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बच्चों की खातिर जुदा हुई थी शहरयार से

इस्लामी शरीयत औरत को खुला [तलाक लेने] हासिल करने का हक देती है। उस सूरत में कि अगर शौहर के साथ निबाह नामुमकिन हो तो जिंदगी अजीरन [नर्क] करने के बजाय औरत निकाह के बंधन से निजात हासिल कर ले। यही मैंने किया।

By Edited By: Updated: Thu, 16 Feb 2012 03:30 PM (IST)
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अलीगढ़। इस्लामी शरीयत औरत को खुला [तलाक लेने] हासिल करने का हक देती है। उस सूरत में कि अगर शौहर के साथ निबाह नामुमकिन हो तो जिंदगी अजीरन [नर्क] करने के बजाय औरत निकाह के बंधन से निजात हासिल कर ले। यही मैंने किया। कोर्ट के द्वारा शहरयार से मैंने खुला ले लिया। ऐसा मैंने उन हालात में किया, जब मेरा और बच्चों का उनके साथ जीना दूभर हो रहा था। 24 साल मैंने तन्हा गुजारे।

रातों को शहरयार अमूमन क्लब में रहते थे। वहा ताश और शराब के शगल, रात में किसी भी वक्त घर लौटना, घर वालों की नींद खराब करना, बच्चों को आधी रात घर से बाहर निकालना, शराब के नशे में या बगैर नशे के चीखना-चिल्लाना, घर सर पर उठा लेना। मैं, मेरे बच्चे जिल्लत के इस अहसास से दोचार थे।

किसी तरह मैं खुद पर काबू रखके जवाब नहीं देती थी। शाम से रात तक बच्चों को पढ़ाने-लिखाने और देखभाल का काम करती थी। बच्चों के जेहन पर इन हालात का बुरा असर हो रहा था और मेरे जेहन पर भी। कभी बच्चे बीमार पड़ते या मैं पड़ती तो समझते कि मैं या बच्चे पागल हो गए हैं और फौरन घर से बाहर फरार हो जाते।

जब मैंने महसूस किया कि मेरा और बच्चों का जेहनी तवाजुन [मानसिक संतुलन] कायम नहीं रह पाएगा तो मैं अलग होने के बारे में सोचने लगी। तो एक दिन शहरयार बोले, 'अलग हो गई तो लोग नोच खाएंगे तुम्हें!' एक दिन बोले, 'आइ वाट टु मर्डर यू.. लेकिन, तुम तो मजलूम बन जाओगी!'

उन्हीं दिनों छोटे बेटे को घर से रात के दो बजे निकालने पर तुल गए। मैंने और बेटी ने उनको रोका। बड़ा बेटा उस वक्त अलीगढ़ से बाहर था। छोटा बेटा सख्त बीमार हो गया। उसे मलेरिया हुआ था। तब, एक दिन रात में नींद खराब होने पर उसने मुझसे कहा अम्मी अब कुछ कीजिए। उन्हीं दिनों एक रात क्लब से दो बजे लौटकर शहरयार ने हंगामा किया। हमें घर से बाहर निकाल दिया। हमने आउट-हाउस में पनाह ली। नूरुल हसन साहब ने दीवार से झाककर शहरयार को समझाने की कोशिश की। दूसरे दिन उन्होंने [नूरुल साहब ने] एक खातून वकील से कहा कि नजमा साहिबा की शहरयार से अलाहिदगी करा दीजिए। चुनाचे मैंने उनकी मदद से खुला के लिए केस फाइल कर दिया। ये मेरा हक था, जुर्म नहीं। मुझे कठघरे में खड़ा करना एक जुर्म है और ऐसे लोगों को कुदरत की तरफ से सजा मिलेगी.. इंशा अल्लाह।

ये शादी नाकाम न होती, अगर शहरयार पर सिफली [जादुई] अमल न होता। जिसकी ताईद [सबूत] कई आमिलों ने की। जिनके नाम भी दिए जा सकते हैं। मैंने अपनी तरफ से निबाह करने की पूरी कोशिश की, लेकिन जब पानी सर से ऊपर हो गया तो अलाहिदी के सिवा कोई चारा न था। खुला मेरा शरई हक था और अपना हक लेना न जुर्म है, न गुनाह। साथ ही, अपनी जिंदगी और अपने बच्चों की जिंदगी को बचाना भी गुनाह नहीं। बल्कि, ऐन सवाब है। मेरे इस कदम से मुस्लिम महिलाओं को सबक लेना चाहिए, क्योंकि जिंदगी घुट-घुटकर जीने का नाम नहीं है। बेहतर तौर से जीने के लिए हालात को अपने हक में साजगार बनाना जरूरी है।

शहरयार शायद एक अच्छे शायर जरूर हो सकते हैं, अदब के आला-तरीन एजाज [सम्मान] भी मिल सकते हैं, लेकिन यह जरूरी नहीं कि वे एक बा-अदब इंसान भी हों। वे एक अच्छे शौहर और एक अच्छे बाप नहीं बन सके।

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