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इंसान की जान बचाने को आगे आया इसरो, डीआरडीओ, नासा समेत कई छोटे-बड़े लोग, जानें कैसे

जब इंसान की जान बचाने का सवाल सामने आया तो सब इस काम में जुट गए। ये मेहनत हमारे सामने कई तरह के वेंटिलेटर के रूप में सामने आई है जो सस्‍ते भी हैं और पोर्टेबल भी हैं।

By Kamal VermaEdited By: Updated: Sun, 26 Apr 2020 09:45 AM (IST)
इंसान की जान बचाने को आगे आया इसरो, डीआरडीओ, नासा समेत कई छोटे-बड़े लोग, जानें कैसे
नई दिल्‍ली। हम हर किसी से सुनते आए हैं कि 'आवश्‍यकता ही अविष्‍कार की जननी होती है'। कोरोना के चलते ये बात साबित भी हो गई है। ऐसा हम मरीजों की जान बचाने में काम आने वाले वेंटिलेटर के लिए कह रहे हैं। पूरी दुनिया को अपनी पकड़ में जकड़ने वाले कोरोना वायरस की वजह से जब सब जगह वेंटिलेटर की कमी महसूस की जाने लगी तो इसमें वो कंपनियां, संस्‍था और कुछ स्‍वयंसेवी भी सामने आए जो इसको बनाने में जुटे हुए हैं। खास बात ये भी है कि इनमें से कुछ को इसकी तकनीक के बारे में काफी कुछ नहीं पता है। इसके बाद भी वो इस काम में पूरी शिद्दत के साथ जुटे और कुछ ने इसके लिए तकनीकी मदद लेकर इसको कम लागत और कुछ दिनों में तैयार भी कर दिखाया। आज हम आपको ऐसे ही कुछ सस्‍ते वेंटिलेटरर्स के बारे में बता रहे हैं जो अब मरीजों की जान बचाने में अहम भूमिका निभा रहे हैं।

एक नजर वेंटिलेटर के इतिहास और कार्यशैली पर

आपको सबसे पहले बता दें कि वेंटिलेटर का इस्‍तेमाल उन मरीजों पर किया जाता है जिन्‍हें सांस लेने में परेशानी होती है। वेंटिलेटर में लगे पंप की मदद से ऑक्‍सीजन मरीज के फेंफड़ों में पहुंचाई जाती है जिसकी वजह से उसका दिल काम करता है और शरीर में खून की सप्‍लाई हो पाती है। ऐसा न होने मरीज की मौत हो जाती है। जहां तक वेंटिलेटर के शुरुआत या इतिहास की बात है तो ये भी काफी पुराना है। औपचारिक तौर पर इसका इस्‍तेमाल 18वीं शताब्दी में शुरू हुआ था। इसे पॉजिटिव-प्रेशर वेंटिलेटर का नाम दिया गया। 1830 में एक स्कॉटिश डॉक्टर ने निगेटिव-प्रेशर वेंटिलेटर बनाया। 19वीं सदी में प्रसिद्ध आविष्कारक एलेक्जेंडर ग्राह्म बेल का वैक्यूम जैकेट काफी लोकप्रिय हुआ था। 

20वीं सदी में आयरन लंग नाम से वेंटिलेटर दुनिया के सामने आया। ये स्‍कॉटिश मॉडल यानी निगेटिव प्रेशर वेंटिलेटर तकनीकी पर काम करती थी। 1907 में जर्मनी में बाप बेटे ने मिलकर पुलमोटर मशीन बनाई जो पॉजिटिव-प्रेशर वेंटिलेटर तकनीकी पर काम करती थी। एक तरह का ट्रांसपोर्टेबल डिवाइस थी जो एक मास्क के जरिए ऑक्सीजन का प्रवाह करती थी। 1950 में अमेरिकी सेना के पूर्व पायलट फॉरेस्ट बर्ड ने बर्ड मास्क 7 को ईजाद किया। कुछ लोग मास्क 7 को मॉर्डन मेडिकल रेस्पिरेटर मानते थे। दूसरे विश्‍व युद्ध में घायल जवानों को बचाने के लिए जो तकनीक सामने आई उसमें मरीज के फेंफड़ों में हवा भरने के लिए पाइप का इस्‍तेमाल किया जाने लगा था। धीरे-धीरे यही तकनीक और अधिक विकसित होती चली गई। आज कोरोना से जंग में इंसान की जान को बचाने के लिए हर कोई इसमें अपनी तरह से योगदान दे रहा है।

