पत्थर तोड़कर किया मजदूरी, अब बनी सब इंस्पेक्टर
23-24 की उम्र। गोद में बच्चा। सिर पर टोकरी। टोकरी में वजनदार सिल-बट्टे। लू में झुलसाती दुपहरिया और तपती-जलती जमीन। इन्हीं हालात में पद्मशिला पत्थर तोड़कर सिल-बट्टे बनाती।
नई दिल्ली (अतुल पटैरिया)। ’ चढ़ रही थी धूप, गर्मियों के दिन, दिवा का तमतमाता रूप, उठी झुलसाती हुई लू,
रुई ज्यों जलती हुई भू, गर्द चिनगीं छा गई, प्राय: हुई दुपहर, वह तोड़ती पत्थर...।।
आज से 82 साल पहले इलाहाबाद के पथ पर पत्थर तोड़ती किसी नवयौवना के जीवन और जिजीविषा का चित्रण महाकवि निराला ने कुछ इस अंदाज में किया। उनकी यह रचना अमर हो गई। वह 1935 का दौर था। मौजूदा कहानी 2017 की और नासिक के पथ पर हाड़तोड़ संघर्ष करने वाली पद्मशिला तिरपुडे के संकल्प की है। 23-24 की उम्र। गोद में बच्चा। सिर पर टोकरी। टोकरी में वजनदार सिल-बट्टे। लू में झुलसाती दुपहरिया और तपती-जलती जमीन। इन्हीं हालात में पद्मशिला पत्थर तोड़कर सिल-बट्टे बनाती और रोजाना बेचने निकल पड़ती। दर-दर
भटकती, घर-घर दस्तक देती। गोद में सिमटा बच्चा रो उठता तो आंचल की ओट कर दूध पिलाती। सिल-बट्टे बिक जाते तो ठीक, न बिकते तो दिहाड़ी करती ताकि मजदूर पति की मजबूरी बच्चों की बेबसी न बनने पाए। पत्थरों को तोड़ती पद्मशिला ने दरअसल उस हर मजबूरी को तोड़ा, जो इंसानी हौसले को पस्त कर डालती है।
यही शिक्षा की शक्ति है : पद्मशिला के पास आसमानी हौसले और गजब की संकल्पशक्ति के अलावा यदि कुछ और था तो वह था शिक्षा धन। पहाड़- सी चुनौतियों को उसने शिक्षारूपी हथौड़े से चकनाचूर कर दिखाया। आज वह महाराष्ट्र पुलिस में सब-इंस्पेक्टर है। पति को आर्थिक सहयोग और अपने दोनों बच्चों की बेहतर परवरिश करने में पूरी तरह सक्षम। इसी क्षमता को हासिल करने का उसका महासंकल्प था, जिसे उसने पूरा कर दिखाया। यह तय है कि अब उनके बच्चों को पत्थर नहीं तोड़ने पड़ेंगे। दरअसल पद्मशिला की यह दास्तान आज के सामाजिक-आर्थिक दौर में गरीबी उन्मूलन, जनसंख्या नियोजन और नारी सशक्तीकरण के केंद्र में शिक्षा की व्यावहारिक भूमिका को रेखांकित करती है।
संघर्ष की महागाथा : महाराष्ट्र के भंडारा जिले के एक गरीब ग्रामीण परिवार की बिटिया है पद्मशिला रमेश तिरपुडे। पिता गरीब थे, लेकिन बिटिया को पढ़ने-लिखने से कभी रोका नहीं। हालांकि, स्कूली शिक्षा पूरी करते ही उसका ब्याह कर चिंतामुक्त हो गए। आज से 11 साल पहले, जब पद्मशिला करीब महज 17-18 साल की थी, पास
के ही वाकेश्वर गांव में रहने वाले तुकाराम खोब्रागडे के बेटे पवन से उनकी शादी हुई। ससुराल की माली हालत पतली थी। पवन अधिक पढ़े-लिखे नहीं थे। पद्मशिला दो बच्चों की मां भी बन गई। परिवार ने रोजी-रोटी के लिए नासिक शहर का रुख किया। पवन ईंट भट्ठे पर काम करने लगे। 50 रुपये की दिहाड़ी मिलती थी। दो बच्चे, वृद्ध सास-ससुर भी साथ थे। गुजारा कठिन हो चला था। पद्मशिला को दोहरी जिम्मेदारी उठानी पड़ी। ऐसे में बड़े बच्चे को घर पर छोड़ और दुधमुंहे को गोद में लेकर वह भी दिहाड़ी को निकल पड़तीं। लाखों गरीब परिवारों की तरह ही पद्मशिला इसे ही नियति मान लेतीं, लेकिन उनका शिक्षित मन इसके लिए कतई तैयार न था। एक पढ़ी-लिखी मां अपने बच्चों को बेहतर भविष्य देने को संकल्पित हो उठी।
तदबीर से बदल दी तकदीर : पद्मशिला ने बताया कि पति को मिले दिहाड़ी के 50 रुपये एक दिन मुझसे खो गए। दूसरे क्या खाएंगे, इसी चिंता में रात बीती, लेकिन वह रात मुझे एक मकसद दे गई। तमाम दिक्कतों के बावजूद मैंने अपनी शिक्षा को आगे बढ़ाने का निर्णय लिया। पति को समझाया तो उन्होंने भी हामी भर दी। दिन में मजदूरी और रात में पढ़ाई। पुरानी किताबें जुटाईं। प्राइवेट से स्नातक किया। इसके बाद प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी शुरू की। आखिरकार महाराष्ट्र पुलिस अकादमी की प्रतियोगी परीक्षा में सफलता हासिल कर ली। इन दिनों अमरावती रेंज में बतौर सब-इंस्पेक्टर पदस्थ पद्मशिला ने फोन पर बताया- ‘उन परिस्थितियों में जो कर सकती थी, मैंने किया। पढ़ी-लिखी न होती तो शायद यह सब न कर पाती। अब मेरे बच्चों का भविष्य सुरक्षित है। इसकी बहुत खुशी है।’
मजदूर पति का बनी मजबूत सहारा
-सिर पर रखकर बेचे सिल-बट्टे
-मजदूरी की पर पढ़ना नहीं छोड़ा
-उत्तीर्ण की पुलिस प्रतियोगी परीक्षा
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