उत्तराखंड चुनावः घोषणाओं के पहाड़ तले सिसकता बजट
उत्तराखंड विधानसभा चुनाव 2017 से पहले प्रदेश का हाल ये है कि कृषि, ग्राम्य विकास, स्वास्थ्य, शिक्षा, समाज कल्याण, सिंचाई जैसे अहम महकमों के प्लान का बजट खर्च नहीं हो पा रहा है।
देहरादून, [रविंद्र बड़थ्वाल]: आखिर हर बार मार्च के महीने में ही बजट का बड़ा हिस्सा ठिकाने क्यों लगता है, जनता के खून-पसीने की गाढ़ी कमाई से बनने वाला बजट 11 महीनों तक बूंद-बूंद खर्च के लिए क्यों तरसता है। शासन में बजट को मंजूरी मिलने में देरी के लिए जिम्मेदार आखिर कौन, पहले बजट बनाने में लापरवाही, जिला योजनाएं हों या राज्य सेक्टर, या केंद्रपोषित योजनाएं, इनके लिए जोड़-तोड़ से जमीन पर ठोस तैयारी किए बगैर बजट की रूपरेखा में खामियों का सिलसिला कब थमेगा।
योजनाकार को वास्तविकता से परे बढ़ा-चढ़ाकर तैयार करने, योजनाकार या अनुमोदित बजट परिव्यय की तुलना में काफी कम बजट की व्यवस्था, आमदनी के सीमित साधन और उसमें भी खर्च के मोर्चे पर हाथ-पांव फूलने की नौबत आने पर किसकी जवाबदेही होगी।
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जिस केंद्रपोषित योजनाओं पर राज्य के विकास का दारोमदार, उसकी प्लानिंग में सुस्ती क्यों, केंद्र से योजनावार गाइडलाइन जारी होने के बावजूद डिटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट बनाने अथवा योजनाओं की जमीनी तैयारी में साल-दर-साल चूक होने का सिलसिला कब तक थमेगा, ये तमाम सवाल सूबे की सियासी फिजां में चीख रहे हैं।
लेकिन, सत्ता के लिए हाथ-पांव मार रहे सियासी दल कांग्रेस हो या भाजपा या अन्य दल, पिछड़ेपन से उबरने की जिस जिद्दोजहद के चलते अलग उत्तराखंड राज्य का निर्माण हुआ, उसकी अस्मिता से जुड़ी विकास की चाह पर सत्ता के लिए सिर फुटव्वल भारी पड़ रही है। दलों और चुनाव मैदान में खम ठोक रहे उनके सूरमाओं को शायद ही इन बुनियादी सवालों से लेना-देना हो।
गुलाबी योजनाओं के सब्जबाग और घोषणाओं के पहाड़ से चुनाव के इन दिनों में वाहवाही लूटने की होड़ में हकीकत से बड़ी सफाई से मुंह चुराया जा रहा है। गुलाबी योजनाओं को जमीन पर उतारने और घोषणाओं के पहाड़ से आम जन-जीवन की बेहतरी का रास्ता बनाने के लिए अब तक कारगर कोशिशें हुई होती तो अरबों खर्च करने के बावजूद प्रदेश के नौनिहाल स्तरीय शिक्षा के लिए तरसने को मजबूर नहीं होते।
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डाक्टरों की सुविधापरस्ती और दवाओं-उपकरणों, फार्मासिस्टों-नर्सिंग स्टाफ से खाली पड़े दूरदराज के स्वास्थ्य केंद्रों में जिंदगी को लाचार नहीं होना पड़ता। एशिया का सबसे बड़ा वाटर टैंक हिमालयी राज्य उत्तराखंड का पर्वतीय क्षेत्र बूंद-बूंद पानी के लिए मजबूर है, लेकिन योजनाएं फाइलों से निकलकर पहाड़ पर चढ़ते ही दम तोड़ रही हैं।
गांव-गांव तक सड़कों का जाल बिछाने, पलायन रोकने, आम आदमी की खुशहाली के लिए मजबूत आधारभूत ढांचा खड़ा करने में आड़े आ रही सीमित आमदनी की बाधा से निपटने की इच्छाशक्ति अब तक सरकारों ने दिखाई होती तो सरकारी महकमे बजट का सदुपयोग करते दिखाई पड़ते।
उत्तराखंड विधानसभा चुनाव 2017 से पहले हाल ये है कि कृषि, ग्राम्य विकास, स्वास्थ्य, शिक्षा, समाज कल्याण, सिंचाई जैसे अहम महकमों के प्लान का बजट खर्च नहीं हो पा रहा है। पर्यटन, परिवहन, आवास, उद्योग जैसे कई महकमों के बजट में भविष्य की प्लानिंग तो दूर की बात, तात्कालिक जरूरत को तवज्जो दी जा रही है।
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आंकड़ों की गुलाबी रंगत में छिपा दर्द
