मासूम बहनों की यह बात सुन किसी का भी हृदय फट सकता है
चार साल की स्नेहलता और सात साल की आस्था को कुछ भी नहीं मालूम। उन्हें तो यह भी पता नहीं कि पापा लौटकर नहीं आएंगे। पूछो तो दोनों बहनें बड़ी मासूमियत से सिर्फ इतना ही कहती हैं, 'मम्मी ने बताया कि पापा मर गए। दुकान भी बह गई है।' उनकी इस निश्छलता से किसी की भी हृदय फट पड़ेगा। गुप्तकाशी से महज सात किलोमीट
By Edited By: Updated: Wed, 03 Jul 2013 11:37 AM (IST)
गुप्तकाशी, [अनुराग उनियाल]। चार साल की स्नेहलता और सात साल की आस्था को कुछ भी नहीं मालूम। उन्हें तो यह भी पता नहीं कि पापा लौटकर नहीं आएंगे। पूछो तो दोनों बहनें बड़ी मासूमियत से सिर्फ इतना ही कहती हैं, 'मम्मी ने बताया कि पापा मर गए। दुकान भी बह गई है।' उनकी इस निश्छलता से किसी का भी हृदय फट पड़ेगा।
पढ़ें : सावधान, उत्तराखंड में अभी टला नहीं हादसा गुप्तकाशी से महज सात किलोमीटर दूर धानी गांव के वीरेंद्र की केदारनाथ में चाय पानी की छोटी-सी दुकान थी। लेकिन, 17 जून की प्रलय में हजारों लोगों के साथ वीरेंद्र भी काल के गाल में समा गए। यह खबर मिलते ही धानी में मातम पसर गया। वीरेंद्र की पत्नी लीला और अन्य परिजनों में कोहराम मच गया। पर, आस्था और स्नेहलता को यह भी मालूम नहीं कि मरने का मतलब क्या होता है। दोनों बहनों को घरवालों ने सिर्फ इतना बताया है कि उनके पिता मर गए और अब वह कभी नहीं आएंगे। हालांकि, घर में छाए मातम और बदहवास परिजनों को देखकर दोनों बहनों को अहसास हो रहा है कि उनके पिता किसी मुसीबत में हैं। पढ़ें : उत्तराखंड ने गुजराती संस्था का सेवा लेने से इंकार कर दिया
दिलोदिमाग को झकझोर देने वाली यह सच्चाई सिर्फ एक नहीं, बल्कि सैंकड़ों घरों की है। मासूम प्रवीन के पिता अनिल भी केदारनाथ में आई तबाही में लापता हो गए। घर में माहौल गमगीन है। लेकिन, प्रवीन को कुछ समझ नहीं आ रहा कि आखिर यह क्या हो गया। वह मां से बार-बार पूछता है, पापा कब आएंगे। अनीश को भी मां से पता चला कि उसके पापा कनक अब कभी नहीं लौटेंगे। अकेले गुप्तकाशी क्षेत्र में ही ऐसे 50 से ज्यादा बच्चे चिह्नित किए गए हैं। पढ़ें : जिंदगी संवारने के लिए दिए गए सिर्फ 2 हजार रुपये
गुप्तकाशी निवासी एवं समाजसेवी लखपत सिंह राणा कहते हैं कि जिन घरों में कमाने वाले नहीं रहे, उनके परिजनों के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया है। बच्चों की पढ़ाई से लेकर घर के अन्य खर्च अब कैसे पूरे होंगे। सिर्फ राहत सामग्री भेजने से इन लोगों के जख्मों पर मरहम नहीं लग सकता। काश! यह बात सरकार की समझ में आ पाती। उम्मीद की किरण बाकी है आपदा में पिता और अन्य परिजनों को खो चुके मासूमों के लिए स्वयंसेवी संस्थाएं काफी मददगार साबित हो सकती हैं। बशर्ते यह संस्थाएं इन बच्चों को गोद लेकर उनकी पढ़ाई और अन्य खर्चे उठाने का जिम्मा लें। बेंजी के पूर्व प्रधान मनोज बेंजवाल कहते हैं कि इन मासूमों के लिए अगर कोई योजना नहीं बनी तो इनका भविष्य बर्बाद हो जाएगा।मोबाइल पर ताजा खबरें, फोटो, वीडियो व लाइव स्कोर देखने के लिए जाएं m.jagran.com पर