इराक की अशांति
इराक के तिकरित शहर में पहले से ही मुश्किल हालात से दो-चार भारतीय नर्सो के अगवा होने की खबर गंभीर चिंता का विषय है। इसलिए और भी ज्यादा, क्योंकि अब वे पूरी तौर पर आतंकी संगठन आइएसआइएस के रहमो-करम पर हैं। इन 46 नर्सो के अलावा मोसुल में 39 भारतीय कामगार पहले से ही आइएसआइएस के कब्जे में हैं। इस तरह कुल 85 भारतीयों की जान जोखिम में है। उनके परिजनों के साथ भारत सरकार का चिंतित होना स्वाभाविक है, लेकिन मुश्किल यह है कि भारत और इसी तरह वे अन्य देश फिलहाल कुछ ज्यादा करने की स्थिति में नहीं हैं जिनके नागरिक इराक में बंधक बने हुए हैं। इराक के पड़ोसी देशों से संपर्क-संवाद के बाद भी जिस तरह कुछ हासिल नहीं हो सका उससे यह सहज समझा जा सकता है कि हालात कितने कठिन हैं। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इराक संकट के लिए जो पश्चिमी देश जिम्मेदार हैं वे हाथ पर हाथ रखे बैठे नजर आ रहे हैं। आइएसआइएस के आतंकियों ने करीब एक माह पहले इराक में घुसकर वहां के शहरों पर कब्जा करना शुरू किया था। वहां के हालात हर दिन बिगड़ रहे हैं। बावजूद इसके पश्चिमी देशों ने चिंता जताने और इराक के पड़ोसी देशों से विचार-विमर्श करने के अलावा कुछ खास नहीं किया है। इससे भी चिंताजनक यह है कि संयुक्त राष्ट्र भी ऐसी कोई पहल नहीं कर पा रहा है जिससे इराक संकट के समाधान की कोई राह निकले। इतनी गंभीर अंतरराष्ट्रीय समस्या पर विश्व समुदाय ने ऐसी शिथिलता इसके पहले शायद ही पहले कभी दिखाई हो। यह संभवत: इसी शिथिलता का परिणाम है कि आइएसआइएस ने अपने कब्जे वाले इलाकों को एक नए राष्ट्र का नाम दे दिया है।
यह अकल्पनीय है कि एक आतंकी संगठन ने खुद को एक राष्ट्र घोषित कर दिया और फिर भी विश्व समुदाय इस तरह व्यवहार कर रहा है जैसे कुछ हुआ ही न हो। सबसे विचित्र रवैया आतंकवाद के खिलाफ अभियान की अगुआई करने वाले अमेरिका का है। ऐसा लगता है कि उसने इराक में अपने चंद सलाहकारों को भेजकर कर्तव्य की इतिश्री करने का काम किया है। यह वही अमेरिका है जिसने 2003 में इराक में एक नकली संकट को रेखांकित कर वहां हमला बोल दिया था। अमेरिका ने न केवल सद्दाम हुसैन के शासन को उखाड़ फेंका, बल्कि देश को चलाने के लिए जो ढांचा बना हुआ था उसे भी छिन्न-भिन्न कर दिया। अमेरिका ने इराक में जो रिक्तता पैदा की उसके बाद हालात बिगड़ने ही थे। जो आइएसआइएस इराक के साथ-साथ पूरे पश्चिम एशिया के लिए खतरा बन गया है वह वही संगठन है जो कुछ समय पहले तक सीरिया की सरकार के लिए सिरदर्द बना हुआ था। एक समय अमेरिका सीरिया पर हमले की योजना बना रहा था। यह तो अच्छा हुआ कि रूस अड़ गया अन्यथा पश्चिम एशिया के हालात और खराब होते। यह ठीक है कि भारत पश्चिम एशिया में कोई बड़ी भूमिका निभाने की स्थिति में नहीं, लेकिन उसे विश्व समुदाय और विशेष रूप से पश्चिमी देशों के उपेक्षापूर्ण रवैये के खिलाफ आवाज तो उठानी ही चाहिए। भारत को अंतरराष्ट्रीय समुदाय के समक्ष यह रेखांकित करने में संकोच नहीं करना चाहिए कि इराक का संकट सारी दुनिया के लिए एक बड़ा संकट है और उससे पार पाने के लिए कड़े कदम नहीं उठाए गए तो स्थिति और खराब हो सकती है।
[मुख्य संपादकीय]