रिमझिम फुहारों के बीच करें पालमपुर की सैर
पालमपुर को उत्तर भारत की 'चाय राजधानीÓ के रूप में जाना जाता है। इसका श्रेय जाता है वर्ष 1849 में बोटेनिकल गार्डन के तत्कालीन अधीक्षक डॉ. जेमिसन को।
By Babita KashyapEdited By: Updated: Fri, 30 Jun 2017 09:48 AM (IST)
पंख होते तो उड़ जाते... धौलाधार पर्वत शृंखला की उन ऊंची चोटियों की ओर और वहां तक पहुंचने में बस
चंद मिनट ही लगते...। पालमपुर में फैली कुदरत की नैसर्गिक सुंदरता के बीच पहुंचकर जब ऐसी कल्पनाएं दिलो-दिमाग पर तारी होने लग जाएं, तो अचरज नहीं होना चाहिए। पश्चिमी हिमालय की इस बेहद खूबसूरत जगह पर आने के बाद मन को यूं ही पंख लग जाते हैं। यह इलाका कुदरती नजारों के साथ-साथ समृद्ध सांस्कृतिक परंपराओं से परिपूर्ण है। कांगड़ा जिले के पूर्व की तरफ बसे पालमपुर का नाम 'पलमÓ से निकला है, जिसका अभिप्राय एक ऐसे स्थान से है, जहां प्रचुर मात्रा में पानी उपलब्ध हो। पालमपुर को उत्तर भारत की 'चाय राजधानीÓ के रूप में जाना जाता है। इसका श्रेय जाता है वर्ष 1849 में बोटेनिकल गार्डन के तत्कालीन अधीक्षक डॉ. जेमिसन को। उन्होंने ही सबसे पहले पालमपुर को चाय उत्पादन के लिए उपयुक्त स्थान माना था। इसके बाद चाय की खेती शुरू होते ही यहां की बेहतरीन चाय की तरफ यूरोपीय चाय बागान मालिकों का ध्यान गया। फिर यहां चाय बागानोंकी संख्या बढ़ती गई, जो आज यहां का सबसे बड़ा आकर्षण है।
चाय की खुशबू करेगी स्वागतपठानकोट-मंडी राष्ट्रीय राजमार्ग के जरिए पालमपुर में प्रवेश करते ही चाय बागानों व चाय कारखानों से उठ रही चाय की भीनी-भीनी खुशबू आपका स्वागत करेगी। यहां कई हेक्टेयर क्षेत्र में फैले हरे-भरे चाय के बागान ऐसा लगता है, मानो जमीन पर हरी मखमली कालीन बिछी हो। एक जमाने में कांगड़ा चाय को लंदन में गोल्ड और सिल्वर मेडल भी मिला था। इतिहास पर नजर डालें, तो पता चलता है कि वर्ष 1849 में अल्मोड़ा और देहरादून की नर्सरी से चाय का पौधा लाकर यहां लगाया गया था। इसी के बाद यहां चाय की खेती की जाने लगी। वर्ष 1852 में पालमपुर के होल्टा में चाय का एक व्यावसायिक बागान बनाया गया। इसके बाद स्थानीय लोगों और अंग्रेजों ने चाय के व्यवसाय से जुडऩा शुरू कर दिया।
रंग नहीं, पर स्वाद निरालाकांगड़ा चाय में रंग नहीं आता, लेकिन इसके स्वाद के चलते ही इसकी अलग पहचान है। 1883 में कांगड़ा डिस्ट्रिक्ट गजट में बताया गया था कि उस समय यहां देश की सबसे ज्यादा चाय पैदा की जाती थी। 1890 तक कांगड़ा घाटी में करीब 10,000 एकड़ एरिया में चाय के बागान हुआ करते थे। 1892 में कांगड़ा वैली टी कंपनी ने 20,000 किलोग्राम चाय लंदन निर्यात किया था। लेकिन वर्ष 1905 में कांगड़ा घाटी में आए भूकंप से यहां का चाय उद्योग बुरी तरह प्रभावित हुआ। अब यह फिर से आगे बढ़ रहा है। पालमपुर में बाजार के निकट 'कालू दी हट्टीÓ में चाय की फैक्ट्री भी देखने लायक स्थान है। यहां पालमपुर की स्थानीय चाय मिल जाती है।
