नवाजुद्दीन को पड़ गए थे खाने के लाले, कैसे बने बॉलीवुड के चमकते सितारे
गिरते-संभलते, जिल्लत सहते मां की एक बात ने नवाजुद्दीन सिद्दीकी को हमेशा बल दिया, जिनका कहना था 'बारह साल में तो घूरे के दिन भी बदल जाते हैं बेटा, तू तो इंंसान है।' और वही हुआ
नई दिल्ली, प्रतिभा गुप्ता। आशिकों की जुबां से आपने कई बार यह सुना होगा, ये इश्क नहीं आसां, बस इतना समझ लीजिए, इक आग का दरिया है और डूब के जाना है...मगर एक गरीब किसान के बेटे नवाजुद्दीन सिद्दीकी नेे इसमें 'इश्क' की जगह 'जिंदगी' शब्द को फिट किया और बन गया बॉलीवुड का चमकता सितारा।
गांव की गलियों में नवाजुद्दीन सिद्दीकी की मोहब्बत का हुआ ऐसा अंत
जिंदगी के संघर्ष और मां की नसीहत का असर
हालांंकि यह सब इतना आसां नहीं रहा। आम शक्ल-सूरत और संकोची स्वभाव वाले नवाजुद्दीन को इसके लिए सालों लंबा संघर्ष करना पड़ा। जिंदगी में एक समय ऐसा आया जब पैसे-पैसे के लिए मोहताज हो गए। चौकीदार तक बनना पड़ा। खाने तक के लाले पड़ गए। चेहरा देखते ही दुत्कार देते लोग। कई बार खुद की हिम्मत को टूटते देखा, मगर फितरत में हार मानना था ही नहीं। गिरते-संभलते, जिल्लत सहते मां की एक बात ने हमेशा बल दिया, जिनका कहना था 'बारह साल में तो घूरे के दिन भी बदल जाते हैं बेटा, तू तो इंंसान है।' और वही हुआ, 11 साल के लंबे संघर्ष के आगे बॉलीवुड को भी नतमस्तक होना पड़ा और नवाजुद्दीन को हाथों-हाथ लिया जाने लगा।
आज यह वही नवाजुद्दीन है, जिसकी फिल्म 'रमन राघव 2.0' के लिए फ्रांस में आयोजित कान फिल्म फेस्टिवल में स्टैंडिंंग अवेशन मिला और पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। यह तो नवाजुद्दीन के लंबे संघर्ष के बाद बॉलीवुड का चमकता सितारा बनने की एक झलक मात्र है। आइए 42वें जन्मदिन पर उनकी जिंदगी और लंबे संघर्ष पर एक संक्षेप नजर डालते हैं-
जब नवाजुद्दीन ने कहा, मैंने अपनी पत्नी को भी कभी नहीं किया किस
पिता थे किसान, नौ भाई-बहन में सबसे बड़े थे नवाजुद्दीन
नवाजुद्दीन का जन्म 19 मई 1974 को उत्तर प्रदेश स्थित मुजफ्फरनगर के बुधना गांव में हुआ। पिता एक मामूली किसान थे और किसी तरह दो जून की रोटी जुटाने की जद्दोजहद में जुटे रहते थे। परिवार भी बड़ा था। नवाजुद्दीन को मिलाकर उनके कुल नौ बच्चे थे, इनमें सात लड़के और दो लड़कियां। ऐसे में माली हालत व परिस्थिति का बखूबी अंदाजा लगाया जा सकता है। नवाजुद्दीन अपने भाई-बहनों में सबसेे बड़े थे। इसलिए उन्हें जिम्मेदारी का भी एहसास सबसे पहले हुआ और बहुत जल्द ही उन्हें समझ आ गया कि परिवार की दिक्कतों को दूर करने का शिक्षा ही एकमात्र जरिया है और वो पढ़ाई में जुट गए।
गांव में नहीं था सिनेमाघर, शीशे के सामने करते थे अभिनय
