फिल्म रिव्यू : प्यार के मायनों की तलाश 'बेफिक्रे' (3 स्टार)
जिस्मानी संबंध स्थापित होने का मतलब यह कतई नहीं कि संबंधित शख्स से प्यार है ही। धरम इस मामले में अपरिपक्व है। उसके लिए दोनों में विभेद करना मुश्किल है। वह जरा मर्दवादी सोच से भी ग्रस्त है। फिर भी दोनों इश्क में पड़ते हैं।
अमित कर्ण
प्रमुख कलाकार- रणवीर सिंह, वाणी कपूर
निर्देशक- आदित्य चोपड़ा
स्टार- तीन
बतौर निर्देशक आदित्य चोपड़ा ने ‘रब ने बना दी जोड़ी’ के आठ सालों बाद इस फिल्म से पुराने रोल में वापसी की है। 1995 में अपनी पहली फिल्म ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ से लेकर अब तक उन्होंने प्यार की पहेलियों व उसकी राह की चुनौतियों को अपनी कहानियों में प्रमुखता और प्रभावी तरीके से पेश किया है। वे यार-परिवार, मूल्य और रिवाजों को भी तरजीह देते रहे हैं। साथ ही काल-खंड विशेष में युवा जिन द्वंद्वों से दो-चार हैं, वे उनकी कथा के केंद्र में रहे हैं। ‘बेफिक्रे’ भी तकरीबन उसी ढर्रे पर है। पूरी इसलिए नहीं कि इस बार यार-परिवार और रीति-रिवाज फिल्म के अतिरिक्त लकदक किरदारों के तौर पर मौजूद नहीं हैं। पूरी फिल्म नायक-नायिकाओं के इर्द-गिर्द ही सिमटी हुई है। रिश्तों के प्रति उनकी धारणाओं, पूर्वाग्रह, द्वंद्व और चुनौतियों की सिलसिलेवार जांच-पड़ताल की गई है। दिक्कत दोषहीन निष्कर्ष पर पहुंचने में हो गई है।
फिल्म की कथाभूमि पेरिस में है। वह शहर जो प्यार के ऊंचे प्रतिमान का सूचक है। वहां दिल्ली के करोलबाग के धरम की मुलाकात फ्रांस में ही पली-बढी शायरा से होती है। वह खुद को फ्रांसीसी ही मानती है। जाहिर तौर पर प्यार को लेकर उसकी जिज्ञासाएं और सवाल धरम से अलग हैं। उसे मालूम है कि प्यार और लिप्सा द्विध्रुवीय चीजें हैं। जिस्मानी संबंध स्थापित होने का मतलब यह कतई नहीं कि संबंधित शख्स से प्यार है ही। धरम इस मामले में अपरिपक्व है। उसके लिए दोनों में विभेद करना मुश्किल है। वह जरा मर्दवादी सोच से भी ग्रस्त है। फिर भी दोनों इश्क में पड़ते हैं, क्योंकि वे बेफिक्र यानी बेपरवाह स्वभाव के हैं। यही उन दोनों की सोच-अप्रोच में कॉमन बात है। उनकी प्रेम कहानी में मोड़ एक साल लिव इन में रहने के बाद आता है। रोजमर्रा की छोटी-मोटी परेशानियों से दो-चार होते हुए वे आखिरकार अलग होने का फैसला करते हैं। रो-धो कर नहीं। आपसी सहमति के बाद। उसके बाद भी उनकी दोस्ती कायम रहती है। फिर क्या होता है? क्या उन्हें सच्चे प्यार के मायने पता चल पाते हैं, फिल्म आगे इन्हीं सवालों के जवाब तलाशती है।
आदित्य चोपड़ा ने धरम और शायरा के जरिए विकास और सभ्यता की दौड़ में बेहद भिन्न पायदानों पर मौजूद समाज की सोच जाहिर की है। उनकी परेशानियों की तह में जाने की कोशिश की है, मगर जो उनकी ताकत है, वह गुम है। किरदार बेपरवाही के रास्ते सचेत बनने की राह पर अग्रसर होते हैं। उस पड़ाव पर किरदारों से जिस संजीदा व्यवहार की जरूरत थी, वह गुम है। लेखक और निर्देशक क्लाइमेक्स पर आ अचानक से जागते हुए लगते हैं। अलगाव के बाद धरम तो बेशुमार रिश्तों में पड़ता है, पर शायरा को वे सती-सावित्री बनाने में जुट जाते हैं। फ्रांस की उस शायरा को जिसकी परवरिश अलग परिवेश में हुई है। ऐसे माहौल में जहां युवा रिश्तोंं के बिखराव के बाद आसानी से आगे बढ़ते हैं। वे वहीं नहीं ठहरते।
शायरा का अतीत में अटके रहना खटकता है। वह कहानी के मिजाज से मेल नहीं खाता। उस मिजाज से जिसकी बुनियाद शुरूआत में रखी गई है। इससे उसकी स्वभाविकता प्रभावित होती है। ठीक ऐसी ही चीज ‘ऐ दिल है मुश्किल’ के साथ थी। ‘कॉकटेल’ में भी नायक की शादी वेरोनिका से नहीं करवाई जाती, क्योंकि वह उसके साथ हमबिस्तर हो चुकी है। ये चीजें उक्त फिल्मों की कमजोड़ कडि़यां हैं। आदित्य चोपड़ा भी जाने-अनजाने आखिर में इसी जंजीर में आ कैद होते हैं। ऐसा लगता है कि इन लोगों ने युवाओं को खांचाबद्ध कर दिया है। कि युवा कंफ्यूज्ड ही होते हैं।
अलबत्ता आदि को रणवीर सिंह, वाणी कपूर, एडीटर नम्रता राव , संवाद लेखक शरत कटारिया और फिल्म के कैमरामैन कैमिली गरबरेनी का भरपूर साथ मिला है। रणवीर और वाणी एफर्टलेस लगे हैं। रणवीर सिंह ने धरम की बेचैनी और कूपमंडूक प्रवृत्ति को बखूबी आत्मसात किया है। शायरा के अवतार में वाणी की नृत्य-क्षमता का भरपूर इस्तेमाल हुआ है। कैमिली ने तो पूरी फिल्म में पेरिस और आस-पास के नयनाभिराम इलाकों को कैमरे में कैद किया है। नम्रता राव ने किस्से को अतीत-वर्तमान का सफर करवाया है। इससे कहानी अत्यधिक सरल होने से बचती है। संवाद के लेखन में आदित्य चोपड़ा को शरत कटारिया का भरपूर साथ मिला है। किरदारों के डायलॉग मजेदार व हास-परिहास से लैस हैं।
अवधि- 132 मिनट