कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने लोकसभा में सांप्रदायिक हिंसा पर बहस की मांग को लेकर जिस तरह हंगामा किया और अपने दल के सांसदों के साथ अध्यक्ष के आसन के निकट भी पहुंच गए उस पर संसद के भीतर-बाहर राजनीतिक हलचल मचनी ही थी। मुश्किल यह है कि इस हलचल से उन्हें कुछ भी हासिल नहीं होने वाला। वह एक ऐसे नेता के तौर पर उभर रहे हैं जिन्हें यकायक किसी मसले पर गुस्सा आ जाता है। यदि कांग्रेस उपाध्यक्ष सक्रियता दिखाने के नाम पर इस तरह का आचरण करेंगे तो वह अपनी पार्टी के नेताओं के साथ-साथ आम लोगों को भी निराश करने का काम करेंगे। आश्चर्य नहीं कि उनके इस आचरण के चलते अगले कुछ दिनों संसद में और हंगामा देखने को मिले। यह सामान्य बात नहीं कि चंद दिनों पहले तक जो नेता प्रधानमंत्री पद का दावेदार था वह राजनीतिक मर्यादा के खिलाफ व्यवहार करता दिखा। आखिर राहुल गांधी सदन के अंदर इस तरह का गुस्सा दिखाकर क्या साबित करना चाहते हैं? उनकी यह दलील हजम नहीं होती कि सदन में विपक्ष को बोलने का अवसर नहीं दिया जा रहा है, क्योंकि वह प्रश्नकाल में जिस मुद्दे पर बहस की मांग कर रहे थे उस पर लोकसभा अध्यक्ष का इतना ही कहना था कि इस पर बाद में चर्चा हो सकती है। आखिर इस पर संयम खोने का क्या मतलब? यह ठीक नहीं कि पहले तो राहुल गांधी ने सदन में संयम खोया और फिर बाहर आकर लोकसभा अध्यक्ष पर पक्षपात के आरोप भी जड़े। यह निराशाजनक है कि कांग्रेसी नेता उनके सुर में सुर मिला रहे हैं। ऐसा लगता है कि कांग्रेस राहुल गांधी के नेतृत्व में एक नई परंपरा का निर्माण करना चाहती है।

यह पहली बार नहीं है जब राहुल गांधी ने अपने गुस्से के जरिये अपनी सक्रियता का प्रदर्शन किया हो। वह इसके पहले भी कई बार गुस्से का परिचय दे चुके हैं। ऐसा लगता है कि किसी ने उन्हें यह बता दिया है कि राजनीतिक रूप से सक्रिय होने का मतलब है गुस्सा और नाराजगी जाहिर करते रहना। पता नहीं सच क्या है, लेकिन सभी इससे परिचित हैं कि राहुल गांधी संसद में निष्क्रिय रहने के लिए ही जाने जाते हैं। पिछले 10 सालों में उन्होंने मुश्किल से दो-तीन वक्तव्य ही दिए हैं। यह सही है कि सभी राजनेता मुखर नहीं होते, लेकिन यह भी ठीक नहीं कि जिस नेता के पीछे पूरी पार्टी खड़ी हो और जिससे मार्गदर्शन भी चाह रही हो वह संसद के भीतर-बाहर चुप रहने के लिए जाना जाए। संसद में सक्रियता दिखाने के नाम पर हंगामा करना या फिर सत्तापक्ष का सहयोग न करना एक नए चलन के रूप में उभर रहा है। कांग्रेस भी इससे ग्रस्त नजर आती है। वह राज्यसभा में उस बीमा विधेयक का विरोध कर रही है जिसे मूलत: पिछली सरकार के वित्तमंत्री ने तैयार किया था। आश्चर्यजनक रूप से इस बारे में राहुल गांधी की सफाई थी कि हम अपने पुराने रवैये पर कायम हैं। इस रवैये को समझना कठिन है। राहुल इस मत के हैं कि लोकसभा में संख्याबल की कमी की भरपाई राज्यसभा में की जानी चाहिए और वहां सरकार को घेरा जाना चाहिए। सरकार की घेरेबंदी तो ठीक है, लेकिन क्या इसके नाम पर वैसा ही होगा जैसा राहुल ने गत दिवस किया?

[मुख्य संपादकीय]