नवाजुद्दीन को बचपन से ही अभिनय का शौक था, मगर आपको जानकर हैरानी होगी कि उन्होंने बड़े होने के दौरान अपनी जिंदगी में पांच फिल्में भी नहीं देखी होंगी। मगर अभिनय का जुनून तो सिर पर सवार था। वो शीशे के सामने खड़े हो जाते और दिमाग में काल्पनिक सीन बनाकर उसका अभिनय करने लगते। पहले के गांव में कहां थिएटर होता था। कोई भी फिल्म देखने के लिए उन्हें व उनके भाई-बहनों 30-40 किमी पैदल चलकर एक कस्बे में जाना पड़ता था। इसलिए नवाजुद्दीन का कोई फिल्मी बैकग्राउंड था ही नहीं।
साइंस से किया ग्रेजुएशन, चले आए दिल्ली, बनना पड़ा चौकीदार
जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए नवाजुद्दीन ने पढ़ाई पर ध्यान दिया और इसी वजह से वो साइंस की पढ़ाई करने हरिद्वार के गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय पहुंच गए। मगर किस्मत में तो कुछ और ही लिखा था। आर्थिक तंगी झेलते हुए भी अभिनय का सपना जिंदा रहा और यह उन्हें दिल्ली ले आया। मगर वहीं आर्थिक तंगी उनके सामने मुंह बाये खड़ी रही। दिल्ली में ना कोई रहने का ठिकाना और ना ही खर्च निकालने का जुगाड़। इसलिए उन्हें चौकीदार की नौकरी तक करने को मजबूर होना पड़ा। हालांकि शाहदरा में चौकीदारी कर खर्च चलाने का जुगाड़ हो गया और इसके साथ ही उनका जो मुख्य मकसद था वो भी पूरा हो गया। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में उन्हें दाखिला जो मिल गया। दिन में वहां अपनेे अभिनय की कला तराशते और रात में भूख मिटाने के लिए चौकीदार की नौकरी करते। इस तरह संघर्ष करते हुए नवाजुद्दीन को इस बीच इरफान खान और सौरभ शुक्ला जैसे कलाकारों के साथ नाटक में काम करने का मौका भी मिला।
मुंबई में शुरु हुआ असल संघर्ष, खाने के पड़ गए लाले
नवाजुद्दीन के असल संघर्ष की शुरुआत तो तब शुरू हुई, जब वो 2004 में दिल्ली से अपना सपना पूरा करने 'माया नगरी' मुंबई पहुंचे। मगर यहां भी उनके हाथ में कुछ नहीं था। यह उनके संघर्ष का सबसे बुरा साल रहा। उनके रहने तक का ठिकाना नहीं था, मगर उन्होंने इसका जुगाड़ कुछ इस तरह निकाला। नवाजुद्दीन ने अपने एक एनएसडी सीनियर से पूछा कि क्या वो उनके साथ रह सकते हैं तो उसने रहने की इजाजत तो दे दी, मगर एक शर्त पर और वो शर्त ये थी कि नवाजुद्दीन को उनके लिए खाना बनाना था। अब मरता क्या ना करता, नवाजुद्दीन ने भी हां कर दी। रहने के लिए छत मिल गई, मगर काम तलाशने निकले तो हर जगह दुत्कार ही मिली।
काम मांगने जाते तो सांवला चेहरा देखते ही हंस पड़ते थे लोग
नवाजुद्दीन खुद भी बता चुके हैं कि सांवले होने के कारण अगर वो कहते कि उन्हें अभिनेता बनना है तो सब देखकर उन्हें हंसने लगते। कोई भी उन्हें फिल्मों के लायक ही नहीं समझता और सब मना कर देते। इस बीच, काम न मिलने पर नवाजुद्दीन के लिए पेट पालना भी मुश्किल हो गया। एक पहर किसी तरह खाने का इंतजाम हो जाता तो दूसरे पहर भूखे ही रहना पड़ता। नवाजुद्दीन ने एक इंटरव्यू में बताया था कि एक बार वो पैसे उधार मांगने अपने दोस्त के पास गए, मगर उसके पास भी नहीं थे। ऐसे में दोनोंं मिलकर रोने लगे, गांव जाने का भी कई बार मन किया। मगर इस डर से कभी नहीं गए कि कहीं गांव वाले यह कहकर उनका मजाक ना उड़ाने लगें कि बड़ा चले थे हीरो बनने।
