संसद के शीतकालीन सत्र को सुचारु रूप से चलाने के लिए बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में जिस तरह विभिन्न मुद्दों पर अलग-अलग सुर सामने आए उससे यही आभास होता है कि यह सत्र भी हंगामे से दो चार होने वाला है। संसद में किसी न किसी बात को लेकर पक्ष-विपक्ष के बीच हंगामा होना स्वाभाविक है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि संकीर्ण स्वार्थ हंगामे का कारण बनें। ऐसा लगता है कि इस बार भी ऐसा ही कुछ होने जा रहा है, क्योंकि मुख्य विपक्षी दल कुछ अन्य मुद्दों पर जोर दे रहा है और शेष विपक्षी दल अन्य मुद्दों को अपनी प्राथमिकता सूची में गिना रहे हैं। सत्तापक्ष का एजेंडा विपक्ष से मेल खाता नहीं दिख रहा है। जिस तरह यह सर्वदलीय बैठक हंगामेदार रही उससे कुल मिलाकर संसद के आगामी सत्र की झलक ही मिली। संसद का यह सत्र कितना हंगामेदार होगा और कितना नहीं, यह आने वाले दिन बताएंगे, लेकिन बेहतर हो कि सत्तापक्ष के साथ-साथ विपक्षी दल यह ध्यान में रखें कि यह 15वीं लोकसभा का अंतिम सत्र है और इस सत्र को इसलिए खास तौर पर सकारात्मक परिणाम देने चाहिए, क्योंकि पिछले ज्यादातर सत्र हंगामे की ही भेंट चढ़े हैं और इसके चलते तमाम वे विधेयक लंबित पड़े हुए हैं जिन पर आम सहमति भी बन जानी चाहिए थी और उन्हें कानून का रूप भी ले लेना चाहिए था। सत्तापक्ष और विपक्ष इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकते कि देश की प्रगति जिन तमाम कारणों से अवरुद्ध सी दिखाई दे रह है उनमें एक कारण तमाम महत्वपूर्ण विधेयकों को संसद की मंजूरी न मिल पाना है।

सत्तापक्ष और विपक्ष, दोनों के लिए यह आवश्यक है कि वे इस पर विचार करें कि इस सत्र का देशहित में ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल कैसे हो। फिलहाल तो ऐसा नजर आ रहा है कि विपक्ष की रुचि गंभीर मुद्दों पर चर्चा करने में कम और हंगामा करने में अधिक है। विरोध के लिए विरोध की राजनीति एक सीमा तक ही उचित है। विभिन्न महत्वपूर्ण विधेयकों के अवरुद्ध होने के लिए केवल सत्तापक्ष को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। इन लंबित विधेयकों के लिए सत्तापक्ष के साथ-साथ किसी न किसी स्तर पर विपक्ष भी दोषी है। जब आम जनता को यह प्रतीति होती है कि संसद में सकारात्मक कामकाज के बजाय राजनीतिक लाभ लेने की चेष्टा की जा रही है तो उससे न केवल राजनीतिक दलों की छवि प्रभावित होती है, बल्कि संसद की गरिमा को भी चोट पहुंचती है। मौजूदा लोकसभा का आखिरी सत्र कैसे सुचारु रूप से चले, इसके लिए सत्तापक्ष से भी गंभीरता का परिचय देने की अपेक्षा की जाती है। यह स्पष्ट ही है कि वह इस सत्र, जो अपेक्षाकृत कम दिनों का है, में विवादास्पद विधेयकों पर आम राय मुश्किल से ही काम कर सकता है। यदि सत्तापक्ष यह चाहता है कि यह सत्र फलदायी साबित हो तो उसे इस सत्र की अवधि बढ़ाने की विपक्ष की मांग पर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए। इसके साथ ही उसे उन्हीं विधेयकों को आगे बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए जिन पर आम सहमति बनती हुई दिखाई दे रही है या फिर ऐसा होने की उम्मीद है। यह ठीक नहीं कि इस सत्र में कुल कार्यदिवस तो 12 ही हैं, लेकिन विधेयकों की संख्या तीन दर्जन है। स्पष्ट है कि इतने कम दिनों में सभी विधेयकों पर न तो गंभीरता से चर्चा हो सकती है और न ही उन्हें सही तरह पारित किया जा सकता है।

[मुख्य संपादकीय]

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