फिर चुनाव
जम्मू-कश्मीर और झारखंड में विधानसभा चुनावों की घोषणा प्रत्याशित ही थी। हालांकि जम्मू-कश्मीर में बाढ़ के असर के चलते उमर अब्दुल्ला सरकार चुनाव टाले जाने के पक्ष में थी, लेकिन शायद चुनाव आयोग के पास और कोई विकल्प नहीं था। जो भी हो, इन दोनों राज्यों में पांच चरणों में मतदान होना यह बताता है कि अगर जम्मू-कश्मीर में आतंकियों से निपटने क
जम्मू-कश्मीर और झारखंड में विधानसभा चुनावों की घोषणा प्रत्याशित ही थी। हालांकि जम्मू-कश्मीर में बाढ़ के असर के चलते उमर अब्दुल्ला सरकार चुनाव टाले जाने के पक्ष में थी, लेकिन शायद चुनाव आयोग के पास और कोई विकल्प नहीं था। जो भी हो, इन दोनों राज्यों में पांच चरणों में मतदान होना यह बताता है कि अगर जम्मू-कश्मीर में आतंकियों से निपटने की चुनौती है तो झारखंड में नक्सलियों से। इस पर भरोसा किया जा सकता है कि राज्य सरकारें केंद्र के सहयोग से इस चुनौती का सामना करने में सफल रहेंगी, लेकिन इससे पहले कि राजनीतिक दल दो और राज्यों में चुनाव के लिए कमर कसें उन्हें रह-रहकर चुनाव होते रहने के नुकसानदायक नतीजों पर भी विचार करना चाहिए। नि:संदेह लोकतांत्रिक देश में चुनाव उत्सव की तरह होते हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि यह उत्सव हम आए दिन मनाते ही रहें। क्या यह आदर्श स्थिति है कि हरियाणा और महाराष्ट्र की चुनाव प्रक्रिया पूरी हुए एक सप्ताह भी नहीं बीता था कि जम्मू-कश्मीर और झारखंड में चुनावों की घोषणा के चलते आदर्श आचार संहिता फिर से प्रभावी हो गई? इसके चलते केंद्र सरकार अब तब तक कोई बड़ी नीतिगत घोषणा नहीं कर सकती जब तक झारखंड और जम्मू-कश्मीर में वोटों की गिनती न हो जाए। इन दोनों राज्यों में 23 दिसंबर को मतगणना होनी है। इस हिसाब से देखें तो करीब-करीब दो माह के लिए केंद्र सरकार के हाथ बंध गए। इससे पहले हरियाणा और महाराष्ट्र की चुनाव प्रक्रिया के दौरान भी आचार संहिता के चलते उसके हाथ बंधे हुए थे।
झारखंड और जम्मू-कश्मीर में चुनाव होने के बाद केंद्र सरकार को आचार संहिता से थोड़ी राहत अवश्य मिलेगी, लेकिन आठ-नौ महीने के बाद बिहार विधानसभा के चुनाव करीब आ जाएंगे। हमारे देश में चुनाव होते ही रहते हैं। लोकसभा और विधानसभा चुनावों के अलावा उनके उपचुनाव होते हैं या फिर पंचायत चुनाव अथवा निकाय चुनाव। जब भी ये चुनाव होते हैं तो आचार संहिता प्रभावी हो जाती है और उसके चलते कभी केंद्र सरकार को अपने फैसले टालने पड़ते हैं और कभी राज्य सरकारों को। मौजूदा परिस्थितियों में इस पर विचार किए जाने में ही भलाई है कि क्यों न लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हों? ध्यान रहे एक समय ऐसा ही होता था। 1952 से लेकर 1967 तक लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ ही हुए। ऐसा फिर से हो सकता है। इससे न केवल रह-रहकर प्रभावी होने वाली आचार संहिता से केंद्र और राज्य सरकारों को छुटकारा मिलेगा, बल्कि संसाधनों की भी बचत होगी। यदि लोकसभा के साथ ही विधानसभाओं के चुनाव हो सकें तो देश के समय और श्रम के साथ-साथ सार्वजनिक कोष की भी खासी बचत होगी। यह ठीक नहीं कि अब जब केंद्र सरकार से यह अपेक्षित है कि वह विभिन्न क्षेत्रों में सुधारों की दिशा में तेजी से आगे बढ़े तब उसके सामने आचार संहिता की दीवार खड़ी हो गई है। क्या यह विचित्र नहीं कि छह माह पुरानी सरकार के सामने नए सिरे से आचार संहिता आ खड़ी हुई है? फिलहाल यह कहना कठिन है कि झारखंड और जम्मू-कश्मीर के चुनाव नतीजे किस दल के लिए लाभकारी रहेंगे, लेकिन बेहतर होगा कि इन चुनावों से निपटते ही मोदी सरकार राजनीतिक सुधारों की भी सुध ले और इस क्रम में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के बारे में विचार करे।
(मुख्य संपादकीय)