अग्ली है अलहदा: विनीत सिंह
मूलत: बनारस के विनीत कुमार सिंह की मेहनत अब रंग ला रही है। उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री में 14 सालों के संघर्ष के बाद 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' से अपनी पहचान बनाई। उसके बाद वे 'बॉम्बे टॉकीज', 'गोरी तेरे गांव में' व 'इसक' और अन्य फिल्मों में नजर आए। अब उनकी 'अग्ली'
By rohitEdited By: Updated: Tue, 23 Dec 2014 01:40 PM (IST)
मुंबई, अमित कर्ण। मूलत: बनारस के विनीत कुमार सिंह की मेहनत अब रंग ला रही है। उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री में 14 सालों के संघर्ष के बाद 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' से अपनी पहचान बनाई। उसके बाद वे 'बॉम्बे टॉकीज', 'गोरी तेरे गांव में' व 'इसक' और अन्य फिल्मों में नजर आए। अब उनकी 'अग्ली' रिलीज हो रही है। फिल्म में वे एक चतुर, निष्ठुर कास्टिंग डायरेक्टर चैतन्य मिश्रा के रोल में हैं।
वे बताते हैं, फिल्म मुंबई में सेट है। वह कुछ लोगों की अति महत्वाकांक्षा की बानगी है। चैतन्य मिश्रा मुंबई आया तो था हीरो बनने, मगर उसकी दाल गली नहीं तो वह कास्टिंग डायरेक्टर बन गया। उसे लगता है कि वह जो डिजर्व करता है, उसे मुंबई ने दिया नहीं तो वह अपना बकाया हासिल करने के लिए किसी भी राह को अख्तियार करने को तैयार बैठा है। ऐसे मोड़ पर वह एक किडनैपिंग के मामले का हिस्सेदार बनता है, फिर उसके साथ क्या होता है, यह फिल्म उस बारे में है। मेरे लिए यह किरदार बिल्कुल जुदा और अलग है। मैं पर्सनल लाइफ में वैसा दूर-दूर तक नहीं हूं।'अग्ली' एक सायकोलॉजिकल थ्रिलर है। बिल्कुल उस मिजाज और इंटेंसिटी की, जैसी कोरियन फिल्में होती हैं। अनुराग को उसका आइडिया 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' से पहले ही आया हुआ था, पर वे उसे मूर्तस्प गैंग्स ऑफ वासेपुर की रिलीज के बाद दे सके। मैं अनुराग और 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' का शुक्रगुजार रहूंगा, जिनके चलते मुझे एक पहचान मिली, वरना काम तो मैं उससे पहले दसियों फिल्मों में कर चुका था, लेकिन कभी नोटिस नहीं हुआ। अब लोगों को याद आता है कि फलां फिल्म में मैं भी था।
बहरहाल, 'अग्ली' तेज गति की फिल्म है और उसके बाद से मेरा करियर भी रफ्तार पकड़ चुका है। 'अग्ली' के रफ कट देखकर ही सुधीर मिश्रा ने मुझे 'और देवदास' ऑफर की। उसमें मैं मेन लीड में हूं। के.वी. सत्यम की 'बॉलीवुड डायरीज' कर रहा हूं। 'और देवदास' पॉलिटिकल फिल्म है। आज तारीख में सेट है। फिल्म में पॉलिटिकिल बैकड्रॉप में लव स्टोरी सेट है। 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' के बाद से अब एक बड़ी अच्छी चीज हो रही है कि कहानी केंद्रित फिल्में बनने लगी हैं। ऐसे में आम चेहरे मोहरे वालों को भी भाव मिलने लगा है। फिल्में किरदार केंद्रित हो रही हैं, जो क्वॉलिटी फिल्मों की बेहतरी और बढ़ावे के लिए शुभ संकेत हैं।