कमलजीत की पहल यहां की कला व पकवान बेहद खास हैं। अब तक ये यहां के घरों तक ही सिमट कर रह गए थे। इनसे पर्यटकों को अवगत कराने का बीड़ा उठाया है अंद्रेटा की कमलजीत कौर ने, जो सोभा सिंह आर्ट गैलरी परिसर में वह एक केंद्र चला रही हैं। कमलजीत कौर कहती हैं,'पर्यटकों को यहां की संस्कृति, कला व पकवानों से भी रूबरू करवाना चाहिए। यही सोच कर उन्होंने इसकी शुरुआत की है। यहां पर्यटक कांगड़ा व मंडी में विशेष अवसरों पर बनने वाले मिठडू, गुलगुले व पकोड़ू का आनंद ले सकते हैं। साथ ही यहां की खास लिखणु कला से भी परिचित हो सकते हैं।Ó
नोराह रिचर्ड गैलरीपालमपुर से करीब 12 किलोमीटर दूर अंद्रेटा में ही प्रसिद्ध नाटककार नोराह रिचर्ड का भी घर है, जो देखने लायक है। मिट्टी से बनाया गया यह घर बेहद आकर्षक है। यह स्थान अब पंजाबी पटियाला विश्वविद्यालय की देख-रेख में है, लेकिन आप यहां नोराह रिचड्र्स के मकान और यहां बनाए गए ओपन एयर थियेटर को देख सकते हैं। यहां थियेटर और सिनेमा की मशहूर हस्ती पृथ्वीराज कपूर सहित कई बड़े कलाकार आ चुके हैं। दरअसल, नोराह रिचड्र्स आयरलैंड से आकर यहां बसी थीं। उनका एक नाटक 'रिटर्न ऑफ द सनÓ पूरी दुनिया में बहुत चर्चित हुआ था। अंद्रेटा में ही पॉटरी यानी मिट्टी के बर्तन और तरह-तरह की आकृतियां बनते आप नजदीक से देख सकते हैं। दिलचस्प बात यह है कि यहां आप भी मिट्टी के बर्तन बनाने का प्रशिक्षण ले सकते हैं।
पालमपुर का नजदीकी हवाई अड्डा गगल (धर्मशाला) में है। अगर आप बर्फबारी का आनंद लेना चाहते हैं, तो जनवरी-फरवरी में भी यहां आ सकते हैं। पठानकोट-मंडी राष्ट्रीय राजमार्ग पर बसे पालमपुर के लिए दिल्ली से नियमित बसें चलती हैं। दिल्ली से बैजनाथ के बीच चलने वाली सभी बसें पालमपुर होकर ही जाती हैं। चंडीगढ़ व जम्मू से भी यहां के लिए सीधी बस सेवा उपलब्ध है। दिल्ली से पालमपुर की दूरी करीब 530 किलोमीटर है, जबकि कांगड़ा से 53 किलोमीटर और धर्मशाला से 35 किलोमीटर। पठानकोट व मंडी से यह स्थान 110 किलोमीटर तथा शिमला से 210 किलोमीटर दूर है। यहां घूमने का सबसे आदर्श समय अप्रैल से जून व सितंबर से दिसंबर होता है।
अंद्रेटा: कला को समर्पित अनोखा गांवपालमपुर में अंद्रेटा गांव को 'कलाग्राम' कहा जाता है। सोभा सिंह सबसे पहले यहीं आए थे। पद्मश्री से सम्मानित जाने-माने चित्रकार सोभा सिंह ने बाद में नोराह रिचड्र्स जैसे अन्य कलाकारों को भी यहां बुलाया। आज इस गांव की पहचान ही कलाकारों के कारण है। पालमपुर से करीब 10 किलोमीटर दूर पंचरुखी मार्ग पर स्थित अंद्रेटा प्राकृतिक सुंदरता से भी सराबोर है। यहां से धौलाधार पर्वत शृंखला के विहंगम दृश्य का भी दीदार कर सकते हैं। यहीं से शिवालिक पहाडिय़ों की भी शुरुआत होती है।
