केंद्रीय मंत्रिपरिषद की ओर से अलग राज्य तेलंगाना के गठन को सहमति दिए जाने के बाद आंध्र प्रदेश के शेष हिस्सों में जिस तरह हिंसा भड़क उठी है वह चिंताजनक है। आंध्र प्रदेश के विभाजन के विरोध में भड़की हिंसा से निपटने के लिए विजयनगरम और आसपास के क्षेत्रों में क‌र्फ्यू और देखते ही गोली मारने के आदेश के बावजूद जिस तरह लोग सड़कों पर उतरे उससे लगता है कि स्थानीय जनता में केंद्र सरकार के फैसले के खिलाफ खासा आक्रोश है, लेकिन इस आक्रोश के पीछे तेलंगाना को लेकर की जाने वाली राजनीति भी नजर आती है। यह राजनीति आंध्र प्रदेश में महत्व रखने वाले लगभग सभी राजनीतिक दलों की ओर से की जा रही है-यहां तक कि कांग्रेस की ओर से भी। इसका एक प्रमाण तेलंगाना के गठन के विरोध में कांग्रेस के कुछ केंद्रीय मंत्रियों और सांसदों की ओर से दिए जा रहे त्यागपत्र से मिलता है। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि वाइएसआर कांग्रेस के नेता जगनमोहन रेड्डी जेल से बाहर आते ही तेलंगाना के विरोध में धरने पर बैठ गए और उनकी ओर से बंद का आह्वान भी किया गया। इससे यही स्पष्ट होता है कि वह तेलंगाना के बहाने अपनी राजनीति को धार देने की कोशिश में जुट गए हैं। माना यह जाता था कि अलग राज्य के लिए तेलंगाना के लंबे संघर्ष को देखते हुए राजनीतिक दलों और राजनेताओं ने यह मन बना लिया होगा कि एक न एक दिन आंध्र प्रदेश का पुनर्गठन होकर रहेगा, लेकिन तेलंगाना के गठन को कैबिनेट की मंजूरी मिलने के साथ ही जैसी हिंसा भड़क उठी है उससे तो लगता है कि केंद्र सरकार ने ऐसी किसी घोषणा के पूर्व जमीनी स्तर पर जो काम करना चाहिए था वह बिल्कुल भी नहीं किया।

अब यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि केंद्र सरकार ने सिर्फ और सिर्फ अपने राजनीतिक और चुनावी हितों को ध्यान में रखकर यह फैसला किया है। इसका नतीजा यह है कि आंध्र प्रदेश के एक बड़े हिस्से को इस हड़बड़ी के दुष्परिणामों से जूझना पड़ रहा है। किसी भी राज्य के पुनर्गठन के संदर्भ में वहां की जनता के एक वर्ग में असंतोष होना अस्वाभाविक नहीं, लेकिन यदि लोग हिंसा और तोड़फोड़ पर उतारू हैं तो इसका मतलब है कि केंद्र सरकार जमीनी हालात को समझने में असफल रही। यह आश्चर्यजनक है कि तेलंगाना के मसले पर केंद्र सरकार लंबे समय तक हाथ पर हाथ धरे भी बैठी रही और फिर मंत्रिपरिषद ने फैसला लेने में हड़बड़ी भी दिखाई। ध्यान रहे कि तेलंगाना के मामले में केंद्र सरकार ने पहले भी इसी तरह आनन-फानन फैसला लिया था। करीब एक वर्ष पहले अलग राज्य की मांग को लेकर जैसे ही तेलंगाना राष्ट्र समिति के नेता धरने पर बैठे वैसे ही केंद्र सरकार ने तेलंगाना के गठन के पक्ष में घोषणा कर दी और फिर वह अपने वायदे से पीछे हटती भी नजर आई। इससे कुल मिलाकर तेलंगाना के मसले पर राजनीति करने वाले तत्वों को बल ही मिला। केंद्र सरकार की ओर से चाहे जैसी दलील क्यों न दी जाए, सच्चाई यह है कि उसने तेलंगाना के मामले में स्थितियों को खुद ही बिगड़ने दिया है। यह आवश्यक है कि जो लोग तेलंगाना के बहाने राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश कर रहे हैं उन्हें हर स्तर पर हतोत्साहित किया जाए।

[मुख्य संपादकीय]

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