देश के अन्य राज्यों की तुलना में छोटे राज्य उत्तराखंड में आर्थिक हालत के चमकदार आंकड़े अक्सर भ्रम पैदा करते रहे हैं। राज्य के बड़ा भू-भाग में बुनियादी सुविधाओं का विस्तार, रहन-सहन की गुणवत्ता चुनौती बनी हुई है, लेकिन प्रति व्यक्ति आमदनी और सकल राज्य घरेलू उत्पाद के आंकड़े अवस्थापना संरचनाओं में पिछड़े क्षेत्रों के दर्द पर भारी पड़ रहे हैं।
देहरादून, हरिद्वार, ऊधमसिंह नगर और नैनीताल जिलों और शेष पर्वतीय जिलों में आर्थिक-सामाजिक विषमता की खाई लगातार चौड़ी हो रही है। शिक्षा, स्वास्थ्य और आजीविका की गुणवत्ता में कुछ सुधार हुआ है तो वह इन्हीं जिलों में नजर आता है।
इन्हीं जिलों के आंकड़ों की रोशनी में अन्य जिलों के अंधेरे के छिपने का ही नतीजा है कि 14वें वित्त आयोग की सिफारिशों में उत्तराखंड की झोली पड़ोसी हिमाचल समेत अन्य राज्यों की तुलना में खाली रह गई।
वर्ष 2013 में जब आपदा के कहर ने पर्वतीय जिलों रुद्रप्रयाग, चमोली, उत्तरकाशी और पिथौरागढ़ में तबाही मचाई और राज्य की आर्थिकी को लहूलुहान कर दिया, तब भी उक्त जिलों की बदौलत प्रति व्यक्ति आमदनी हो या जीएसडीपी, उत्तराखंड राष्ट्रीय औसत से आगे रहा।
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प्रति व्यक्ति सालाना आमदनी
-------------2012-13---------2013-14---------2015-16
भारत--------71050-----------79412--------------93231
उत्तराखंड---114878--------126101------------151219
खास बिंदु
-वर्ष 2015-16 में राज्य की आर्थिक विकास दर 8.70 फीसद अनुमानित
-वित्तीय वर्ष 2014-15 की तुलना में यह 3.70 फीसद अधिक
-वहीं प्रति व्यक्ति आय में 16,435 रुपये का इजाफा, 1,51,219 रुपये सालाना
-सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) 2015-16 में 1,53,041 करोड़ रुपये और वर्ष 2014-15 में 1,40,790 करोड़ अनुमानित
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केंद्रीयपोषित योजनाओं और सहायता का सदुपयोग नहीं
राज्य को लंबे समय तक विशेष दर्जा हासिल होने के बावजूद केंद्रपोषित योजनाओं और केंद्रीय सहायता के पूरी तरह सदुपयोग को लेकर अब तक कांग्रेस और भाजपा की सरकारें गंभीर नहीं रही हैं।
चालू वित्तीय वर्ष 2016-17 में दिसंबर माह तक केंद्रपोषित योजनाओं के मद में बजट का बामुश्किल 35 फीसद ही खर्च हो पाया है। सीमित आमदनी से जूझ रहे उत्तराखंड बीते 15 वर्षों में केंद्रपोषित योजनाओं और केंद्रीय सहायता के रूप में तकरीबन 10 हजार करोड़ धनराशि का फायदा उठाने में नाकाम रहा है।
कमोबेश यही स्थिति बाह्य सहायतित योजनाओं को लेकर है। इस मद में ही खर्च में कुछ सुधार हुआ है। केंद्रीय मदद में कमी को लेकर केंद्र सरकार पर ठीकरा फोड़ती रही राज्य सरकारों ने कभी खुद के गिरेबां में झांकने की कोशिश नहीं की।
केंद्र से मिली विशेष आयोजनागत सहायता (एसपीए) की धनराशि का बड़ा हिस्सा उपयोगिता प्रमाणपत्र नहीं दिए जाने की वजह से राज्य को उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। एसपीए में केंद्र से मिली 371 करोड़ की धनराशि में से बामुश्किल 157 करोड़ खर्च किए जा सके हैं। माध्यमिक शिक्षा, तकनीकी शिक्षा, शहरी विकास, नागरिक उड्डयन जैसे महकमे इस धनराशि का उपयोग नहीं करने वालों में शामिल हैं।
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ये है स्थिति
-तकनीकी शिक्षा के लिए एसपीए के तहत 79 करोड़ मिले, खर्च महज दो करोड़
-माध्यमिक शिक्षा को मिले छह करोड़ में से एक भी पाई खर्च नहीं