सोभा सिंह आर्ट गैलरीअंद्रेटा गांव में सरदार सोभा सिंह की आर्ट गैलरी है। यहीं पर सोभा सिंह ने अपने अमर चित्रों की रचना की थी, जिनमें सोहनी-महिवाल, गुरु नानक देव, पहाड़ी दुल्हन, गद्दन आदि के चित्र हैं। उनके मूल चित्रों को यहां आप करीब से देख सकते हैं। यहीं सोभा सिंह संग्रहालय भी है। इसमें आप कांगड़ा कला के विभिन्न स्वरूपों को देख सकते हैं। इनमें कांगड़ा जिले में जमीन व दीवारों पर बनाई जाने वाली चित्रकारी भी शामिल है।
बीड़-बिलिंग पैराग्लाइडिंग का रोमांचबीड़ व बिलिंग दो स्थान हैं। ये स्थान हवाई रोमांचक खेल पैराग्लाइडिंग के कारण दुनिया भर में मशहूर हैं। बीड़ एक गांव है, जबकि बिलिंग पहाड़ी के टॉप पर मौजूद एक स्थान का नाम है। बिलिंग से ही पैराग्लाइडिंग की उड़ान भरी जाती है, जबकि बीड़ में लैंडिंग होती है। पालमपुर से बीड़ की दूरी करीब 35 किलोमीटर है। बीड़ से 14 किलोमीटर की दूरी पर बिलिंग है। भारत में बिलिंग ही एकमात्र ऐसा स्थान है, जहां वर्ष 2015 में पैराग्लाइडिंग वल्र्ड कप का आयोजन हुआ था। एडवेंचर के शौकीन पर्यटक पैराग्लाइडिंग की 30 से 40 मिनट की उड़ान का आनंद ले सकते हैं। ट्रैकिंग का रोमांचयहां कई ट्रैकिंग रूट्स हैं। इनमें सबसे बेहतरीन ट्रैकिंग रूट पालमपुर से बैजनाथ और बिलिंग होते हुए बड़ाभंगाल तक का है। हालांकि यह रूट काफी लंबा है, लेकिन रोमांच के आगे थकान का पता नहीं चलेगा। यहां से आप मनाली व चंबा तक भी जा सकते हैं। प्रमुख ट्रैकिंग रूट-पालमपुर> बैजनाथ> बीड़> बिलिंग> राजगुधा> थमसर ग्लेशियर> बड़ा भंगाल>मनाली। -बैजनाथ> बीड़> बिलिंग> राजगुंधा> बरोट-बैजनाथ> पपरोला> उतराला>जालसूजोत्त> होली> चंबा -पालमपुर> जिया> आदि हिमानी चामुंडा-पालमपुर> बैजनाथ> दियोल>तत्तापानी
पालमपुर को शब्दों में बयां कर पाना कठिन है। यहां का सौंदर्य, चाय बागान, संस्कृति सबसे अलग है। यहां के लोग ईमानदार, मेहनती व भोलेभाले हैं। पालमपुर सच में पलम घाटी है, जहां पानी की कोई कमी नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि इस स्थान की माटी ने देश को कई वीर जवान दिए हैं।-डॉ. एन के कालिया, शहीद कै. सौरभ कालिया के पिता
अनूठे बौद्ध मठ शेराबिलिंग बौद्ध मठबौद्ध मठों का मुख्य केंद्र यहां बैजनाथ और उसके आसपास है। बैजनाथ से सात किलोमीटर दूर स्थित शेराबिलिंग भारत के सबसे बड़े बौद्ध मठों में से एक है। जंगल के बीच में स्थापित यह मठ बेहद आकर्षक है।
खापांगर मठ टाशीजोंग बैजनाथ व पालमपुर के मध्य तारागढ़ के समीप खापांगर बौद्ध मठ टाशीजोंग भी देखने लायक है। पहाड़ी की तलहटी में बसा यह मठ अपनी कला के लिए प्रसिद्ध है। यहां अध्ययन करते छोटे-छोटे बौद्ध भिक्षुओं को देख सकते हैं। इसके अलावा, बीड़ में भी कई छोटे-बड़े बौद्ध मठ मौजूद हैं।
यहां से देखें कुदरत के शानदार नजाराअगर आप पालमपुर से अधिक दूर नहीं जाना चाहते, तो पालमपुर में ही कुछ खूबसूरत स्थानों पर बैठकर प्राकृतिक नजारों का आनंद ले सकते हैं...
