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भारत ही क्यों दे रोहिंग्याओं को शरण, इसके लिए मुस्लिम देश क्यों नहीं आते सामने

जब हिंदू, ईसाई और दूसरे धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकार पाकिस्तान, बांग्लादेश, जैसे कथित इस्लामी देशों में खत्म किए जाते हैं, तब भारतीय मुस्लिम नेता चुप्पी क्यों साध लेते हैं?

By Kamal VermaEdited By: Updated: Wed, 20 Sep 2017 12:34 PM (IST)
भारत ही क्यों दे रोहिंग्याओं को शरण, इसके लिए मुस्लिम देश क्यों नहीं आते सामने

गुलाम रसूल देहलवी

रोहिंग्या संकट में मानवाधिकारों का गंभीर उल्लंघन एक त्रासदी है। म्यांमार में मानवता निशाने पर है। बहुत से बेकसूर इंसानों, बुजुर्गो, महिलाओं और बच्चों को मार दिया गया और निर्दोष युवाओं को निशाना बनाया गया। इस नाजुक मोड़ पर रोहिंग्या शरणार्थियों को हिंदुस्तान से वापस म्यांमार भेजने की भारत सरकार की योजना सामने आई है, जिस पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने सवाल उठाए हैं, जबकि इस मुद्दे पर भारतीय मुस्लिम नेताओं ने आंदोलन का माहौल बनाया हुआ है, जो रोहिंग्या लोगों के प्रति सहानुभूति तो प्रकट कर रहे हैं, लेकिन देश की सुरक्षा पर सोचने की कोशिश नहीं कर रहे हैं। मुस्लिम नेताओं को यह समझना मुश्किल है कि जिस देश ने हमेशा दुनियाभर के शरणार्थियों का अपनी धरती पर स्वागत किया, वह इन 40 हजार मुस्लिम शरणार्थियों को क्यों निर्वासित करना चाहता है।

अधिकांश भारतीय मुस्लिमों का मानना है कि रोहिंग्या शरणार्थियों को निर्वासित करने का सरकार का फैसला निंदनीय है। उनकी दलील है कि भारत ने हमेशा से पूरी दुनिया के विस्थापित शरणार्थियों को जुल्म और हिंसा से बचाने की कोशिश की है। ऑल इंडिया उलमा व मशाईख बोर्ड के संस्थापक सय्यद मोहम्मद अशरफ किछौछवी ने मांग की है कि भारत सरकार उन मासूम शरणार्थियों को शरण प्रदान करे जो अपनी जान और गरिमा की रक्षा के लिए भारत की ओर उम्मीद से देख रहे हैं। जमात-ए-इस्लामी के अध्यक्ष मौलाना सैयद जलालुद्दीन उमरी ने संयुक्त राष्ट्र, ओआईसी और विभिन्न मानवाधिकार संगठनों से मांग की है कि वह बर्मी सरकार पर अपने देशवासियों की हत्या रोकने के लिए दबाव डालें, उनकी नागरिकता बहाल करे, उन पर सभी प्रकार के प्रतिबंध हटा दें और उनके सामाजिक और आर्थिक विकास पर ध्यान केंद्रित करे। इसी तरह, जमीअत उलेमा-ए-हिंद ने संयुक्त राष्ट्र से म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों को बचाने की अपील की है।

एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक जमीयत उलेमा ने कहा है कि भारत सरकार को यूरोपीय संघ समेत विकसित देशों की शरणार्थी नीति का पालन करना चाहिए, लेकिन क्या यही प्रश्न जमीयत उलेमा जैसे अन्य भारतीय मुस्लिम संगठनों ने कभी मुस्लिम देशों से भी किया है? ऑल इंडिया उलमा मशाईख बोर्ड, जमीअत उलेमा-ए-हिंद और जमाते इस्लामी जैसे मुस्लिम संगठनों ने भारत सरकार, संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से म्यांमार में उत्पीड़ित मुसलमानों की मदद करने की अपील की है, लेकिन क्या उन्होंने इस संबंध में वैश्विक मुस्लिम समुदाय से भी अपील की? क्या उन्होंने यह पूछा कि रोहिंग्या शरणार्थियों को मुस्लिम देशों, खासकर अरब जगत में आश्रय क्यों नहीं मिल सकता है? रोहिंग्या शरणार्थियों का संकट स्पष्ट रूप से मानवाधिकार की समस्या है, लेकिन आश्चर्य है कि जब इस तरह का या इससे भी अधिक दर्दनाक मानव अधिकारों का उल्लंघन मुस्लिम देशों की सरकारों ने जब किया तो भारत में ये इस्लामी संगठन उनके विरोध में सामने नहीं आए।

