जानिए आखिर क्या है NPT और भारत के इस पर साइन न करने की प्रमुख वजह
भारत एनपीटी पर साइन करने को लेकर पहले भी कई बार अपनी स्थिति स्पष्ट कर चुका है। लेकिन क्या आपको पता है कि इसपर भारत का रुख क्या है।
नई दिल्ली (स्पेशल डेस्क)। परमाणु अप्रसार संधि या एनपीटी एक बार फिर से मीडिया की सुर्खियां बन गई है। इसकी वजह यूएन में इसको लेकर दिया गया भारत का वह जवाब है जिसमें साफ किया गया है कि बिना परमाणु देश का दर्जा मिले बिना भारत इस पर हस्ताक्षर नहीं करेगा। यूएन में भारत के स्थाई राजदूत अमनदीप सिंह गिल ने यह बात साफ कर दी है कि इस बारे में भारत के पूर्व की सोच में कोई बदलाव नहीं हुआ है। यह पहला मौका नहीं है कि जब भारत ने इस बाबत अपना रुख स्पष्ट किया हो। इससे पहले भी कई मौकों पर भारत अपना रुख अंतराष्ट्रीय मंच पर व्यक्त करता रहा है।
भेदभाव पूर्ण है संधि
भारत काफी समय से अंतरराष्ट्रीय परमाणु अप्रसार संधि को भेदभाव पूर्ण बताता रहा है। भारत का तर्क है कि विकसित देशों ने पहले ही परमाणु हथियारों का भंडार बना लिया है और बाकी देशों पर अप्रसार संधि थोप रहे हैं। इस मामले में भारत फ्रांस का मुद्दा भी उठा चुका है जो बिना एनपीटी पर साइन किए एनएसजी का सदस्य बना था। लेकिन भारत की इस दलील पर चीन का कहना था कि फ्रांस एनएसजी का संस्थापक सदस्य है और ऐसे में उसकी सदस्यता पर सवाल कहां पैदा नहीं होता है। भारत एनएसजी ग्रुप का भी हिस्सा बनने की कवायद लगातार कर रहा है, लेकिन चीन हमेशा से वहां पर रोड़े अटकाता रहा है। इस पर आगे बढ़ने से पहले यह भी जान लेना बेहद जरूरी है कि आखिर एनपीटी है क्या।
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एनपीटी का मकसद
एनपीटी दरअसल पररमाणु हथियारों का विस्तार रोकने और परमाणु तकनीक के शांतिपूर्ण ढंग से इस्तेमाल को बढ़ावा देने के अंतरराष्ट्रीय प्रयासों का एक हिस्सा है। इसका उद्देश्य विश्व भर में परमाणु हथियारों के प्रसार को रोकने के साथ-साथ परमाणु परीक्षण पर अंकुश लगाना है। 1 जुलाई 1967 से इस समझौते पर हस्ताक्षर होना शुरू हुआ। अभी इस संधि पर हस्ताक्षर कर चुके देशों की संख्या 190 है। जिसमें पांच के पास न्यूक्लियर वैपंस हैं। इनमें अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और चीन का नाम शामिल है। सिर्फ पांच संप्रभुता संपन्न देश इसके सदस्य नहीं हैं जिनमें भारत के अलावा इजरायल, पाकिस्तान, दक्षिण सुडान और उत्तरी कोरिया शामिल हैं।
भारत को परमाणु संपन्न देश की मान्यता नहीं
एनपीटी के तहत भारत को परमाणु संपन्न देश की मान्यता नहीं दी गई है। जो इसके दोहरे मापदंड को प्रदर्शित करती है। इस संधि का प्रस्ताव आयरलैंड ने रखा था और इस पर सबसे पहले हस्ताक्षर करने वाला राष्ट्र फिनलैंड था। इस संधि के तहत परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र उसे ही माना गया है जिसने 1 जनवरी 1967 से पहले परमाणु हथियारों का निर्माण और परीक्षण किया था। इसी आधार पर भारत परमाणु संपन्न राष्ट्र का दर्जा देने से इंकार किया जाता रहा है। आपको बता दें कि भारत ने पहला परमाणु परीक्षण 1974 में किया था।
