अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद में वृद्धि ही होगी। जहां तक भारत का सवाल है जईफ की खातिरदारी करके इसने दिखा दिया है कि उसकी विदेश नीति दिशा, गति और सिद्धांतों से विमुख हो चुकी है। जब मानवाधिकार हनन के मुद्दे पर विरोध जताने के लिए मनमोहन सिंह की श्रीलंका यात्रा रद करने की घोषणा की जा रही थी, उसी समय उनकी सरकार तालिबान माफिया का स्वागत करने में जुटी थी। इस दावे के उलट कि भारत में विदेश नीति क्षेत्रीय क्षत्रपों की बंधुवा हो रही है, ये दोनों फैसले कांग्रेस पार्टी ने अपने वोट बैंक को ध्यान में रखते हुए लिए हैं।

[लेखक ब्रह्मा चेलानी, सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं]

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