इसलिए यह प्रश्न अपनी जगह सही है कि क्या मानवाधिकार केवल उन मुस्लिम अल्पसंख्यकों के लिए है जो गैर-मुस्लिम देशों में रह रहे हैं? क्या भारत के इस्लामी विद्वानों और मुस्लिम नेताओं ने उस समय कभी आवाज बुलंद की जब मुस्लिम देशों में गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों के मानव अधिकारों का उल्लंघन हुआ? यह हमारा कर्तव्य है कि हम इस्लामिक राष्ट्रों खासकर पाकिस्तान और सऊदी अरब में अल्पसंख्यकों पर किए जाने वाले अत्याचारों के खिलाफ भी आवाज उठाएं। आज भारतीय मुसलमानों को दूसरे धार्मिक अल्पसंख्यकों के दर्द को भी महसूस करना होगा। सवाल है कि जब हिंदू, ईसाई और दूसरे धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकार पाकिस्तान, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, सऊदी अरब, मिस्र, इराक, सीरिया और तुर्की जैसे कथित इस्लामी देशों में खत्म किए जाते हैं, तब भारतीय मुस्लिम नेता क्यों चुप्पी साध लेते हैं?

बेशक 40 हजार रोहिंग्या मुसलमानों को निर्वासित करने की भारत सरकार की योजना देश के सांस्कृतिक और बहुलवादी मूल्यों के खिलाफ है। श्रीलंका, अफगानिस्तान और तिब्बत सहित कई पड़ोसी देशों से आने वाले बेसहारा लोगों की मदद करने में भारत सब से आगे रहा है। मगर इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि पिछली घटनाओं के मद्देनजर, भारत की सुरक्षा संबंधी चिंताएं वैध हैं। हम यह नहीं भूल सकते कि भारत में बहुसांस्कृतिक सभ्यता की परंपरा रही है। हम दुनिया के सभी क्षेत्रों से आने वाले पीड़ित अल्पसंख्यकों का हमेशा समर्थन कर चुके हैं। यही परंपरा हमारे देश को सुंदर बनाती है, लेकिन रोहिंग्या शरणार्थियों या किसी भी जरूरतमंद लोगों की सहायता मानवता पर आधारित होनी चाहिए न कि धर्म के आधार पर। जो लोग मानवता की बजाय धार्मिक रूप से रोहिंग्या शरणार्थियों के भाग्य का फैसला करने की कोशिश कर रहे हैं, वे अपने सांप्रदायिक हितों को बढ़ावा देने की कोशिश कर रहे हैं।

मानवाधिकार कुछ धर्मो के लिए विशेष नहीं हो सकते। इसलिए अगर भारत रोहिंग्या मुसलमानों को वापस म्यांमार में मरने के लिए छोड़ देता है तो यह एक दुखद ऐतिहासिक त्रसदी होगी। यह ऐसे ही होगा जैसे क्यूबा और अमेरिका ने हिटलर के अत्याचारों से पीड़ित 900 से अधिक यहूदियों को समुद्री जहाज से 13 मई 1939 को मौत के मुंह में छोड़ दिया था। इनमें से 250 लोगों को जर्मनी की नाजी सेना ने मौत के के घाट उतार दिया था। परन्तु हमें यह भी सोचना होगा कि मुस्लिम देश रोहिंग्या मुसलमानों को आश्रय देने के लिए क्यों आगे नहीं आ रहे हैं? सीरियाई शरणार्थियों को जर्मनी और अन्य यूरोपीय देशों द्वारा आश्रय दिया गया है। हालांकि कुछ मुस्लिम देश आर्थिक रूप से उन तक पहुंचने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन उन्हें शरणार्थी का दर्जा नहीं दे रहे हैं। वास्तव में यह दुनिया भर में रह रहे मुस्लिम समुदाय के लिए ‘सामूहिक अपमान’ की बात है कि सभी इस्लामी देश रोहिंग्या शरणार्थियों से मुंह मोड़ रहे हैं।

(लेखक इस्लामिक मामलों के जानकार और रिसर्च स्कॉलर हैं)