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'प्रधानमंत्री जी, हम दे रहे हैं आपको 30 रुपये, एक दिन गुजारकर दिखाएं'

सुबह की धूप माथे पर चढ़ें इसके पहले गांव हो या शहर, गरीबों की भूख से जद्दोजहद शुरू हो जाती है। शहर की तंग गलियों में दड़बेनुमा मकानों की कच्ची-पक्की दीवारों के पीछे चूल्हों से धुआं नहीं आंख का आंसू उड़ता है। ऐसे धुंधले माहौल में 27 रुपये वाला ही गरीब है, 2

By Edited By: Updated: Thu, 25 Jul 2013 11:44 AM (IST)
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पटना [जागरण ब्यूरो]। सुबह की धूप माथे पर चढ़ें इसके पहले गांव हो या शहर, गरीबों की भूख से जद्दोजहद शुरू हो जाती है। शहर की तंग गलियों में दड़बेनुमा मकानों की कच्ची-पक्की दीवारों के पीछे चूल्हों से धुआं नहीं आंख का आंसू उड़ता है। ऐसे धुंधले माहौल में 27 रुपये वाला ही गरीब है, 28 रुपये वाला नहीं..का तर्क सुनकर झल्लाया-सा जवाब मिलता है, 'हम उन पर 30 रुपये खर्च करेंगे, क्या प्रधानमंत्री जी हमारे साथ एक दिन बिताएंगे?'

यह जवाब उन आंकड़ेबाजों के लिए भी है, जिन्होंने गरीबी की नई परिभाषा गढ़ी है। आइए सुनते हैं इस परिभाषा की वजह से रातोंरात 'गरीब से गरीब नहीं' की श्रेणी में आए अपने शहर-गांव के कुछ लोगों की..

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मालकिन की रोटी से मिटती भूख

पटना [सुनील राज]। कौशल्या देवी की सुबह जब होती है उस वक्त अंधेरा ही होता है। मन मार पैरों में टूटी चप्पल डाल वह निकल पड़ती हैं चार घरों का काम निपटाने। चौका-बर्तन कर लौटती हैं तो साथ होती हैं रात की बची चंद रोटियां। जो उनकी मालकिनों से उन्हें मिली होती हैं। ये रोटियां पांच लोगों के परिवार के सुबह की भूख मिटाती हैं। 133 रुपये का सवाल कौशल्या के लिए भड़काऊ भाषण की तरह है। पूछ बैठी, एक वक्त का खाना बनाने में सौ रुपये खर्च हो जाते हैं। सुबह बच्चों को कलेवा न दें, रात को भूखे रह जाएं, तो शायद 28 रुपये में दिन काटा जा सकता है। कौशल्या का पेट सुबह किसी और की दी रोटियों पर चलता है तो शाम को किसी और की। वे जानना चाहती हैं कि कब उन्हें अपनी दिनभर की मेहनत की एवज में दो वक्त की भरपेट रोटी मिल सकेगी?

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कौशल्या गरीब नहीं, तो गरीब कौन है?

परिवार में कुल पांच सदस्य

बेटी सोनी का विवाह कर्ज लेकर किया

पति दिलीप महतो रिक्शा चलाते हैं

दो बेटे हैं

एक पढ़ता है दूसरा सात सौ दरमाहे पर काम करता है

नहीं मिलेगी रोटी तरकारी भी .

प्रधानमंत्री जी, मैं मेखी रजक हूं। काम, लोगों के कपड़े धोना और स्त्री करना। रोज की आमदनी चालीस से पचास रुपये। मैं जहां रहता हूं उसके लिए सात सौ रुपये चुकाता हूं। परिवार में दो बेटे हैं। दोनों छोटा-मोटा काम करते हैं। हमारी कुल आमदनी तीन से चार हजार रुपये ही है। बड़ी दिक्कत होती है प्रधानमंत्री जी.। 33 रुपये में भोजन कहां से संभव है। सिर्फ चार रोटी और तरकारी भी बना कर खाएंगे तो भी एक दिन में 70-80 रुपये खर्च हो जाएंगे। आप देश के प्रधानमंत्री है, कहेंगे तो हम लोग एक वक्त ही खाना खाएंगे। मेरी बीवी दिनभर कच-कच करती है, कहती है इतना कम पैसा में नहीं चलता। आप ही बताएं पैसा कहां से लाए।

मैं भी गरीब नहीं हूं क्या?

मेखी रजक :

परिवार में सदस्य चार

बेटी नहीं है

दो बेटों में एक धोबी का काम करता है

दूसरा एक डाक्टर के यहां काम करता है

महीने की आय 25 सौ से 35 सौ रुपये

झोपड़ी है, भूख है, लेकिन गोरख भी गरीब नहीं हैं.

मसौढ़ी। गरीबी की परिभाषा को गांव के मजदूर नकार रहे हैं। निसियावां पंचायत के मजदूर गोरख सिंह एक झोपड़ीनुमा मकान में अपनी पत्‍‌नी मालती देवी और दो पुत्रों के साथ रहते हैं। वे पहले से ही मनरेगा के तय पैसों से नाराज हैं। रोजाना 27 रुपये कमाने वाले अब गरीब नहीं है, सुनकर झल्ला उठते हैं। बोले बढ़ती महंगाई में 27 रुपये में पेट कैसे भर सकता है? कपड़ा और जरूरी दवाओं के बारे में भी तो सोचना होगा।

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