लंबे संघर्ष के बाद रोल मिले भी तो छोटे-मोटे, वो भी दोएम दर्जे के
आखिरकार लंबे संघर्ष के बाद नवाजुद्दीन ने 1999 में बॉलीवुड में कदम रखा आमिर खान की फिल्म 'सरफरोश' से, मगर किरदार बहुत छोटा था। उन्हें ये अलग तरह की चुनौती का सामना करना पड़ा। उनको देखते हुए भिखारी, जेबकतरे, गुंडा-मवाली जैसे किरदार के ही प्रस्ताव मिलने लगे, वो भी छोटे-मोटे। हालांकि नवाजुद्दीन ने ऐसी कई बड़ी फिल्मों में भी काम किया, मगर उनका रोल इतना छोटा था कि किसी की उन पर नजर ही नहीं गई। उस वक्त उन्हें कोई पहचानता भी नहीं था। इसलिए किसी को पता भी नहीं होगा कि 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' में भी वो सुनील दत्त और संजय दत्त के साथ नजर आए थे। मुंबई आने के बाद नवाज ने टीवी में भी काम पाने की कोशिश की, मगर नाकाम रहे। 2003 में उन्हें एक शॉर्ट फिल्म 'बाइपास' में काम किया, जिसमें इरफान खान थे। 2002 से 05 तक वो ज्यादातर समय बेरोजगार रहे और चार लोगों के साथ फ्लैट शेयर करते हुए रहे और समय-समय पर एक्टिंग वर्कशॉप चलाकर जीवन यापन करते रहे।
अनुराग कश्यप की बदौलत बड़ी फिल्मों के मिलने का रास्ता हुआ साफ
2007 में अनुराग कश्यप की फिल्म 'ब्लैक फ्राइडे' से दूसरी फिल्मों में बडा रोल मिलने का रास्ता साफ हुआ। उनका फर्स्ट लीड रोल प्रशांत भार्गव की फिल्म 'पतंग' में था, जहां वेडिंग सिंगर चक्कू का किरदार निभाया और बर्लिन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल व ट्रिबेका फिल्म फेस्टिवल में इसका प्रीमियर हुआ। इस फिल्म के लिए नवाजुुद्दीन की विश्व विख्यात फिल्म समीक्षक राेगर एबर्ट ने उनकी जमकर तारीफ की। 2009 में वो 'देव डी' के हिट सॉन्ग 'इमोशनल अत्याचार' में नजर आए। मगर उन्होंने दर्शकों का ध्यान खींचा कबीर खान की फिल्म 'न्यूयॉर्क' से। इस फिल्म में उनका एक सीन देखकर इरफान खान की आंखों में आंसू तक आ गए थे। 'न्यूयॉर्क' में नवाजुद्दीन ने एक ऐसे शख्स का किरदार निभाया था, जिस पर आतंकवादी गतिविधियों में संलिप्त होने का आरोप लगाया था। उनके किरदार में जो असल दर्द दिखा, सही मायने में उनके 11 साल के संघर्ष की एक झलक था। तभी तो इरफान खान जैसा दमदार अभिनेता पिघल गया।
अंत में एक सच्चे कलाकार और उसके लंबे संघर्ष की हुई जीत
वैसे कहा जाता है कि आमिर खान की प्रोडक्शन फिल्म 'पीपली लाइव' में पत्रकार की भूमिका से एक अभिनेता के ताैर पर नवाजुद्दीन को जो असल पहचान मिली, फिर उन्हें कभी पीछे मुड़कर देखने की जरूरत नहीं पड़ी। अनुराग कश्यप की 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' की सीरीज फिल्मों से तो उन्होंने दर्शकों के दिलों में पक्की जगह बना ली, जो कभी नहीं खाली होने वाली। अब तो मौजूदा स्थिति ये है कि निर्माता-निर्देशक नवाजुद्दीन को दिमाग में रखकर किरदार गढ़ रहे हैंं और एक सच्चे कलाकार की तरह नवाजुद्दीन हर किरदार को जीवंत करते जा रहे है।