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शिवसेना की सबसे बड़ी चिंता है बीएमसी बचाना

महाराष्ट्र की भाजपानीत सरकार में शामिल होने को लेकर तो शिवसेना चिंतित है ही, उसकी इससे बड़ी चिंता मुंबई महानगरपालिका (बीएमसी) के अपने मजबूत किले को बचाने की भी है। जो भाजपा से संबंध खराब होने के कारण उसके हाथ से निकल सकती है। महाराष्ट्र में पिछले 15 वर्षो से सरकार भले कांग्रेस-राक

By manoj yadavEdited By: Updated: Thu, 30 Oct 2014 10:16 AM (IST)
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मुंबई, [ओमप्रकाश तिवारी]। महाराष्ट्र की भाजपानीत सरकार में शामिल होने को लेकर तो शिवसेना चिंतित है ही, उसकी इससे बड़ी चिंता मुंबई महानगरपालिका (बीएमसी) के अपने मजबूत किले को बचाने की भी है। जो भाजपा से संबंध खराब होने के कारण उसके हाथ से निकल सकती है।

महाराष्ट्र में पिछले 15 वर्षो से सरकार भले कांग्रेस-राकांपा की रही हो, लेकिन मुंबई में एकछत्र राज शिवसेना का ही चलता रहा है। पिछले 20 वर्षो से मुंबई पर चले आ रहे अपने इस कब्जे को शिवसेना किसी हालत में छोड़ना नहीं चाहती। क्योंकि मुंबई पर उसके इस प्रभाव का असर पड़ोसी जिले ठाणे सहित संपूर्ण कोकण पर भी पड़ता है। मुंबई, ठाणे और कोकण पर शिवसेना के इसी प्रभाव ने उसे इस बार के चुनाव में 63 सीटों तक पहुंचने में मदद की है। बीएमसी हाथ से निकली तो शिवसेना को इन क्षेत्रों सहित पूरे महाराष्ट्र में झटका लग सकता है।

राजनीतिक प्रभाव के अलावा बीएमसी का आर्थिक प्रभाव भीशिवसेना के लिए महत्व रखता है। बीएमसी का वार्षिक बजट करीब 31000 से 32000 करोड़ रुपयों का है। यह बजट देश के कई छोटे राज्यों से भी अधिक है। इस बजट का एक तिहाई हिस्सा मुंबई में प्रवेश करनेवाले वाहनों के ऑक्ट्राय से प्राप्त होता है। पिछली कांग्रेस सरकार यह ऑक्ट्रायसमाप्त कर लोकल बॉडी टैक्स (एलबीटी) लागू करना चाहती थी। लेकिन व्यापारियों के विरोध के कारण लागू नहीं कर सकी। यदि शिवसेना-भाजपा की पटरी नहीं खाई तो नई भाजपा सरकार मुंबई में एलबीटी या वैट जैसी वैकल्पिक कर प्रणाली लागू कर सकती है।

227 वार्डो वाली बीएमसी में शिवसेना कभी अकेले सत्ता में नहीं आ सकी है। शिवसेना के 75 एवं भाजपा के 31 सदस्यों को लेकर भी सत्ता पाने के लिए जरूरी 114 की संख्या तक पहुंचने के लिए उसे छह अन्य सदस्यों की जरूरत पड़ी थी। अब यदि प्रदेश और केंद्रसरकारों में शिवसेना-भाजपा के संबंध नहीं सुधरे तो इसका असर बीएमसी सहित महाराष्ट्र के उन सभी नगर निगमों पर पड़ सकता है, जहां शिवसेना-भाजपा मिलकर सत्ता में हैं।

सामना ने बिगाड़े संबंध

महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव के दौरान शिवसेना-भाजपा के बीच पैदा हुई कटुता अभी खत्म होने का नाम नहीं ले रही है। इस कटुता को बनाए रखने में शिवसेना मुखपत्र सामना एवं इसके संपादकों की बड़ी भूमिका मानी जा रही है।

दो दिन पहले ही शिवसेना का कार्यकारी संपादक संजय राऊत ने यह कहकर नरम रुख के संकेत दिए थे कि चुनाव के साथ ही चुनावी कटुता समाप्त हो चुकी है। जब बातचीत के लिए भारत-पाकिस्तान एक साथ आ सकते हैं तो शिवसेना-भाजपा क्यों नहीं। एक दिन पहले ही सामना के संपादकीय में भी प्रधानमंद्दी नरेंद्र मोदी के दीवाली मिलन की तारीफ में कसीदे काढ़े गए थे। जवाब में आज भाजपा नेता सुधीर मुनगंटीवार ने भी कहा है कि भाजपा इतने छोटे मन की पार्टी नहीं है कि चुनाव के दौरान की गई टिप्पणियों को दिल पर बोझ बनाकर बैठी रहे।

दूसरी ओर आज भी सामना ने काले धन के मुद्दे पर केंद्रसरकार को घेरने की कोशिश कर आग में घी डालने का काम किया है। जबकि भाजपा का एक वर्ग हमेशा मानता रहा है कि शिवसेना सहयोगी दल है, तो उसे सहयोगी दल की तरह ही व्यवहार करना चाहिए।

शिवसेना मुखपत्र सामना का संपादकीय लंबे समय से दोनों दलों के बीच कटुता का कारण बनता रहा है। नरेंद्र मोदी को भाजपा की ओर से प्रधानमंद्दी पद का उम्मीदवार घोषित किए जाने के बाद से ही सामना उनके प्रति आक्रामक रुख रखता आया है। लोकसभा चुनाव में जीत का श्रेय देने के मामले में भी सामना नरेंद्र मोदी के बजाय शिवसैनिकों की मेहनत और स्वर्गीय बाल ठाकरे के प्रभाव को ही ज्यादा मानता रहा। सामना के ही हिंदी संस्करण में नरेंद्र मोदी के पिता तक पर टिप्पणियां की गईं, जो भाजपा को बिल्कुल पसंद नहीं आईं। यही कारण है कि अब शिवसेना के चाहते हुए भी संबंध सामान्य नहीं हो पा रहे हैं।

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