मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की यह सोच निश्चय ही सही दिशा में है कि पंचायत चुनावों में जनप्रतिनिधि के तौर पर उन लोगों को ही भाग लेने का प्रावधान बनाया जाना चाहिए, जिनके घर में शौचालय हो। केंद्र सरकार द्वारा चलाए जा रहे संपूर्ण स्वच्छता अभियान का ही एक हिस्सा शौचालयों का निर्माण भी है। जनप्रतिनिधियों को चुनाव में जाने से पहले अपने घर में शौचालय बनवाना कानूनी रूप से कितना सही होगा, यह तो नहीं कहा जा सकता, किंतु किसी भी परिवार के लिए यह एक जरूरी व्यवस्था है। इस संदर्भ में यूनिसेफ द्वारा कराया गया एक अध्ययन बहुत मायने रखता है कि शौचालय और स्वच्छता के अभाव में झारखंड को प्रतिवर्ष दस हजार करोड़ का नुकसान हो रहा है। शौचालय विहीन परिवारों को हर साल औसतन 15 हजार रुपये सिर्फ बीमारियों के इलाज में खर्च करना पड़ता है। शिशु मृत्यु का एक मुख्य कारण खुले में शौच भी है। राज्य में अमूमन नौ हजार बच्चे हर साल डायरिया से केवल इसी कारण पीड़ित होते हैं, क्योंकि वे खुले में शौच करने को बाध्य किए जाते हैं। यह सब इसलिए होता है, क्योंकि उनके घरों में शौचालय नहीं होता। यह और भी अधिक चौंकाने वाला तथ्य है कि इसी कमी के कारण राज्य में हर साल औसतन आठ हजार बच्चों की असमय मृत्यु हो जाती है। और तो और बच्चों-किशोरों की लंबाई न बढ़ने का मुख्य कारण आनुवांशिक नहीं, बल्कि स्वच्छता का अभाव है।

स्वच्छता की कमी से पेट के ही नहीं, चर्म रोग भी होते हैं और यह स्थापित तथ्य है कि बीमार आदमी किसी भी क्षेत्र में कभी भी अच्छा परिणाम नहीं दे सकता। झारखंड में, खासकर यहां के गांवों में स्वच्छता और शौचालयों का घोर अभाव है। औसतन 76 प्रतिशत आबादी गांवों में ही बसती है। इस लिहाज से कहिए तो राज्य बीमारियों का घर बना हुआ है। केंद्र और राज्य सरकार शौचालय निर्माण के लिए अनुदान दे रही है, लेकिन लक्ष्य पूरा नहीं हो पा रहा। सच कहिए तो इस विषय पर काम नहीं के बराबर हो रहा है। कई स्थलों पर तो शौचालय निर्माण के नाम पर भी भारी घोटाला हो चुका है। इसके निर्माण का जिम्मा उठानेवाली एजेंसियां पूरी की पूरी राशि हड़प चुकी हैं। गांव-गांव में स्थापित पंचायती राज संस्थाएं यदि जागरूक हों और सुचिंतित कदम उठाएं तो कोई कारण नहीं कि शौचालयों की कमी रहे। इनके निर्माण में अधिक वक्त भी नहीं लगता। सरकार अनुदान दे ही रही है। इसके बावजूद कुछ न हो पाना घोर आश्चर्यजनक है।

[स्थानीय संपादकीय: झारखंड]

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