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मेरठ के शख्स ने मुंबई में पाया शख्सीयत का दर्जा

पंडित मुखराम शर्मा! शायद आप इस नाम से परिचित न हों, लेकिन इनकी बदौलत बालीवुड में लेखक को सम्मान मिला। मेरठ सेसाधारण शख्स के तौर पर मुंबई पहुंचकर फिल्मी दुनिया में कथा, पटकथा और संवाद लेखक के तौर पर बड़ी शख्शीयत का दर्जा पाया। आइये सिनेमा के सौ साल और पंडितजी की पुण्य तिथि के अवसर पर उस सुनहरे दौर के पहले स्टार राईटर को याद करें।

By Edited By: Updated: Wed, 25 Apr 2012 11:15 AM (IST)

प्रवीण वशिष्ठ, बिजनौर। पंडित मुखराम शर्मा! शायद आप इस नाम से परिचित न हों, लेकिन इनकी बदौलत बॉलीवुड में लेखक को सम्मान मिला। मेरठ से साधारण शख्स के तौर पर मुंबई पहुंचकर फिल्मी दुनिया में कथा, पटकथा और संवाद लेखक के तौर पर बड़ी शख्शीयत का दर्जा पाया। आइये सिनेमा के सौ साल और पंडितजी की पुण्य तिथि के अवसर पर उस सुनहरे दौर के पहले स्टार राईटर को याद करें।

पंडित मुखराम शर्मा का जन्म 30 मई 1909 में मेरठ के किला परीक्षितगढ़ क्षेत्र के गांव पूठी में हुआ। हिन्दी और संस्कृत में शिक्षक के तौर पर करियर की शुरुआत हुई। फिल्में देखने और कहानी लेखन का शौक उन्हें 1939 में मुंबई ले गया, लेकिन वहां काम नहीं मिला। उस दौर में पूना में भी फिल्में बनती थीं। वहां की प्रभात फिल्म कंपनी पहुंचे। मराठी कलाकारों के हिन्दी उच्चारण सुधारने का काम मिला। कुछ समय बाद फिल्म दस बजे के गीत और संवाद लिखने का मौका मिल गया। वह दौर पौराणिक फिल्मों का था, लेकिन पंडितजी सामाजिक समस्याओं पर लिखने में रुचि रखते थे।

उनकी लिखी कहानी आज का सवाल पर बनी मराठी फिल्म चल निकली।यह हिन्दी में औरत तेरी यही कहानी शीर्षक से बनी। इससे उनकी प्रतिभा की चर्चा मुम्बई तक पहुंची। मुंबई पहुंचकर उन्होंने औलाद, एक ही रास्ता, साधना, धूल का फूल, वचन, दुश्मन, अभिमान व संतान आदि हिट फिल्मों की कथा-पटकथा या संवाद लिखे। 1959 में आई धूल का फूल यश चोपड़ा की बतौर निर्देशक पहली फिल्म थी। इसकी कथा-पटकथा और संवाद पंडितजी ने लिखे। साठ के दशक में दक्षिण में बनी पारिवारिक हिन्दी फिल्मों को बहुत पसंद किया जाता था।

पंडित मुखराम शर्मा ने वहां के प्रसिद्ध जेमिनी बैनर की घराना, गृहस्थी, प्यार किया तो डरना क्या व हमजोली जैसी हिट फिल्में लिखीं। एलवी प्रसाद के बैनर के लिये दादी मां, जीने की राह, मैं सुन्दर हूं, राजा और रंक और एवीएम के लिये दो कलियां जैसी जुबली हिट फिल्में उन्हीं की कलम का कमाल थीं। उन दिनों तक दादा साहब फाल्के पुरस्कार शुरू नहीं हुआ था और कला क्षेत्र में संगीत नाटक एकादमी पुरस्कार की बड़ी प्रतिष्ठा थी।

सन् 1961 में तत्कालीन राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें संगीत नाटक एकादमी पुरस्कार से नवाजा। पंडित मुखराम शर्मा ने बालीवुड में लेखक के काम को प्रतिष्ठा दिलाई। उनकी लिखी हिट फिल्मों की बदौलत उनका नाम इतना प्रसिद्ध हो गया किफिल्म के क्त्रेडिट (नंबरिंग) में प्रमुखता दिया जाने लगा। पंडितजी पहले पटकथा लेखक थे, जिनका नाम फिल्म केपोस्टरों में दिया गया। उनके नाम से दर्शक सिनेमाघर की ओर खींचे चले आते थे। इतनी शोहरत पाने के बावजूद वह सादा जीवन और उच्च विचार में यकीन रखते थे। उन्होंने तय कर रखा था कि सत्तर साल की उम्र के बाद बॉलीवुड को अलविदा कह देंगे और 1980 में यही किया। खास बात यह रही कि उनकी लिखी अंतिम दो फिल्में नौकर और सौ दिन सास के भी सुपर-डुपर हिट थीं।

इसके बाद काफी समय तक मुंबई में रहने के बाद 1999 में मातृभूमि का मोह उन्हें मेरठ खींच लाया। फरवरी 2000 में उन्हें जी लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड से नवाजा गया। 25 अप्रैल 2000 को उन्होंने मेरठ में अंतिम सांस ली। आज हम सिनेमा के सौंवे साल में सफलतापूर्वक प्रवेश कर रहे हैं तो इसमें पंडित मुखराम शर्मा जैसे पुरोधाओं का बड़ा योगदान है। इस मौके पर उनके जैसी शख्शीयतों के काम को सलाम करने के लिये बॉलीवुड और सरकार को जरूर कुछ सार्थक कदम उठाने चाहिए।

पंडित मुखराम शर्मा की प्रमुख फिल्में

धूल का फूल, जीने की राह, मैं सुन्दर हूं, हमजोली, वचन, दुश्मन, अभिमान, संतान, घराना, गृहस्थी, प्यार किया तो डरना क्या, दादी मां, पतंगा, लाखों में एक, अधिकार, औलाद, एक ही रास्ता, तलाक, दो बहनें, साधना, लगन, पैसा या प्यार, राजा और रंक, दो कलियां, नौकर, सौ दिन सास के।

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