-शहरी विकास के लिए मिली 13 करोड़ धनराशि में से छह करोड़ ही खर्च
-नागरिक उड्डयन महकमा 31 करोड़ में से एक पाई खर्च का ब्योरा नहीं दे पाया -रायपुर में प्रस्तावित विधानसभा भवन के लिए 22 करोड़ की धनराशि नहीं हुई खर्च
-एसपीए-आर में उपयोगिता प्रमाणपत्र नहीं देने से 20.79 करोड़ पर संकट
जिला सेक्टर योजना
जिला योजना में खर्च की रफ्तार बढ़ाने के लिए कांग्रेस सरकार ने अपने दूसरे वित्तीय वर्ष में ही सुधारात्मक कदम उठाते हुए शासन से एकमुश्त धनराशि को मंजूर कर जिलों को भेजने का निर्णय लिया। इसका परिणाम जिला योजना के खर्च में सुधार के रूप में नजर आया है।
लेकिन, अन्य जिलों की तुलना में आश्चर्यजनक ढंग से मुख्यमंत्री हरीश रावत के चुनाव क्षेत्र वाला जिला पिथौरागढ़, दो मंत्रियों (विधानसभा चुनाव में तीन मंत्री दिनेश धनै, मंत्री प्रसाद नैथानी और प्रीतम पंवार इस जिले से खम ठोक रहे हैं) और सत्तारूढ़ दल के अध्यक्ष का जिला टिहरी और काबीना मंत्री प्रीतम पंवार का जिला उत्तरकाशी जिला योजना के खर्च में अन्य जिलों से तुलनात्मक रूप से पिछड़ गया।
इस खर्च में देहरादून जिला फिसड्डी रहा। दो काबीना मंत्रियों और शासन की नाक के नीचे होने के बावजूद दिसंबर माह तक जिले का खर्च 35.88 फीसद तक सिमट गया। दिसंबर माह तक जिला योजना में स्वीकृत धनराशि की तुलना में 60.69 फीसद बजट खर्च हुआ। कुल 850 करोड़ के अनुमोदित बजट की तुलना में शासन से 471.38 करोड़ यानी 55.46 फीसद बजट जिलों को स्वीकृत किया गया।
स्वीकृत धनराशि की तुलना में खर्च 286.07 करोड़ हुआ। जिलों के स्तर से विभागों को धनराशि के आवंटन और खर्च दोनों में ही गढ़वाल मंडल की तुलना में कुमाऊं मंडल आगे रहा।
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विकास योजनाओं का बजट नहीं हो रहा खर्च
राज्य के सामने सबसे बड़ी समस्या प्लान के बजट का इस्तेमाल नहीं होने से पैदा हो रही है। हाल ये है कि वित्तीय वर्ष के आखिरी महीने में बजट का बड़ा हिस्सा खर्च किया जा रहा है। बजट खर्च से पहले बजट बनाने के स्तर पर ही खामियां बरती जा रही हैं।
मुख्य सचिव की ओर से इस मामले में कई बार हिदायतें देने के बावजूद महकमों में कानों में जूं नहीं रेंगी। लापरवाही का अंदाजा इससे लग सकता है कि केंद्र सरकार केंद्रपोषित योजनाओं का पुनर्गठन कर पहले 150 से 66 किया और फिर उन्हें 28 में तब्दील किया गया।
इसके बावजूद राज्य के महकमों को इसकी जानकारी तक नहीं थी। महकमों की ओर से वर्ष 2017-18 के लिए बनाए जा रहे नए बजट में केंद्रपोषित योजनाओं के पुराने ढांचे को ध्यान में रखकर योजनाओं का खाका तैयार किया गया। बाद में मुख्य सचिव ने नाराजगी जताते हुए महकमों को दोबारा केंद्रपोषित योजनाओं का बजट तैयार करने को कहा है। केंद्रपोषित योजनाओं को लेकर राज्य के तंत्र की गंभीरता की ये बानगी है।
वित्तीय वर्ष का बजट खर्च करने की रफ्तार पहले महीने अप्रैल से नहीं बढ़ रही। पहली छमाही में भी बजट का कम हिस्सा ही खर्च हो पा रहा है। ऐसे में विकास योजनाओं को लेकर सरकार संजीदा होती तो ये स्थिति शायद ही पेश आती।
इस वर्ष भी दिसंबर माह तक कुल आवंटित बजट का 30 फीसद हिस्सा खर्च नहीं हो पाया है। अनुमोदित बजट परिव्यय की तुलना में बजट को मंजूरी देने में ढुलमुल रवैये को भी खर्च की रफ्तार सुस्त पडऩे की वजह माना जा रहा है। शासन से लेकर जिला स्तर भी यह रुख बदस्तूर जारी है। इसका असर राज्य सेक्टर के बजट खर्च पर भी दिखाई दे रहा है।
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