कैसे महिलाएं खुद को समझें सुरक्षित जब डराने वाले हैं उनके खिलाफ अपराध के आंकड़े
निर्भया मामले को आज पूरे सात वर्ष हो चुके हैं। आज भी दोषियों को सजा होने का इंतजार हो रहा है। इस तरह के मामलों में देश में की स्थिति बेहद खराब है।
By Kamal VermaEdited By: Updated: Mon, 16 Dec 2019 12:01 PM (IST)
नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। भारतीय इतिहास में 16 दिसंबर 2012 का दिन किसी काले अध्याय से कम नहीं है। 16 दिसंबर की रात को दिल्ली के वसंत विहार इलाके में एक चलती बस में छह दरिंदों ने एक युवती के साथ शर्मसार कर देने वाली घटना को अंजाम दिया था। इसकी गूंज भारत से बाहर भी सुनी गई थी। दुनियाभर की मीडिया ने इस पूरे प्रकरण को पूरी प्राथमिकता से छापा था। देश की राजधानी में इस घटना के बाद कई दिनों तक धरना प्रदर्शन का दौर चला था। आज इस घटना को पूरे सात वर्ष बीत गए हैं, लेकिन तब के और अब के हालात में कोई खास फर्क नहीं आया है। हाल ही में हैदराबाद में एक महिला डॉक्टर के साथ हुए सामूहिक दुष्कर्म और उसको जला देने की घटना ने फिर से देश को शर्मसार किया है।
हर रोज सामने आते हैं दुष्कर्म के 90 मामले
इस तरह के बढ़ते मामलों की तस्दीक देश भर में दर्ज दुष्कर्म के मामले भी कर रहे हैं। आंकड़ों की मानें तो देश में हर रोज दुष्कर्म के 90 मामले दर्ज किए जाते हैं। वर्ष 2017 में दुष्कर्म के 32500 मामले दर्ज किए गए। यह आंकड़े हमारे समाज की मानसिकता को दर्शाने के लिए काफी हैं। यह आंकड़े इस लिए भी काफी भयावह हैं क्योंकि दुष्कर्म के दर्ज हुए मामलों का निपटारा होने में यहां पर कई वर्ष लग जाते हैं। वसंत विहार दुष्कर्म मामले में ही सात वर्ष बाद भी दोषियों को फांसी नहीं दी जा सकी है। यह हाल तब है जब इस मामले में निचली अदालत ने फास्ट ट्रैक कोर्ट के माध्यम से महज छह माह में ही पांच आरोपियों को दोषी करार देते हुए फांसी की सजा सुनाई थी, जबकि एक अन्य को जुवेनाइल कोर्ट ने दोषी ठहराया था।
2013 में हाईकोर्ट ने सुनाई थी मौत की सजा वर्ष 2013 में दिल्ली हाईकोर्ट ने सभी दोषियों की सजा पर मुहर लगाई थी। सुप्रीम कोर्ट भी दोषियों को मिली फांसी की सजा को सही करार दे चुका है। इसके बाद इन्हें अब तक फांसी नहीं दी जा सकी है। हालांकि इसके पीछे कानूनी अड़चन है। संविधान विशेषज्ञ डॉक्टर सुभाष कश्यप का कहना है कि जब तक दोषियों के पास अंतिम विकल्प मौजूद है तब तक उन्हें फांसी नहीं दी जा सकती है। वे मानते हैं कि देश के कानून में कुछ सुधार होना बेहद जरूरी है। आपको बता दें कि मामले में दोषी ठहराए गए एक ने तिहाड़ में ही खुद को फांसी लगा ली थी। यह केवल एक मामले का हाल है। वर्ष 2017 तक देश में दुष्कर्म के करीब 127800 लंबित थे, जबकि महज 18300 मामलों का निपटारा किया गया था।
क्या कहते हैं एनसीआरबी के आंकड़े नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक महिलाओं से जुड़े अपराधों में कई राज्य काफी आगे हैं। वर्ष 2017 में पश्चिम बंगाल में जहां 30992 मामले दर्ज हुए वहीं उत्तर प्रदेश में इस दौरान महिलाओं के खिलाफ दर्ह अपराधों की संख्या 56011 थी। इसके अलावा तेलंगाना में 17521, राजस्थान में 25993, ओडिशा में 20098, महाराष्ट्र में 31979, मध्य प्रदेश में 29788, केरल में 11057, कर्नाटक ममें 14078, हरियाणा में 11370, बिहार में 14711, असम में 23082 और आंध्र प्रदेश में 17909 मामले दर्ज हुए। देश की राजधानी की यदि बात करें तो 13076 मामले वर्ष 2017 में दर्ज किए गए थे। 2017 में ही देशभर में महिलाओं के खिलाफ हुए अपराधों की संख्या की यदि बात करें तो 359849 थी। केंद्र शासित प्रदेशों में जहां दिल्ली सबसे ऊपर थी वहीं राज्यों में उत्तर प्रदेश महिलाओं से जुड़े अपराधों के मामले में सबसे ऊपर था।
पुलिसकर्मियों की कमी अब जरा देश में कानून व्यवस्था संभालने वाली पुलिस का भी जिक्र यहां पर कर लेते हैं। पुलिस इस तरह के मामलों का जल्द निपटारा करने में बड़ी भूमिका निभाती है। लेकिन अफसोस की बात है कि देश के कई राज्य और केंद्र शासित प्रदेश इनकी कमी से जूझ रहे हैं। आपकेा बता दें कि देश भर में पुलिस के कुल 5.28 लाख पद रिक्त हैं। इसमें सबसे अधिक उत्तर प्रदेश में हैं, जहां पुलिसकर्मियों की संख्या में 1.29 लाख पद रिक्त हैं जबकि, यहां पुलिस बल में अनुमोदित पदों की संख्या 4,14,492 है। वहीं बिहार में 1,28,286 स्वीकृत पद हैं जबकि 50,000 पद रिक्त हैं। इसके अलावा पश्चिम बंगाल में स्वीकृत पदों की संख्या 1,40,904 है जबकि, 49,000 पद रिक्त हैं। तेलंगाना में 76,407 पद स्वीकृत हैं जबकि 30,345 रिक्त पद हैं। गृह मंत्रालय के आंकड़ों की मानें तो सभी राज्यों के पुलिस बलों में 23,79,728 स्वीकृत पद हैं। वर्ष 2018 तक इनमें से 18,51,332 पदों को 1 जनवरी तक भर लिया गया था।
जजों की संख्या बेहद कम पुलिस के बाद दुष्कर्म के मामलों को निपटाने में हो रही देरी की सबसे बड़ी वजह जजों की संख्या का कम होना है। दरअसल, पूरे देश की अदालतों में उतने जज नहीं हैं जितने वहां पर स्वीकृत हैं। दिल्ली की ही बात करें तो यहां हाईकोर्ट में जजों के स्वीकृत पद 70 हैं जबकि वर्तमान में केवल 38 ही जज यहां पर नियुक्त हैं। इसके अलावा इलाहाबाद हाईकोर्ट की बात करें तो यहां पर जजों की स्वीकृत संख्या 160 है। इनमें 76 स्थायी और 84 अतिरिक्त जज शामिल हैं। वर्तमान में यहां पर जजों की संख्या 117 हो चुकी है। इसके बाद भी 43 पद रिक्त हैं।
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