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विरोध करने वालों में बहुत से अभिभावक ही नहीं : सुरेश चंद्र

सप्ताह का साक्षात्कार: सुरेश चंद्र, प्रधान, हरियाणा प्रोग्रेसिव स्कूल कांफ्रेंस, फरीदाबाद। ----

By Edited By: Updated: Sun, 19 Apr 2015 05:00 PM (IST)
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सप्ताह का साक्षात्कार: सुरेश चंद्र, प्रधान, हरियाणा प्रोग्रेसिव स्कूल कांफ्रेंस, फरीदाबाद।

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फोटो 19 एफआरडी-1 व 1ए : सुरेश चंद्र

परिचय:

- जन्म: 15 नवंबर 1961 को पानीपत के गांव राजाखेड़ी में सैनिक के घर।

- प्रारंभिक शिक्षा: गांव राजाखेड़ी के सरकारी स्कूल में और फरीदाबाद के विद्या निकेतन स्कूल।

-उच्च शिक्षा: राजकीय नेहरू कालेज फरीदाबाद।

-1983 में एमवीएन स्कूल में अध्यापन शुरू किया।

-1984 में सेक्टर-15ए में छोटा स्कूल शुरू किया।

-1994 में सेक्टर-16ए में एडी पब्लिक स्कूल शुरू किया जो अब ग्रैंड कोलंबस स्कूल के नाम से जाना जाता है।

-सामाजिक संस्थाओं से जुड़ाव: विभिन्न सामाजिक संस्थाओं में कार्यरत। मौजूदा समय में रोटरी क्लब के सहायक गवर्नर।

-मौजूदा समय में ग्रैंड कोलंबस स्कूल के निदेशक।

-रुचि: प्रेरणा देने वाली किताबें पढ़ना।

इंट्रो:

अप्रैल के प्रथम सप्ताह से सभी निजी स्कूलों में दाखिले शुरू हो चुके हैं। इसके साथ ही विभिन्न स्कूलों ने फीस बढ़ोतरी भी की है। ऐसे में अभिभावक एकता मंच और विभिन्न स्कूलों के अभिभावकों ने भी फीस वृद्धि का विरोध शुरू कर दिया है। आए दिन कहीं न कहीं धरने-प्रदर्शन हो रहे हैं। यही नहीं शिक्षा के अधिकार कानून के तहत धारा 134 ए को लागू कराने के लिए भी शासन-प्रशासन के प्रयासों के सामने निजी स्कूल अपने तर्क दे रहे हैं। इस साल फीस वृद्धि के क्या कारण हैं और धारा 134 ए को लागू करने में निजी स्कूलों के समक्ष क्या समस्याएं हैं, निजी स्कूल सरकार द्वारा तय फार्म-6 पर अपनी आय व व्यय का ब्योरा क्यों नहीं देते तथा निजी स्कूल अपनी साख क्यों खोते जा रहे हैं, इन कुछ सवालों को लेकर निजी स्कूलों के प्रबंधकों के संगठन हरियाणा प्रोग्रेसिव स्कूल कांफ्रेंस के जिलाध्यक्ष सुरेश चंद्र से दैनिक जागरण संवाददाता बिजेंद्र बंसल ने विस्तृत बातचीत की, प्रस्तुत हैं बातचीत के प्रमुख अंश:

इस बार निजी स्कूलों की मनमानी के खिलाफ अभिभावकों में इतना ज्यादा गुस्सा क्यों है?

ऐसा नहीं है, आप जिन्हें अभिभावक बता रहे हैं वे अभिभावक नहीं बल्कि उनके नाम पर बने एक संगठन के पदाधिकारी हैं, जिनमें से ज्यादातर उन स्कूलों के अभिभावक भी नहीं हैं, जिनके बारे में वे बात करते हैं।

आप यह कह रहे हैं कि अभिभावक स्कूलों की कार्यप्रणाली से खुश हैं?

जी हां, मैं यह दावे के साथ कह सकता हूं कि जो वास्तविक अभिभावक हैं, उन्हें अपने बच्चे के स्कूल से कोई परेशानी होती है तो उसकी समस्या का समाधान अवश्य किया जाता है।

हर साल फीस वृद्धि से क्या अभिभावक परेशान नहीं होते?