वेंटिलेटर बनाने को आए आगे

नासा का वाइटल

इसमें सबसे पहले नासा की बात करते हैं क्‍योंकि इसने कुछ समय पहले ही मरीजों की जान बचाने के लिए वेंटिलेटर बनाया है। दुनिया के कई देशों में इसकी कमी को देखते हुए अमेरिका की ये अंतरिक्ष एजेंसी इस काम में जुटी और अब इसका रिजल्‍ट सभी के सामने है। नासा ने अपने बनाए इस वेंटिलेटर को वाइटल नाम दिया है। वाइटल मतलब वेंटिलेटर इंटरवेंशन टेक्नोलॉजी एक्सेसिबल लोकली। इस वेंटिलेटर को कुछ अस्पतालों में सफलतापूवर्क टेस्‍ट कर लिया गया है। ये एक हाई प्रेशर वाला प्रोटो टाइप वेंटिलेटर है। एजेंसी के मुताबिक यह वेंटिलेटर न्यूयॉर्क के इकैन स्कूल ऑफ मेडिसिन के क्रिटिकल टेस्‍ट में पास हो गया है। नासा का कहना है कि इसको उन कोरोना मरीजों के लिए डिजाइन किया गया है जिनमें इस रोग के लक्षण दिखाई देते हैं।

नासा को उम्‍मीद है कि टेस्‍ट में पास होने के बाद इसको मरीजों पर इस्‍तेमाल की अनुमति दे दी जाएगी। नासा के चीफ हेल्‍थ एंड मेडिकल ऑफिसर डॉक्‍टर जेडी पॉक के मुताबिक आईसीयू में मौजूद कोरोना मरीजों को एक एडवांस्‍ड वेंटिलेटर की जरूरत है। इस कमी को वाइटल पूरा कर सकता है। इसको नासा की जेट प्रपल्‍शन लैब में बनाया गया है। यहां पर इसके कई पार्ट्स को यहीं डिजाइन किया गया और बनाया गया। जेपीएल के टेक्‍नीकल फैलो लियोन एल्‍कालाई के मुताबिक नासा अब तक अंतरिक्ष से जुड़ी चीजों का निर्माण करती रही है, मेडिकल फील्‍ड में कुछ बनाना उसके लिए एक बड़ी और नई चुनौती थी। इसकी सबसे खास बात ये है कि इसकी मेंटेनेंस और इस्‍टॉलेशन बेहद आसान है।

डीआरडीओ का वेंटिलेटर

आपको बता दें कि जिस तरह से नासा इस मुसीबत में आगे आई है, उसी तरह से भारत का रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (DRDO) भी इस मुश्किल घड़ी में आगे आया है। देश में वेंटिलेटर समेत अन्‍य प्रोटेक्टिव इक्‍यूपमेंट्स की कमी को देखते हुए डीआरडीओ ने अपनी लैब में सैनेटाइजर से लेकर मास्क तक का निर्माण किया। इतना ही नहीं लोगों की जान बचाने में इस्‍तेमाल आने वाला वेंटिलेटर भी बनाया। अप्रैल की शुरुआत में ही डीआरडीओ के चेयरमैन जी सतीश रेड्डी ने बताया था कि वैज्ञानिकों ने महज चार दिनों में एक ऐसा वेंटिलेटर विकसित किया है जिसको एक साथ 4-8 लोग इस्‍तेमाल कर सकते हैं। उनके मुताबिक मई तक ऐसे करीब 10,000 वेंटिलेटर बना लिए जाएंगे और जून-जुलाई तक 30 हजार वेंटिलेटर की आपूर्ति कर दी जाएगी। इस काम में उनका साथ आईआईटी (IIT) हैदराबाद भी दे रही है। उनके मुताबिक जो वेंटिलेटर डीआरडीओ ने तैयार किया है वो एक एनेस्थेटिया वेंटीलेटर है, जिसकी कीमत करीब 4 लाख रुपये तक होगी। इसरो भी वेंटिलेटर बनाने की तरफ कदम बढ़ाने का एलान कर चुका है।  

गुजरात का धामन

गुजरात के राजकोट की ज्योति सीएनसी कंपनी ने धामन-1 नाम से वेंटिलेटर बनाया है। यह पूरी तरह से स्‍वदेशी तकनीक से बनाया गया हे। इसकी कीमत महज 1 लाख रुपहै। राज्‍य के सीएम विजय रुपाणी अपने हाथों इसको लॉन्‍च कर चुके हैं। करीब 150 लोगों की टीम ने इसको महज 10 दिनों में तैयार किया है। इसका परीक्षण अहमदाबाद के असरवा सिविल अस्पताल में भर्ती कोरोना मरीज पर किया जा चुका है।

