सस्ती बिजली की चर्चा
इसे आम आदमी पार्टी का असर कहें या कुछ और, लेकिन उत्तर प्रदेश में भी बिजली की दरें कम करने के पक्ष में जो स्वर सुनाई दे रहे हैं उनके संदर्भ में यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि कोई भी फैसला आर्थिक नियमों के अनुरूप होना चाहिए, न कि राजनीतिक लाभ को ध्यान में रखकर। यदि राजनीतिक लाभ के लिए सस्ती बिजली की दिशा में आगे बढ़ा जाता है और इसके लिए रियायतों अथवा सब्सिडी का सहारा लिया जाता है तो इससे बिजली के ढांचे की बदहाली और अधिक बढ़ेगी ही। बिजली की दरें कम करने के मामले में राज्य योजना आयोग के उपाध्यक्ष ने विद्युत उपभोक्ता परिषद की ओर से दिए गए सुझावों पर ऊर्जा विभाग से जिस तरह रपट तलब की उससे ऐसा लगता है कि सस्ती बिजली की संभावनाएं तलाशी जा रही हैं। इसके संकेत इससे भी मिलते हैं कि बिजली की दरें घटाने की मांग सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के भीतर से भी उठी है। यह विचित्र है कि एक समय यह कहा जाता था कि महंगी बिजली मजबूरी है और अब दरें कम करने के उपाय खोजे जा रहे हैं।
उपभोक्ता परिषद की ओर से बिजली की दरें कम करने के जो सुझाव दिए गए हैं वे नए-अनोखे नहीं हैं, लेकिन समस्या यह है कि उन पर सही तरह अमल की कभी आवश्यकता नहीं महसूस की गई। बात चाहे लाइन हानियों में कमी लाने की हो अथवा महंगी बिजली खरीदने से परहेज करने की या फिर बकाये की वसूली की-ऐसे सभी सुझावों पर अमल की शुरुआत तो न जाने कब हो जानी चाहिए थी। एक ऐसा राज्य जो वर्षो से बिजली के संकट से जूझ रहा हो और जहां हर वर्ष यह संकट और अधिक गंभीर हो जाता हो वहां लाइन हानियों में कमी लाने और बकाये की वसूली पर तो प्राथमिकता के आधार पर ध्यान दिया जाना चाहिए था। दुर्भाग्य से इन दोनों ही मोर्चो पर राज्य सरकार और उसका बिजली विभाग नाकाम नजर आता है। इसका ताजा प्रमाण है 15 हजार करोड़ रुपये के बकाये की वसूली के लिए पावर कारपोरेशन द्वारा छेड़े गए अभियान में अब तक मात्र 33 करोड़ रुपये की ही वसूली हो पाना। यदि इन खामियों की इसी तरह अनदेखी की जाती रही तो बिजली का संकट और अधिक बढ़ना तय है।
[स्थानीय संपादकीय: उत्तर प्रदेश]
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