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दरअसल, इस संधि के बारे में पहली बार विचार जापान के दो शहरों पर गिरे एटम बमों के बाद किया गया था। यह सही मायने में विश्व को परमाणु हमले की भयावहता से बचाने के लिए उठाया गया सही कदम था। इसका मकसद था कि परमाणु हथियार वाले देश इसकी क्षमता को कम करें। लेकिन हकीकत यह भी है कि यह संधि और परमाणु हथियार रखने वाले देश इसमें पूरी तरह से विफल रहे हैं। 1968 में जब इसको अमल में लाया गया था उस वक्त इस तरह के हथियारों में कमी के साथ परमाणु ऊर्जा का उपयोग मानव कल्याण के लिए करने की बात कही गई थी। उस वक्त यह माना गया कि जिसने अब तक परमाणु परीक्षण किए हैं या जिनके पास परमाणु हथियार हैं सिर्फ वही उन्हें ही परमाणु हथियार संपन्न देश का दर्जा दिया जाएगा।
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मानव कल्याण के लिए परमाणु ऊर्जा का उपयोग
उस वक्त अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन ही इस दायरे में आने वाले देशों में शामिल थे। लेकिन इसका सबसे बड़ा प्रभाव संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में दिखाई दिया जिसमें केवल इन्हीं देशों को इसका स्थायी सदस्य बना दिया गया। धीरे-धीरे इस संधि का प्रचार-प्रसार हुआ और मौजूदा समय में करीब 191 देशों ने एनपीटी पर हस्ताक्षर किए हुए हैं। एनपीटी की हर पांच साल बाद बैठक होती है और इसमें सभी प्रावधानों पर विचार किया जाता है।
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चीन और फ़्रांस ने इस संधि पर 1992 के बाद हस्ताक्षर किए थे। इस संधि की एक खास बात यह भी है कि इससे जुड़े देश इस बात से बंधे हुए है कि यह 'ग़ैर-परमाणु' देशों को न तो यह हथियार देंगे और न ही इन्हें हासिल करने में उनकी मदद करेंगे। वहीं इस पर हस्ताक्षर करने वाले देशों को इस बात पर सहमति जाहिर करनी होती है कि वे न तो इस तरह के हथियार विकसित करेंगे और न ही उन्हें प्राप्त करने की कोशिश करेंगे। हांलाकि उन्हें परमाणु ऊर्जा को शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए विकसित करने की छूट है। लेकिन यह सब वियना स्थित अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के निरीक्षकों की देखरेख में होता है।
संधि की उपलब्धियां
इस संधि की कुछ उपलब्धियों में दक्षिण अफ्रीका समेत लेटिन अमेरिका परमाणु हथियार से संबद्ध सभी गतिविधयों का त्याग देना भी शामिल है। दरअसल, दक्षिण अफ्रीका ने 1980 के दशक में गुप्त रूप से हथियार बनाए लेकिन 1991 में उसने उन्हें नष्ट कर दिया और वह एनपीटी का सदस्य बन गया। लेकिन इराक और उत्तर कोरिया इसके अपवाद भी हैं। इराक ने इस संधि पर हस्ताक्षर किए थे लेकिन अपने सभी परमाणु ठिकानों की जानकारी नहीं दी थी। इराक ने निरीक्षकों को एक सीमित दायरे में रहकर उन्हीं जगहों की जांच की छूट दी थी जिसका खुलासा उसने इस संधि में किया था। लेकिन इराक़ की स्थिति सामने आने के बाद इसके अधिकार बढ़ा दिए गए और इन नए अधिकारों की वजह से ही 1993 में उत्तर कोरिया के साथ यह संकट पैदा हुआ। उत्तरी कोरिया ने पहले इस संधि पर हस्ताक्षर किये, फिर इसका उलंघन किया और 2003 में इससे अलग भी हो गया।
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