यह ठीक है कि फीस वृद्धि से अभिभावकों पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है, मगर बढ़ती महंगाई के कारण स्कूल प्रबंधकों की भी यह मजबूरी है। प्रत्येक वर्ष स्कूल अध्यापक अपने वेतन में बढ़ोतरी अवश्य चाहते हैं। इसके चलते स्कूलों में फीस बढ़ोतरी अवश्य करनी पड़ती है।

आप कह रहे हैं कि खर्चो को पूरा करने के लिए फीस बढ़ोतरी करनी होती है तो फिर फार्म-छह पर आय-व्यय का ब्योरा देने में आनाकानी क्यों होती है?

फार्म-छह पर आय व्यय का ब्योरा लगभग सभी स्कूल संचालक सीधे शिक्षा निदेशालय को भेजते हैं, मगर जिला स्तर पर कुछ एजेंसी जैसे जिला शिक्षाधिकारी, हुडा कार्यालय व जिला उपायुक्त कार्यालय अलग-अलग मांगते हैं, जबकि ये शिक्षा निदेशालय से ब्योरा ले सकते हैं। मैं आपको बताना चाहता हूं कि प्रत्येक स्कूल आयकर विवरण भरता है तो इसमें छुपाने जैसी कोई बात नहीं हो सकती।

फीस वृद्धि का कोई पैमाना क्यों नहीं अपनाया जाता?

देखिए, आप अभिभावक एकता मंच की भाषा इस्तेमाल करते हुए प्रश्न कर रहे हैं, जबकि व्यावहारिक बात यह है कि दो या चार स्कूलों को छोड़ दें तो सभी अपने यहां बच्चों के दाखिले के लिए अथक प्रयास करते हैं और वे स्कूल अनाप-शनाप फीस ले ही नहीं सकते।

शिक्षा के अधिकार की धारा-134 ए को लागू क्यों नहीं किया जाता?

हमें न्यायालय के किसी भी आदेश के पालन में कोई समस्या नहीं है, मगर धारा 134ए के पालन में न्यायालय ने स्वयं यह कहा है कि जिन बच्चों को हम इसके तहत पढ़ाएंगे, उनकी फीस सरकार देगी। अब सरकार इस बाबत उदासीन है मगर इसमें यह भी देखना होगा कि निजी स्कूल 25 फीसद तो 134ए के तहत पढ़ाएं और 20 फीसद हुडा नियमों के तहत फिर हम कैसे स्कूल चला पाएंगे।

हुडा से स्कूलों को जमीन भी सस्ती दरों पर मिली है?

ऐसा नहीं है, 1996 के बाद से तो हुडा खुली नीलामी पर जमीन दे रहा है और इससे पहले के आवंटन में कुछ स्कूलों को छोड़ दें तो ज्यादातर पर ऐसी कोई शर्त नहीं है कि उन्हें मुफ्त में बच्चे पढ़ाने होंगे।

क्या गरीब को शिक्षा नहीं दी जानी चाहिए?

मैंने ऐसा कब कहा, मगर गरीब की परिभाषा भी तो स्पष्ट होनी चाहिए। हम बीपीएल कार्डधारक को गरीब माने या फिर उसको जिसे प्रशासन के अधिकारी या नेता कह दें। मेरा सवाल यह भी है कि गरीब को पढ़ाने का जिम्मा केवल निजी स्कूलों पर ही क्यों, सरकारी स्कूलों में गरीब के बच्चे को क्यों नहीं पढ़वाया जाता।

चलिए, आप ही बता दें कि सरकारी स्कूलों की दशा कैसे सुधारी जा सकती है?

देखिए, निजी स्कूलों और सरकारी स्कूलों में अध्यापकों को आप यह नहीं कह सकते कि कोई कमी है मगर सरकारी स्कूलों में राजनीतिक हस्तक्षेप है। वहां के प्राचार्य को केंद्रीय विद्यालयों की तरह अधिकार दिए जाएं तो मैं मानता हूं कि इन स्कूलों की दशा सुधरेगी। ट्रांसफर पांच साल के लिए बंद कर देने चाहिएं।

निजी स्कूलों में नैतिक शिक्षा की तरफ ध्यान नहीं दिया जा रहा है?

ऐसा नहीं है, हमारे स्कूलों में नित्य प्रार्थना सभा होती है तथा नैतिक शिक्षा के लिए अलग से कक्षाएं ली जाती हैं। निजी स्कूलों में डीएवी श्रंखला के स्कूल तो जाने ही नैतिक शिक्षा के लिए जाते हैं।

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