सीमाएं लांघती मानवता
डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-इंटरनेशनल के डायरेक्टर जनरल ने ताजा लिविंग प्लेनेट रिपोर्ट की प्रस्तावना में सही लिखा है कि कमजोर दिल वालों के लिए यह रिपोर्ट नहीं है। महज 35 वर्षो में कशेरुकी प्राणियों की वैश्विक आबादी घटकर आधी रह गई है और पूरी दुनिया में वन्यजीवों की संख्या लगातार कम होती जा रही है। जो लोग वन्यजीव या कशेरुकियों के प
डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-इंटरनेशनल के डायरेक्टर जनरल ने ताजा लिविंग प्लेनेट रिपोर्ट की प्रस्तावना में सही लिखा है कि कमजोर दिल वालों के लिए यह रिपोर्ट नहीं है। महज 35 वर्षो में कशेरुकी प्राणियों की वैश्विक आबादी घटकर आधी रह गई है और पूरी दुनिया में वन्यजीवों की संख्या लगातार कम होती जा रही है। जो लोग वन्यजीव या कशेरुकियों के प्रति चिंतित नहीं हैं, वह पूछ सकते हैं तो क्या? इससे क्या फर्क पड़ता है? लेकिन थोड़ी सी गहराई में जाने पर कोई भी समझ सकता है कि पृथ्वी में हो रहे परिवर्तनों के कारण यह नुकसान हुआ है। मानव भी अपनी प्रगति और तकनीकी उन्नति के बावजूद इसके प्रभाव की चुनौती का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं है। हम अपने संसाधनों का इस कदर दोहन कर रहे हैं कि इससे सीमित प्राकृतिक संसाधनों पर जबर्दस्त दबाव उत्पन्न हो गया है। क्रोनी कैपटलिज्म, लालच और बढ़ती उपभोक्तावादी संस्कृति के चलते हम धीरे-धीरे खुद ही अपने विनाश की ओर बढ़ रहे हैं। वन्यजीव आबादी का घटना यह बताता है कि धरती पर जीवन धारण क्षमताएं भी खत्म हो रही हैं। क्या भारत को भी इसके लिए चिंतित होने की जरूरत है? हालांकि हमारा संसाधनों का प्रति व्यक्ति उपभोग कम है और देश की बड़ी आबादी गरीब है लेकिन विशाल आबादी के कारण हमारा इकोलॉजिकल फुट प्रिंट चीन और अमेरिका के बाद हमको तीसरा सबसे उपभोगी राष्ट्र बनाता है।
भारत का प्रकृति से बहुत ही सहज नाता रहा है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में प्रकृति को शांति और आनंद का प्रतीक बताते हुए ध्यान और चिंतन का स्थल बताया गया है। आदिवासी समूहों में प्रकृतिवादी मान्यताओं के तहत प्रकृति और प्राकृतिक तत्वों की पूजा होती है। यद्यपि यह सही है कि मानव-वन्यजीव संघर्ष बढ़ा है लेकिन यह भी सही है कि 1947 में सरगुजा के महाराजा द्वारा देश के अंतिम चीता को मारने के बाद से कोई बड़ा जीव विलुप्त नहीं हुआ है।
जंगलों के निकट रहने वाली आबादी ने भी अपने पशुओं और फसलों को नष्ट करने वाले जंगली जीवों के प्रति सहिष्णुता का ही परिचय दिया है। लेकिन दूसरी तरफ हम बेहद तेजी से विकसित होने की कोशिशों में लगे हैं। देश का आर्थिक विकास जरूरी है लेकिन हमारा पोषण करने वाले वातावरण की कीमत पर इसको नहीं किया जाना चाहिए। हमारी नदियों में कूड़ा-कचरा भरा है और शहर भी बहुत आरामदेह और मनोनुकूल नहीं हैं। हमारे देश में तीन प्रतिशत से भी कम भू-भाग का उपयोग जैव विविधता संरक्षण के लिए होता है। क्या इस छोटे भू-भाग से अपने हाथों को दूर रखना बहुत जटिल है? तीव्र शहरीकरण, कृषि का विस्तार, बड़े बांध और राजनीति से प्रेरित होकर जंगली भूमि का अतिक्रमण, उद्योगों के लिए जंगलों का कटाव, सड़क और खनन मिलकर वनों और वन्यजीवों पर बहुत बुरा प्रभाव डाल रहे हैं। जंगलों और वन्यजीवों पर हानिकारक प्रभाव डालने वाले प्रत्येक गतिविधि की तुलना में ऐसे कम हानिकारक वैकल्पिक विकल्प उपलब्ध है जिसके माध्यम से थोड़े से अतिरिक्त प्रयास के जरिये पर्यावरण पर होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है। इसके साथ ही हमको यह अंतदर्ृष्टि भी विकसित करनी होगी कि अपनी प्राकृतिक संपदा की लूट से राष्ट्र की तरक्की नहीं हो सकती।
जलवायु परिवर्तन, झुलसाती गर्मियां, सूखे और बाढ़ की शक्ल में चेतावनी के निशान मिलने लगे हैं। प्रकृति के प्रकोप से बचाने के लिए हमारी कोई भी तकनीकी उन्नति पर्याप्त नहीं है। जटिल संरचना के जरिये सभी प्राकृतिक अस्तित्व अंतर्सबंधित और अंतर्निभर हैं। हम अभी तक मुश्किल से ही इस खूबसूरत धरती पर जीवन की तारतम्यता की जटिल संरचना को समझ पाए हैं लेकिन जो व्यवस्था अपने आप ही निरंतर गति से चल रही है उसमें हस्तक्षेप करने की कोशिश करते रहते हैं। प्रकृति भी इस तरह की कुछ हल्की-फुल्की छेड़छाड़ की अनुमति देती है और हमारी कुछ भूलों को माफ करते हुए प्रकृति अपने आप ही उसके उपचार प्रक्रिया में लग जाती है। लेकिन मानवता अपनी सीमाएं लांघ रही है। प्रकृति का इस कदर दोहन कर रही है कि प्रकृति के पास इसके उपचार का समय ही नहीं मिल रहा है।
दुनिया की परेशानी का कारण यह तथ्य नहीं है कि हम विकसित होना चाहते हैं। प्रत्येक राष्ट्र, व्यक्ति विकसित होकर समृद्ध, सुरक्षित और अर्थपूर्ण जीवन चाहता है। हमें अपने आप से सवाल पूछना चाहिए कि क्या हम उस देश में विकसित होना चाहते हैं जहां विकास का आकलन लोगों की समृद्धि, संसाधनों का समान वितरण, घने जंगलों और वन्यजीवों के साथ खुशी और समरसता से किया जाता है, अथवा हम विकास के कुछ अमूर्त आंकड़ों को छूकर विकसित कहलाना चाहते हैं। जिसमें इन जादुई आंकड़ों तक पहुंचने के लिए अपने संसाधनों को नष्ट किया गया है।
-ऋषि कुमार शर्मा [वन्यजीव विशेषज्ञ, डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-इंडिया]
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