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दांव पर राहुल गांधी की साख

नई दिल्ली, सीतेश द्विवेदी। लोकसभा चुनाव-2014 में कांग्रेस के 'पोस्टर ब्वाय' रहे पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी की साख दांव पर है। चुनाव परिणाम न सिर्फ पार्टी, बल्कि खुद राहुल के भविष्य और कांग्रेस में गांधी परिवार की विरासत का भी निर्धारण करेंगे। पार्टी में पहले ही अपनी उन्मुक्त कार्यशैली, किसी के प्रति जवाबदेह न होने के क

By Edited By: Updated: Thu, 15 May 2014 11:59 PM (IST)
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नई दिल्ली, सीतेश द्विवेदी।

लोकसभा चुनाव-2014 में कांग्रेस के 'पोस्टर ब्वाय' रहे पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी की साख दांव पर है। चुनाव परिणाम न सिर्फ पार्टी, बल्कि खुद राहुल के भविष्य और कांग्रेस में गांधी परिवार की विरासत का भी निर्धारण करेंगे। पार्टी में पहले ही अपनी उन्मुक्त कार्यशैली, किसी के प्रति जवाबदेह न होने के कारण छवि के संकट से दो-चार राहुल के लिए विपरीत नतीजे प्रतिष्ठा का संकट बन सकते हैं। यही नही, राहुल के प्रयोगों में एक 'टीम राहुल' के नाम पर पार्टी के समानांतर काम कर रही 'कोटरी' (छोटा समूह) भी चुनावी अग्निपरीक्षा के सामने है।

चुनावों में पार्टी का अपने ढंग से नेतृत्व कर रहे राहुल का कद और प्रतिष्ठा दोनों चुनाव परिणामों की धार पर है। चुनाव परिणाम वाले दिन अपनी तरह का पहला प्रयोग करते हुए कांग्रेस ने पार्टी मुख्यालय पर भव्य इंतजाम किए हैं। इस अवसर के लिए बनाए गए बड़े-बड़े पोस्टरों पर पार्टी नेता की जगह पार्टी का चुनाव चिह्न है। विपरीत परिणामों के मद्देनजर पार्टी उपाध्यक्ष को बचाने की कवायद माने जा रहे यह इंतजाम कितना काम आएंगे यह तो समय तय करेगा, लेकिन जाने-अनजाने पार्टी से बड़े दिखने लगे राहुल का हार की जिम्मेदारी से बच पाना मुश्किल है। राजनीति में आने के साथ ही राहुल के प्रयोगों से पार्टी का एक बड़ा तबका असहज रहा है। युवा संगठनों में राहुल के प्रयोगों से पार्टी में कितना लोकतंत्र आया यह तो पता नही, लेकिन सड़क पर पार्टी के मुद्दों को लेकर संघर्ष करने वाला युवा वर्ग अचानक नदारद हो गया। तालकटोरा स्टेडियम के बंद दरवाजों के भीतर पार्टी उपाध्यक्ष के भाषण पर तालियां बजाने वाला युवा संगठन भी लोकसभा चुनावों में सड़क पर नही दिखा। पुराने ढंग की राजनीति बदलने के कांग्रेस उपाध्यक्ष के वादे भी सियासी मजबूरियों की भेंट चढ़ते दिखे। भ्रष्टाचार से लड़ने की कवायद, वंशवाद का विरोध और आलाकमान संस्कृति खत्म करने की वकालत जैसे वादे महज वादे ही रह गए। पार्टी में आलाकमान संस्कृति खत्म करने के नाम पर शुरू की गई प्राइमरी प्रक्रिया का अंजाम ढाक के तीन पात वाला रहा। यही नही, लोकसभा चुनावों को अनुभवी नेताओं के बजाए अपने अराजनीतिक सलाहकारों के भरोसे लड़ने का राहुल का दांव भी सवालों के घेरे में रहा।

सत्ता विरोधी रुझान के मुकाबिल खड़ी कांग्रेस राहुल के प्रयोगों पर किसी चमत्कार की आशा में चुप रही, लेकिन चुनावी परीक्षा में नाकाम होने पर इस मौन का मुखर होना तय है। अमेठी और रायबरेली में प्रियंका गांधी वाड्रा के चुनाव अभियान को देख चुके पार्टी के लाखों कार्यकताओं के लिए वही भविष्य की नेता हैं। वैसे भी राहुल के राजनीति में आने के समय से ही परिवार की राजनीतिक विरासत के उत्तराधिकारी को लेकर सवाल उठते रहे हैं। ऐसे में सोलहवीं लोकसभा के चुनाव परिणाम सवा सौ साल से भी ज्यादा पुरानी कांग्रेस पार्टी के लिए जीत-हार से ज्यादा पार्टी में गांधी परिवार की भूमिका निर्धारित करने वाले हो सकते हैं। देश की राजनीति में निशाने पर आए 'वंशवाद' शब्द पर राहुल की सफलता-असफलता का प्रभाव पड़ना तय है। ऐसे में अगर परिणाम सम्मानजनक न हुए तो पार्टी के नूर-ए-नजर रहे राहुल को पार्टी की तिरक्षी नजरों का सामना करना ही होगा।

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