सौ साल से भी अधिक पुराने छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम और उसके बाद बने संताल परगना काश्तकारी अधिनियम में संशोधन की बढ़ी संभावना झारखंड की दशा-दिशा में बदलाव का सकारात्मक संकेत है। सीएनटी और एसपीटी एक्ट के नाम से बहुप्रचलित इन अधिनियमों पर हालांकि चर्चा तो झारखंड बनने के कुछ काल बाद से ही शुरू हो गई थी, किंतु अब ऐसा लगता है कि सरकार इस पर गंभीरता से सोच रही है। राज्य में फिलहाल झामुमो के नेतृत्ववाली यूपीए सरकार चल रही है। झामुमो इन दोनों अधिनियमों के प्रति अपनी कट्टरता दिखाता रहा है। अलबत्ता इसी पार्टी की तरह क्षेत्रीय मामलों पर ही राजनीति करने वाले झाविमो ने कुछ अरसा पहले ही इन अधिनियमों में बदलाव की बात कही थी, किंतु वह नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह गई थी। जल, जमीन और जंगल इस राज्य की थाती हैं, जिनकी शिक्षा और संपत्ति के मामले में पिछड़े जनमानस के बीच गलत व्याख्या कर अबतक वोट की राजनीति की जाती रही। परिणामस्वरूप विकास में क्षेत्रीय असंतुलन बढ़ता गया और पिछड़ापन हावी होता रहा। नक्सली और उग्रवादी तत्व भी किसी न किसी रूप में इसको अपने हथियार के रूप में इस्तेमाल करते रहे।

सामाजिक व्यवस्था और संस्कृति से जुड़े रहने के लिए जमीन आवश्यक है, किंतु प्रगतिशील समाज में हमेशा यह सोचना होगा कि इसका बेहतर इस्तेमाल कैसे किया जाय। जमीन को केवल पेट भरने का साधन माना जाय अथवा अपने साथ-साथ सामुदायिक विकास का सबब? निश्चय ही दूसरा विकल्प अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि पठारी क्षेत्र, सिंचाई का अभाव और छोटी जोत उपज की बदौलत किसी परिवार को न तो समृद्ध बना सकती है, न ही उसे वैश्विक बाजार से प्रतिस्पद्र्धा में खड़ा कर सकती है। विकास के लिए शिक्षा और उद्योग आवश्यक तत्व बन गए हैं। इसमें प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष भागीदारी के लिए किसी न किसी अंश में जमीन योगदान दे सकती है। दूसरी ओर सीएनटी और एसपीटी एक्ट जमीन के मालिकाने में किसी भी तरह के हस्तक्षेप का सर्वथा निषेध करते हैं। संबंधित जमीन न तो बेची जा सकती है, न ही बंधक रखी जा सकती है। ऐसे में उसने उपज दी तो पेट भर गया अन्यथा उसमें बोया गया धान भी निरर्थक साबित होता है। सरकार जनमानस को यदि इन अधिनियमों में बदलाव के लिए तैयार कर सीमित संशोधन कर-करा सकी तो झारखंड में एक नए युग का प्रवेश संभव हो सकेगा।

[स्थानीय संपादकीय: झारखंड]