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सुरों की मल्लिका लता दी से जुड़ी कुछ खास बातें

मुंबई। सुरों की मल्लिका 'लता दी' की गायिकी की तारीफ करते हुए कुछ इस कदर शब्दों का जाल आसपास गूंजने लगता है: सुन्दर सुमन भरे उपवन में मधुपों का गुंजन करना खुले, विस्तृत, नीले नभ में परिंदों का कलरव करना लता मंगेशकर ने साल 1

By Edited By: Updated: Mon, 29 Jul 2013 04:20 PM (IST)
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मुंबई। सुरों की मल्लिका 'लता दी' की गायिकी की तारीफ करते हुए कुछ इस कदर शब्दों का जाल आसपास गूंजने लगता है:

सुन्दर सुमन भरे उपवन में

मधुपों का गुंजन करना

खुले, विस्तृत, नीले नभ में

परिंदों का कलरव करना

लता मंगेशकर ने साल 1977 में 'किनारा' फिल्म के लिए एक गाना गाया था । जिसे गुलजार ने लिखा था और उस गाने के बोल कुछ ऐसे थे 'नाम गुम जाएगा चेहरा ये बदल जाएगा. मेरी आवाज ही मेरी पहचान है'। आज इसी गीत को याद करके लोग लता दी और उनकी गायिकी को याद किया करते हैं।

सुरों की मल्लिका 'लता दी' को पहला 'यश चोपड़ा अवार्ड' 19 अक्टूबर 2013 को दिए जाने की घोषणा की गई है। टी सुब्बारामी रेड्डी फाउंडेशन ने प्रख्यात फिल्म निर्माता यश चोपड़ा की स्मृति में इस अवार्ड की स्थापना की है। इस अवार्ड के तहत 10 लाख रुपये नकद और एक प्रशस्ति पत्र दिया जाएगा। कांग्रेस सांसद टी सुब्बारामी रेड्डी ने स्वयं इस बात की घोषणा की है। लता दी ने गायिकी के सफर के साथ-साथ अपने निजी जीवन में भी बहुत सी परेशानियों का सामना किया। एक नजर लता दी के जीवन से जुड़ी खास बातों पर:

लता दी के बचपन की याद का खजाना

लता मंगेशकर का जन्म 28 सितंबर, 1929 को मध्यप्रदेश में इंदौर शहर के एक मध्यम वर्गीय मराठी परिवार में हुआ था। लता दी का जीवन बेहद कठिनाइयों भरा रहा। साल 1942 में तेरह वर्ष की छोटी उम्र में ही लता दी के सिर से पिता का साया उठ गया और परिवार की जिम्मेदारी उनके ऊपर आ गई। इसके बाद उनका पूरा परिवार पुणे से मुंबई आ गया।

'पिता ने सिखाया तन्हां मोड़ पर कोई साथ ना होगा'

लता दी के बचपन की शरारत का एक किस्सा चर्चित है। जब लता दी बचपन में बहुत शरारत करती थीं तो उनकी मां उन्हें पकड़कर बहुत मारा करती थीं और वो गुस्से में अपनी फ्र ॉक को गठरी में बांधकर कहती थीं 'घर छोड़कर जा रही हूं'। लता दी जब घर छोड़कर घर के पास की सड़क पर खड़ी हो जाती थीं तो उनकी मां जल्दी से उनके पीछे भागती थीं क्योंकि घर के पास ही एक तालाब था जिस कारण उनकी मां को डर लगता था कि वो कहीं तलाब में ना गिर जाएं। एक दिन ऐसा आया जब लता घर छोड़कर जाने लगीं तो उनके पिता जी ने कहा कि 'इसे घर छोड़कर जाने दो और कोई भी उसे रोकने नहीं जाएगा'। तब लता दी को लगा कि शायद उनके पिता जी मजाक कर रहे हैं पर जब उन्होंने बार-बार पीछे मुड़कर देखा तो कोई भी उन्हें रोकने नहीं आया था। लता मंगेशकर के पिता जी ने यह बात उन्हें बचपन में ही समझा दी थी कि 'क्या सही है क्या गलत इसका फैसला तुम्हें खुद करना है क्योंकि जब जिंदगी के मोड़ पर आप तन्हां चल रहे होते हैं तो कोई भी आपका साथ देने नहीं आता है'।

'100 सालों में से 70 साल लता दी के हैं'

लता दी ने अपने गायिकी के सफर में हिन्दी सिनेमा को ऐसे गीतों का खजाना दिया है जिसे कभी भी भुला पाना आसान नहीं है। लता दी के बारे में 'उस्ताद बड़े गुलाम अली खां' ने कहा था कि 'कम्बख्त कभी गलती से भी बेसुरा नहीं गाती'। लता दी के चाहने वालों ने उन्हें 'सरस्वती' तक का दर्जा दिया। लता दी को आज भी वो दिन याद है जब वो फिल्मों में गाना गाने से पहले मराठी कंपनी प्रफुल्ल पिक्चर्स में काम किया करती थीं। मात्र 14 वर्ष की उम्र में लता दी फिल्मों में हीरो या हीरोइन की बहन का रोल अदा किया करती थीं पर वो कभी भी अपने काम से निराश नहीं हुईं और जिंदगी के हर कदम पर साहस के साथ आगे बढ़ती रहीं।

लता दी एक ऐसी शख्सियत हैं जिन्होंने देश को ना जाने कितने ही नगमे दिए। लता दी ने साल 1962 में चीन के साथ हुई लड़ाई के बाद एक कार्यक्रम में पंडित प्रदीप का लिखा, 'ऐ मेरे वतन के लोगों'. गाया तो पूर्व प्रधानमंत्री 'पंडित जवाहरलाल नेहरू' की आंखों से आंसू निकल पड़े थे। साल 1945 में लता दी की मुलाकात संगीतकार 'गुलाम हैदर' से हुई और वहीं से शुरू हुआ सुरों का सफर। 40 के दशक से लेकर लता दी की गायिकी का जादू लगभग 50 सालों तक चला और आज भी उनके द्वारा गाए गीतों को लोग गुनगुनाते हैं। साल 1974 में दुनिया में सबसे अधिक गीत गाने का गिनीज बुक रिकॉर्ड भी लता दी के नाम है जिन्होंने अब तक 30,000 से ज्यादा गाने गाए हैं। लता दी ही एकमात्र ऐसी जीवित व्यक्ति हैं जिनके नाम से पुरस्कार दिए जाते हैं। साल 2001 में लता दी को देश के सर्वोच्च सम्मान 'भारत रत्‍‌न' से सम्मानित किया गया। लता दी के हिन्दी सिनेमा में इसी सुनहरे सफर के कारण आज वो गर्व से कहती हैं कि 'हिन्दी सिनेमा के 100 सालों में से 70 साल उनके हैं'।

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