फिल्म रिव्यू: हमारी अधूरी कहानी (3 स्टार)
मोहित सूरी और महेश भट्ट एक साथ आ रहे हों तो एक बेहतरीन फिल्म की उम्मीद की ज सकती है। ‘हमारी अधूरी कहानी’ बेहतरीन की परिधि में आते-आते रह गई है। यह फिल्मी संवादों, प्रेम के सिचुएशन और तीनों मुख्य कलाकारों के जबरदस्त अभिनय के लिए देखी जा सकती है।
By Monika SharmaEdited By: Updated: Fri, 12 Jun 2015 10:47 AM (IST)
अजय ब्रह्मात्मज
प्रमुख कलाकार: विद्या बालन, इरमान हाशमी, राजकुमार राव
निर्देशक: मोहित सूरी
संगीतकार निर्देशक: राजू सिंह
स्टार: 3
फिल्म में आज के ट्रेंड के मुताबिक औरतों की आजादी की भी बातें हैं। पुरूष दर्शकों को वसुधा का गुस्सा कुछ ज्यादा लग सकता है, लेकिन सच तो यही है कि पति नामक जीव ने परंपरा और मर्यादा के नाम पर पत्नियों को सदियों से बांधा और सेविका बना कर रख लिया है। फिल्म के संवाद के लिए महेश भट्ट और शगुफ्ता रफीक को बधाई देनी होगी। अपने पति पर भड़क रही वसुधा अचानक पति के लिए बहुवचन का प्रयोग करती है और ‘तुमलोगों’ संबोधन के साथ सारे पुरुषों को समेट लेती है।
वसुधा भारतीय समाज की वह अधूरी औरत है, जो शादी के भीतर और बाहर पिस रही है। वह जड़ हो गई है, क्योंकि उसकी भावनाओं की बेल को उचित सपोर्ट नहीं मिल पा रहा है। वह कामकाजी और कुशल औरत है। वह बिसूरती नहीं रहती। पति की अनुपस्थिति में वह अपने बेटे की परवरिश करने के साथ खुद भी जी रही है। आरव के संपर्क में आने के बाद उसकी समझ में आता है कि वह रसहीन हो चुकी है। उसे अपना अधूरापन नजर आता है। आरव खुशी देकर उसका दुख कम करना चाहता है। हालांकि फिल्म में हवस और वासना जैसे शब्दों का इस्तेकमाल हुआ है, लेकिन गौर करें तो आरव और वसुधा की अधूरी जिंदगी की ख्वाहिशों में यह प्रेम का पूरक है। ‘हमारी अधूरी कहानी’ स्त्री-पुरुष संबंधों की कई परतें पेश करती है। हरि-वसुधा, आरव-वसुधा, आरव की मां और उनका प्रेमी, हरि के माता-पिता .... लेखक-निर्देशक सभी चरित्रों के विस्तार में नहीं गए हैं। फिर भी उनके जीवन की झलक से प्रेम के अधूरेपन की खूबसूरती और बदसूरती दोनों नजर आती है। ‘हमारी अधूरी कहानी’ का शिल्प कमजोर है। आरव और वसुधा के जीवन प्रसंगों में भावनाएं तो हैं, किंतु घटनाओं की कमी है। वसुधा जिंदगी से ली गई किरदार है। आरव को पन्नों पर गढ़ गया है। अपनी भावनाओं के बावजूद वह यांत्रिक लगता है। यही कारण है कि उसकी सौम्यदता, दुविधा और कुर्बानी हमें विचलित नहीं करती। इस लिहाज से हरि जीवंत और विश्वसनीय किरदार है। रुढियों में जीने की वजह से औरतों के स्वामित्व की उसकी धारणा असंगत लगती है, लेकिन यह विसंगति अपने समाज की बड़ी सच्चाई है। पुरुष खुद को स्वामी समझता है। वह औरतों की जिंदगी में मुश्किलें पैदा करता है।
‘हमारी अधूरी कहानी’ अपनी कमियों के बावजूद स्त्री-पुरुष संबंधों की बारीकियों में उतरती है। लेखकों की दृष्टि पुरानी है और शब्दों पर अधिक जोर देने से भाव का मर्म कम हुआ है। फिर भी यह फिल्म पॉपुलर ढांचे में कुछ सवाल रखती है। इमरान हाशमी ने आरव के किरदार को उसके गुणों के साथ पर्दे पर उतारा है। कशमकश के दृश्योंण में वे प्रभावित करते हैं। उन्हें किरदार(लुक और कॉस्ट्यूम) में ढालने में फिल्म की तकनीकी टीम का भी योगदान है। विद्या बालन इस अधूरी कहानी में भी पूरी अभिनेत्री हैं। वह वसुधा के हर भाव को सलीके से पेश करती हैं। पति और प्रेमी के बीच फंसी औरत के अंतर्विरोधों को चेहरे से जाहिर करना आसान नहीं रहा होगा। विद्या के लिए वसुधा मुश्किल किरदार नहीं है, लेकिन पूरी फिल्म में किरदार के अधूरेपन को बरकरार रखना उललेखनीय है। राजकुमार राव के बार में यही कहा जा सकता है कि हर बार की तरह उन्होंने सरप्राइज किया है। हमें मनोज बाजपेयी और इरफान खान के बाद एक ऐसा एक्टैर मिला है, जो हर कैरेक्टर के मानस में ढल जाता है। हरि की भूमिका में उन्होंने फिर से जाहिर किया है कि वे उम्दा अभिनेता हैं। राजकुमार राव और विद्या बालन के साथ के दृश्य मोहक हैं। नरेन्द्र झा छोटे किरदार में जरूरी भूमिका निभाते हैं। गीत-संगीत बेहतर है फिल्म के गीतों में अधूरी कहानी इतनी बार रिपीट करने की जरूरत नहीं थी। राहत फतह अली का गाया गीत फिल्म के कथ्य को कम शब्दों में बखूबी जाहिर करता है। वही हैं सूरतें अपनी वही मैं हूँ, वही तुम हो
मगर खोया हुआ हूँ मैं मगर तुम भी कहीं गुम हो
मोहब्बत में दग़ा की थी काफ़िर थे सो काफ़िर हैं
मिली हैं मंज़िलें फिर भी मुसाफिर थे मुसाफिर हैं
तेरे दिल के निकाले हम कहाँ भटके कहाँ पहुंचे
मगर भटके तो याद आया भटकना भी ज़रूरी था अवधि- 131 मिनट abrahmatmaj@mbi.jagran.comकिसी भी फिल्म का रिव्यू पढ़ने के लिए क्लिक करें
मगर खोया हुआ हूँ मैं मगर तुम भी कहीं गुम हो
मोहब्बत में दग़ा की थी काफ़िर थे सो काफ़िर हैं
मिली हैं मंज़िलें फिर भी मुसाफिर थे मुसाफिर हैं
तेरे दिल के निकाले हम कहाँ भटके कहाँ पहुंचे
मगर भटके तो याद आया भटकना भी ज़रूरी था अवधि- 131 मिनट abrahmatmaj@mbi.jagran.comकिसी भी फिल्म का रिव्यू पढ़ने के लिए क्लिक करें