राजनीति में अपराधियों का दखल बढ़ ही नहंी रहा, उनकी पैठ मजबूत होती जा रही है। अपराधिक छवि के नेता सत्ता में शामिल होने के बाद पहले खुद को बचाने में जुटे रहते हैं। फिर जुट जाते हैं घोटालों के जरिये अपनी पूंजी बढ़ाने में। ऐसे नेताओं को जनता की जरूरतों और हितों से कोई सरोकार नहीं होता है। भारत में आजादी के समय राजनीि
By Edited By: Updated: Tue, 25 Mar 2014 12:04 PM (IST)
राजनीति में अपराधियों का दखल बढ़ ही नहंी रहा, उनकी पैठ मजबूत होती जा रही है। अपराधिक छवि के नेता सत्ता में शामिल होने के बाद पहले खुद को बचाने में जुटे रहते हैं। फिर जुट जाते हैं घोटालों के जरिये अपनी पूंजी बढ़ाने में। ऐसे नेताओं को जनता की जरूरतों और हितों से कोई सरोकार नहीं होता है। भारत में आजादी के समय राजनीति की ऐसी स्थिति नहीं थी। राजनीति में अपराधियों की पैठ मजबूत करने के लिए हम ही जिम्मेदार हैं। हम ने ही उन्हें जिताकर संसद में पहुंचाया है। अब यह हमारी ही जिम्मेदारी है कि उन्हें संसद से दूर रखें। ताकि साफ-सुथरी छवि के हमारे प्रतिनिधि हमारे हितों की बात करें..
राजनीति में अपराधिक छवि और पृष्ठभूमि के लोगो का दखल कोई नई बात नहीं है। हालिया वषरें में राजनीति का अपराधीकरण अपने चरम पर पहुंच गया है। विभिन्न घोटालों की मीडिया रिपोर्ट, कैग, सीबीआइ और अदालतों ने इस बात को पुरजोर तरीके से उठाया भी है। इन सब के अलावा भी कई ठोस सुबूत हैं, जो साबित करते हैं कि राजनीति में अपराधियों का हस्तक्षेप बढ़ रहा है। अपराधीकरण पर चर्चा से पहले गहराई से यह समझ लेते हैं कि इसके कोई मायने हैं भी या नहीं...
समाज के दो विचार एक विचार है कि भ्रष्टाचार और राजनीति के अपराधीकरण का न तो कोई मतलब है और न ही इसका कोई असर है। जैसे ही हमारा काम निकल जाता है, हम इन्हें नजरअंदाज कर देते हैं। सामान्य तौर पर हम इसे व्यवहारिक विचार कह सकते हैं। दूसरा नैतिक विचार है, जो घोटालों, भ्रष्टाचार और ऐसे मामलों से उद्वेलित हो उठता है। ऐसे विचार के लोग भ्रष्टाचार जैसे मसलों को किसी भी सूरत में बर्दाश्त करने को गलत मानते हैं। हमें कुछ देर थमकर यह सोचना चाहिए कि लंबे समय बाद भ्रष्टाचार का हम पर, हमारे बच्चों पर क्या असर पड़ेगा। समाज किस दिशा में जाएगा और सबसे अहम इसका देश के शासन पर कैसा असर होगा।
सुलझाई जा सकती हैं समस्याएं हर चुनाव जीतने वाले नेता के लिए तो बहुत कुछ लाता ही है, आम आदमी के लिए भी बहुत कुछ संजोये रहता है। महज धन की ही बात की जाए तो सत्तारूढ़ पार्टी या गठबंधन का सरकारी राजस्व और खर्च पर नियंत्रण हो जाता है। वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने इस बार 17 लाख 60 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा के खर्च सहित बजट पेश किया। यह खर्च सालाना 15 हजार रुपये प्रति व्यक्ति बैठता है। अगर इसे परिवार के आधार पर लिया जाए तो 73 हजार रुपये सालाना होता है। पांच साल में प्रति परिवार यह खर्च साढ़े तीन लाख रुपये से ज्यादा होगा। औसत भारतीय परिवार के लिए यह बड़ी रकम है। इस पूंजी से बहुत सी समस्याएं सुलझाई जा सकती हैं।
सरकारी खर्च में पाई-पाई जनता की सरकार बजट में लाखों करोड़ों रुपये का खर्च सहित बजट पेश करती है। सवाल यह उठता है कि यह धन है किसका। असल में यह वही धन है जो लोग कर के तौर पर सरकार को चुकाते हैं। सरकार की ओर से खर्च की जाने वाली एक-एक पाई जनता की है। सबसे गरीब आदमी भी जब माचिस, कपड़ा, साबुन, टूथपेस्ट और रोजमर्रा इस्तेमाल होने वाली चीजें खरीदता है, तो सरकार को कर चुकाता है। जब भी हम कुछ खरीदते हैं तो उस पर लगने वाला बिक्त्री कर उपभोक्ता ही चुकाता है। मध्य और उच्च वर्ग आयकर का भुगतान करते हैं, तो कंपनियां कॉरपोरेट टैक्स, उत्पाद शुल्क और कई अन्य तरह के कर चुकाती हैं। इसी वजह से देश में हुए कुछ आंदोलन में नारा गूंजा था, 'हमारा पैसा, हमारा हिसाब।' भरोसेमंद हाथों में दें अपनी पूंजी अब सवाल यह खड़ा होता है कि क्या इन बातों का राजनीति के अपराधीकरण