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फिल्में, जो बनीं आम आदमी की आवाज

प्यार-मोहब्बत और मारधाड़ वाली काल्पनिक कहानियां बॉलीवुड की खास पहचान बन चुकी हैं। लेकिन इसी बॉलीवुड में कुछ ऐसी फिल्में भी बनीं, जिनमें आम आदमी के मुद्दों को जोरदार तरीके से बड़े पर्दे पर दिखाकर दर्शकों को झकझोरा गया। विश्व मानवाधिकार दिवस पर हम आपको ऐसी ही कुछ फिल्मों के बारे में बताते हैं।

By Edited By: Updated: Tue, 10 Dec 2013 02:24 PM (IST)

प्यार-मोहब्बत और मारधाड़ वाली काल्पनिक कहानियां बॉलीवुड की खास पहचान बन चुकी हैं। लेकिन इसी बॉलीवुड में कुछ ऐसी फिल्में भी बनीं, जिनमें आम आदमी के मुद्दों को जोरदार तरीके से बड़े पर्दे पर दिखाकर दर्शकों को झकझोरा गया। विश्व मानवाधिकार दिवस पर हम आपको ऐसी ही कुछ फिल्मों के बारे में बताते हैं।

आरक्षण (2011)

अमिताभ बच्चन फिल्म में एक कॉलेज प्रिंसिपल के तौर पर आरक्षण को मंजूरी देते हैं, लेकिन निजी संस्थान की स्टैंडिंग कमेटी उनके फैसले को नकार देती है। फिल्म में दिखाया गया है कि किस तरह आरक्षण के मुद्दे को राजनैतिक दल भुनाते हैं और आम आदमी को बेवकूफ बनाते हैं।

शाहिद (2013)

इसी साल आई फिल्म शाहिद मानवाधिकार कार्यकर्ता और वकील शाहिद आजमी की जिंदगी पर आधारित थी, जिनकी 2010 में मुंबई में हत्या कर दी गई थी। बेशक यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कमाल नहीं कर पाई, लेकिन फिल्म से बहुत लोगों को प्रेरणा मिली। हंसल मेहता ने उन सभी लोगों को अपनी इस फिल्म के जरिए श्रद्धांजलि दी, जिन्होंने मानवाधिकारों के लिए संघर्ष करते-करते अपनी जान गंवा दी।

प्रेम रोग (1982)

राजकपूर ने बहुत ही नजाकत के साथ बड़े पर्दे पर दिखाया कि एक विधवा को समाज में रहते हुए किन-किन तकलीफों से जूझना पड़ता है। राज साहब ने अपनी इस फिल्म में विधवाओं के पुनर्विवाह के मुद्दे को भी बढि़या तरीके से पेश किया। पद्मनी कोल्हापुरे ने विधवा के रोल में जान फूंक दी थी।

रंग दे बसंती (1982)

आमिर खान की इस फिल्म में भ्रष्टाचार और युवाओं के मुद्दों को शानदार तरीके से पिरोकर बड़े पर्दे पर दिखाया गया। यह फिल्म न सिर्फ सामाजिक सरोकारों को दिखाने में कामयाब रही, बल्कि बॉक्स ऑफिस पर भी इस फिल्म ने कामयाबी के झंडे गाड़े। राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने इस फिल्म के जरिए साबित किया कि कमर्शियल सिनेमा के जरिए भी आम आदमी की आवाज उठाई जा सकती है।

पीपली लाइव (2010)

फिल्म में दिखाया गया है कि किस तरह गरीब किसान कर्ज न चुकाने की स्थिति में आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाता है। इस फिल्म में मीडिया की अति को भी बहुत बेहतर ढंग से पेश किया गया है कि किस तरह मीडिया अपनी टीआरपी के चक्कर में सारी हदें पार कर देता है।

3 इडियट्स (2010)

आमिर खान इस फिल्म में पारंपरिक शिक्षा प्रणाली की खामियों को उजागर करते हैं। फिल्म में बहुत बेहतर ढंग से संदेश दिया कि युवाओं को अपने दिल की आवाज सुननी चाहिए और माता-पिता को भी बच्चों पर अपनी पसंद और अपेक्षाएं थोपने की बजाय उनकी दिलचस्पी और हुनर को ध्यान में रखना चाहिए। 3 इडियट्स बॉक्स ऑफिस पर भी सबसे कामयाब फिल्म साबित हुई थी।

अर्धसत्य (1983)

ओम पुरी को एक पुलिस ऑफिसर के तौर पर लोकल माफिया, भ्रष्ट पुलिसवालों और राजनेताओं से जूझना पड़ता है। फिल्म उन पुलिसवालों का दर्द बयां करती हैं, जिन्हें ईमानदारी से ड्यूटी निभाने के लिए तमाम तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है।

मृत्युदंड (1997)

इस फिल्म में माधुरी दीक्षित ने एक ग्रामीण महिला के तौर पर बहुत जोरदार और प्रेरक रोल किया है। केतकी के रोल में माधुरी पुरुष प्रधान समाज में अपने हक और सामाजिक न्याय के लिए आवाज उठाती हैं और बाकी महिलाओं के लिए प्रेरणा साबित होती हैं।

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