बेंगलुरू का सस्‍ता वेंटिलेटर

बेंगलुरु की कंपनी डायनामेटिक टेक्नोलॉजीज ने एक ऐसा वेंटिलेटर विकसित किया है जिसको चलाने के लिए बिजली की जरूरत नहीं होती है। यह वेटिंलेटर मरीज की जरूरत के हिसाब से शरीर में ऑक्सीजन पहुंचाने में सक्षम है। इस वेंटिलेटर की एक दूसरी सबसे बड़ी खासियत इसकी बेहद कम कीमत है। ये मात्र 2,500 रुपये का है। यह वेंटिलेटर डिस्पोजेबल है और इसको इस्तेमाल करना भी बेहद आसान है। इसका कॉम्‍पैक्‍ट साइट इसको कहीं भी आसानी से लेजाने में मदद करता है। नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने ट्वीट कर इस वेटिंलेटर की तारीफ की थी।

एनआईटी कुरुक्षेत्र का वेंटिलेटर

कुरुक्षेत्र के राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (एनआईटी) के इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग विभाग के अध्यक्ष प्रो. ललित मोहन सैनी ने कम लागत वाला वेंटिलेटर तैयार किया है। उन्‍होंने इसको पेटेंट करवाने के लिए आवेदन भी किया है। इस वेंटिलेटर की कीमत महज 3500 रुपये है। यह वेंटिलेटर मरीजों को कृत्रिम सांस उपलब्ध कराने में बेहद सहायक है। इसमें लगे कंट्रोलर की मदद से इसके कृत्रिम सांस लेने की स्‍पीड को कम या ज्‍यादा किया जा सकता है। इसमें सात एएच की बैटरियां लगाई गई है जिससे बिजली न होने की सूरत में भी ये काम करता रहेगा। इस वेंटिलेटर को बनाने में तीन माह का समय लगा है। इसमें क्रैंक शिफ्ट मैकेनिज्म से एम्बयू बैग पर प्रेशर डाला जाता है। इसके बाद एम्बयू बैग से निकलने वाले कृत्रिम सांस को नाली के माध्यम से मरीज को दिया जाता है।

अफगानिस्‍तान में कार के स्‍पेयर पार्ट से वेंटिलेटर बनाने की कोशिश

अफगानिस्‍तान में 14 से 17 वर्ष की चार युवतियां भी वेंटिलेटर बनाने में जुटी हैं। ये इसको कार के स्‍पेयर पार्ट से बना रही हैं। ये इस टीम को लीड कर रही सोमाया फारुकी यहां की रोबोटिक टीम का हिस्‍सा हैं और उन्‍हें इससे पहले कम लागत वाली सांस लेने की मशीन बना चुकी हैं। वह 2017 में अमेरिका में आयोजित रोबोट ओलंपियाड में शामिल हुई थी। सोमाया कहती हैं कि अफगान नागरिकों को महामारी के समय में अफगानिस्तान की मदद करनी चाहिए। इसके लिए हमें किसी और का इंतजार नहीं करना चाहिए। आपको बता दें कि उनकी रोबोटिक टीम को कई सम्‍मान भी मिल चुके हैं। उनकी टीम के सदस्‍य वेंटिलेटर के दो अलग अलग डिजाइन पर एक साथ काम कर रहे हैं। इनमें से एक का आइडिया उन्‍हें मैसेचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआईटी) के ओपन सोर्स से मिला था। इसमें वे विंडशील्ड वाइपर की मोटर, बैट्री बैग वॉल्व का एक सेट या मैन्युअल ऑक्सीजन पंप का इस्‍तेमाल कर वेंटिलेटर बनाना शामिल है।

रेल कारखाने का वेंटिलेटर

कपूरथला रेल डिब्बा कारखाना ने भी एक वेंटिलेटर विकसित किया है जिसको 'जीवन' नाम दिया गया है। रेलवे कोच फैक्ट्री द्वारा बनाए इस वेंटिलेटर की कीमत बिना कंप्रेसर के करीब दस हजार रुपए होगी। इसमें मरीज के सांस को चलाने के लिये एक वॉल्व लगाया गया है। मरीज की जरूरत के हिसाब से इसके आकार में बदलाव किया जा सकता है। इसके अलावा बिहार के जमालपुर रेल कारखाना ने वेंटिलेटर बनाया है। इस वेंटिलेटर की लागत महज 10 हजार रुपये है। महज 14 लोगों की टीम ने इस वेंटिलेटर को केवल 48 घंटों में ही तैयार करके दिखा दिया।

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