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...भईल बियाह मोर करब का

भईल बियाह मोर, करब का। फागुन के महीने में भोजपुरी की यह कहावत, आम आदमी पार्टी (आप) में जारी तकरार को लेकर पार्टी जनों में ठहाकों के बीच कही-सुनी जा रही है। मतलब साफ है कि प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव चाहे जितना भी जोर लगा लें लेकिन सच यह

By anand rajEdited By: Updated: Wed, 04 Mar 2015 08:29 AM (IST)
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नई दिल्ली (अजय पांडेय)। भईल बियाह मोर, करब का। फागुन के महीने में भोजपुरी की यह कहावत, आम आदमी पार्टी (आप) में जारी तकरार को लेकर पार्टी जनों में ठहाकों के बीच कही-सुनी जा रही है। मतलब साफ है कि प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव चाहे जितना भी जोर लगा लें लेकिन सच यह है कि अब अरविंद केजरीवाल पार्टी के सर्वमान्य नेता हैं। उनकी अगुआई में पार्टी ने दिल्ली में ऐतिहासिक विजय दर्ज की है और अब उनका सियासी कद, सवाल उठाने वाले तमाम नेताओं से कहीं ऊपर पहुंच चुका है।

आप से जुड़े सूत्रों पर यकीन करें तो आम आदमी पार्टी में वर्चस्व की यह लड़ाई लोकसभा चुनाव में पार्टी की हुई फजीहत के बाद ही शुरू हो गई थी। यह महसूस किया गया था कि पार्टी को लोकसभा चुनाव में नहीं उतरना चाहिए था और उसे खुद को दिल्ली तक ही सीमित रखना चाहिए था। दिल्ली की ऐतिहासिक जीत के बाद खुद मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी कहा था कि लोकसभा चुनाव में पूरे देश में चुनाव लड़ना गलत फैसला था। उन्होंने यह भी स्पष्ट कहा था कि वह अगले पांच साल तक और कहीं नहीं जाएंगे। लेकिन योगेन्द्र यादव ने तब भी कहा था कि पार्टी को अपना विस्तार करना चाहिए।

दिलचस्प यह है कि पार्टी के संस्थापक सदस्य शांतिभूषण ने बीते 26 फरवरी को हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक से ठीक एक दिन पहले एक पत्र सभी सदस्यों को भेजा था। इसमें यही कहा गया था कि लगातार कमजोर होती कांग्रेस की जगह लेने के लिए आम आदमी पार्टी को पूरे देश स्तर पर कोशिश करनी चाहिए और एक मजबूत धर्मनिरपेक्ष विकल्प के तौर पर खुद को पेश करना चाहिए। उन्होंने अगले छह महीने में आप का विस्तार पूरे देश में करने की पुरजोर वकालत भी अपने पत्र में की थी।

सियासी पंडितों का कहना है कि असल में यह वर्चस्व की लड़ाई है। इसमें कोई दो राय नहीं कि अरविंद केजरीवाल के बगैर आम आदमी पार्टी की कोई ताकत नहीं है। ऐसे में पार्टी को क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, यह तय करने का अधिकार भी बदली हुई परिस्थितियों में उनके ही पास रहना चाहिए। दूसरी ओर पार्टी को खड़ा करने वाले नेताओं को यह स्थिति कतई बर्दाश्त नहीं हो रही है। असल में वे केजरीवाल की अहमियत को कम करके आंकना चाहते हैं। लेकिन ऐसा इसलिए संभव नहीं है क्योंकि केजरीवाल की लोकप्रियता के मद्देनजर पार्टी में उनके विरोधी भी अब उनके खिलाफ जुबान खोलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे।

आप की तकरार से सरकार की सेहत पर कोई फर्क नहीं

आम आदमी पार्टी (आप) में जारी तकरार से सूबे की सरकार की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ने वाला है। 70 सदस्यों वाली दिल्ली विधानसभा की 67 सीटों पर कब्जा जमाकर आप ने बहुमत का बेमिसाल रिकार्ड कायम किया है। लिहाजा, अरविंद केजरीवाल की सरकार बहुत मजबूत है।

आप के नेताओं का कहना है कि इसमें कोई दो राय नहीं कि दिल्ली में मिली सफलता का सारा श्रेय केजरीवाल को है। ऐसे में उनके नेतृत्व को लेकर सवाल नहीं खड़े किए जा सकते। दिलचस्प यह है कि पिछले चुनाव तक जो लोग प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव की तारीफ करते थे, उनका भी अब मानना है कि केजरीवाल के नेतृत्व पर सवाल उठाकर उन्होंने गलत कदम उठाया है। सूत्रों का कहना है कि चुनाव से पहले प्रशांत भूषण खेमे की ओर से बार-बार यह कहा गया कि पार्टी चुनाव हार रही है। आरोप तो यह भी लगाए जा रहे हैं कि आप को चंदा देने वालों को रोकने की भी कोशिश की गई। बीच चुनाव में अजय माकन व किरण बेदी की तारीफ की गई। इन तमाम बातों के बावजूद आम आदमी पार्टी ने अरविंद केजरीवाल की अगुआई में ऐतिहासिक जीत दर्ज की। ऐसे में विरोध करने वालों को अब अपना विरोध छोड़कर पार्टी की मजबूती के लिए काम करना चाहिए। ऐसे लोगों के हाथों से बाजी निकल चुकी है।

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