न्यूगल कैफे वर्ष 1976 में बना न्यूगल कैफे पालमपुर का सबसे आकर्षक केंद्र है। हिमाचल पर्यटन विकास निगम इस कैफे का संचालन करता है। यहां आप सुंदर नजारों के बीच कॉफी से लेकर कई स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों का आनंद ले सकते हैं। परिसर के अंदर बहते पानी में अठखेलियां करना भी मजेदार होता है।
सौरभ वन विहार पालमपुर का दूसरा आकर्षक केंद्र सौरभ वन विहार है। कारगिल युद्ध के प्रथम शहीद कैप्टन सौरभ कालिया के नाम पर इस वन विहार को बनाया गया है। पालमपुर से तीन किलोमीटर दूर जंगल के बीच बने इस वन विहार में आप प्राकृतिक नजारों के अलावा झील में नौकायन का भी आनंद ले सकते हैं।
मिठडू, पकोडू और गुलगुले का लाजवाब स्वाद कांगड़ा व खासकर पालमपुर में लोग विशेष पर्व व त्यौहारों के मौके पर घर में जो पकवान बनाते हैं, उनका लाजवाब स्वाद अब बाहर से यहां आने वाले लोगों को भी खूब भा रहा है। अब इनसे पर्यटकों को भी जोड़ा जा रहा है। अंद्रेटा में इसकी शुरुआत सोभा सिंह आर्ट गैलरी में कमलजीत कौर ने गांव की ही कुछ महिलाओं व युवतियों के साथ मिलकर की है।
इन पकवानों को यहीं बनाकर पर्यटकों को परोसा जाता है। इनमें मिठडू, गुलगुले व दाल के पकोड़ू सबसे खास हैं। मिठडू आटे से बनता है। आटे को घी, चीनी, नारियल का बुरादा व थोड़ा-सा पानी डालकर गूंथा जाता है। इसक बाद इसे घी में ही फ्राई किया जाता है। गुलाब जामुन की तरह के गुलगुले भी तैयार किए जाते हैं, जबकि पकोडू माह की दाल को भिगो कर तैयार किए जाते हैं। दाल को पीसकर, उसमें जीरा, हींग, धनिया व गर्म मसाला आदि डालकर उसका घोल तैयार किया जाता है और फिर उसको फ्राई किया जाता है। नमकीन पकोडू बेहद स्वादिष्ट होते हैं।
उबली हुई सब्जियों के ऊपर बेसन की कोटिंग से तैयार की गई वेज क्रिस्पी विशाल रेजीडेंसी की मशहूर डिश है।-चटपटे स्वाद के शौकीन पालमपुर के जॉय रेस्तरां की चाट पापड़ी खा सकते हैं।-मीठा खाने वाले अतुल्य रेस्तरां की जलेबी चख सकते हैं।-पालमपुर से 5 किमी. दूर मारंडा के ढाबों में कांगड़ी धाम व मीट-चावल का स्वाद ले सकते हैं।
पालमपुर हिमाचल के बेहद सुंदर स्थानों में से एक है। बचपन से लेकर अब तक इसी घाटी में पली-बढ़ी हूं। यहां का मौसम, यहां की समृद्ध संस्कृति, लोगों का अच्छा व्यवहार तथा सबसे खास बात यहां का प्राकृतिक सौंदर्य। ऐसा नजारा कहीं नहीं है। धौलाधार पर्वत शृंखला यहां के सौंदर्य में चार चांद लगा देती है। -गुरचरण कौर, सरदार सोभा सिंह की बेटी
जहां नहीं मनाया जाता दशहरा पठानकोट-मंडी राष्ट्रीय राजमार्ग पर पालमपुर से 16 किलोमीटर दूर स्थित है बैजनाथ शिव मंदिर।स्थापत्य कला की शिखर शैली में निर्मित यह मंदिर दर्शनीय स्थल है। यही कारण है कि यहां काफी संख्या में विदेशी पर्यटक भी पहुंचते हैं। इस मंदिर की निर्माण कला, मंदिर में लगी मूर्तियां और यहां का इतिहास अनूठा है। इस स्थान की खास बात यह भी है कि यहां दशहरा नहीं मनाया जाता। इसके पीछे कारण है लंकापति रावण का शिव भक्त होना। कुछ लोगों ने दशहरा मनाने की परंपरा शुरू की थी, लेकिन भारी नुकसान के बाद इसे बंद कर दिया गया।
इनपुट सहयोग: मुनीष दीक्षित
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