से कोई लेना-देना है। अगर हम गंभीरता से सोचें तो जवाब मिलेगा कि इतनी बड़ी रकम भरोसेमंद हाथों में ही सौंपी जानी चाहिए, जिन्हें हम सांसद के तौर पर चुनते हैं। हम अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई बैंक, पोस्ट ऑफिस, करीबी मित्र या रिश्तेदारों जैसे भरोसेमंद हाथों में ही सौंपते हैं, लेकिन क्या हम अपनी राष्ट्रीय पूंजी की जिम्मेदारी भरोसेमंद लोगों को देते हैं। बजट से गायब मूलभूत जरूरतें अब सवाल यह है कि आखिर लोग सरकार से चाहते क्या हैं। हाल में देश भर के करीब ढाई लाख लोगों पर एक सर्वेक्षण किया गया। यह भारत ही नहीं दुनिया का सबसे बड़ा सर्वे था। सर्वे में लोगों से पूछा गया कि वे सरकार से चाहते क्या हैं। लोगों की शीर्ष प्राथमिकता में रोजगार, पानी, स्वास्थ्य सुविधाएं, शिक्षा, बिजली, सड़क, सार्वजनिक परिवहन, पीडीएस के जरिये खाद्य सामग्री और महिलाओं की सुरक्षा जैसे मुद्दे थे। इसके उलट बजट का एक विश्लेषण बताता है कि फंड आवंटन के समय लोगों की अहम जरूरतों का ख्याल नहीं रखा जाता। बजट में रोजगार के लिए विशेष प्रावधान नहीं किए जाते। एक बार को इसे समझा भी जा सकता है, लेकिन वर्ष 1991 से जिस विकास के खोखले दावे किए जा रहे, उसमें युवाओं की बढ़ती आबादी के लिए रोजगार के अवसर सृजित नहीं हुए हैं। क्या सरकार ने मनरेगा के अलावा इस अहम मसले पर कुछ किया? जनता का पैसा बर्बाद इस सब का राजनीति के अपराधीकरण से क्या लेना-देना है। निश्चित तौर पर इसका लेना-देना है। जिन नेताओं पर गंभीर मामले हैं, उनकी पूरी दिमागी ऊर्जा उससे छुटकारा पाने में लगेगी। ऐसे में वे लोगों के मुद्दों को पूरी तव्वजो नहीं दे पाएंगे। उनके पास वक्त नहीं होगा यह सोचने का कि लोगों का पैसा, बजट या उसे कैसे खर्च किया जा रहा है। हम ऐसे लोगों के हाथों में पूरे देश की जनता की मेहनत की कमाई सौंपने का जोखिम कैसे उठा सकते हैं। अगर ऐसे लोग चुने जाएंगे, तो निश्चित तौर पर हमें खराब शासन झेलने के लिए तैयार रहना होगा। घोटाले पर घोटाला घोटाले के बाद घोटाले, एक से बड़े एक घोटाले में लाखों करोड़ रुपये बर्बाद किए जा रहे हैं। इनमें 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन, कोलगेट, कृष्णा गोदावरी, राष्ट्रमंडल खेल, खनन और खनिज घोटाला शामिल हैं। आखिर कोयला, गैस, स्पेक्ट्रम, खनन या खनिज है क्या? ये सब सार्वजनिक संसाधन हैं, जो आम जनता की संपत्ति हैं। इनके रखरखाव और सही इस्तेमाल की जिम्मेदारी सरकार की है, न कि मनचाहे इस्तेमाल की। सत्ता में बैठे लोग अपने फायदे के लिए लोगों के संसाधनों को बेच रहे हैं। इससे उन्हें चुनाव खर्च के लिए घूस मिल जाती है। सोचिये कि ये लोग अपराधिक पृष्ठभूमि से आए हैं या साफ छवि के नेता हैं। निसंदेह राष्ट्रीय दलों के बड़े नेता साफ-सुथरी छवि के हैं, लेकिन वे धृतराष्ट्र की तरह बड़े घोटालों की तरफ से आंखें मूंद लेते हैं। ये साफ छवि के बड़े नेता अपराधियों के राजनीति में आने का विरोध भी नहीं करते। दूसरों के विचारों से प्रभावित न हों हमें दूसरों के विचारों से प्रभावित होने की जरूरत नहीं है और न ही झूठे वादों, उपहारों, या चुनाव के दौरान मीठी बातों में फंसने की जरूरत है। हमें जरूरत है तथ्यों और अपनी जरूरतों को समझने की। क्या राजनीति में अपराधियों का होना हमें नुकसान पहुंचाएगा? क्या हमे ऐसे नेताओं को अपनी पूंजी सौंपनी चाहिए? क्या हमें ऐसे लोगों को संसद भेजना चाहिए? सौभाग्य से अगर हमें किसी पर भरोसा नहीं है, तो सुप्रीम कोर्ट ने हमें नन ऑफ द अवव (नोटा) की सुविधा उपलब्ध रा दी है। आजादी के समय राजनीति ऐसी नहीं थी। अब अगर गौर करें तो इस केलिए हम ही जिम्मेदार हैं। दरअसल, हमने ही अपराधियों को संसद भेजने का काम किया है। अब समाधान भी हमारे ही हाथों में है। ऐसे लोगों को वोट न देकर हम समस्या से निपट सकते हैं। (लेखक आइआइएम बेंगलूर में प्राध्यापक और एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स 'एडीआर' के संस्थापक अध्यक्ष हैं।) प्रोफेसर त्रिलोचन शास्त्री