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ओबीसी साहित्य का सवाल: इस विषय पर आत्मचिंतन की जरूरत

ओबीसी नेतृत्व हो सकता है, ओबीसी सरकारें हो सकती हैं तो ओबीसी साहित्य क्यों नहीं हो सकता?

By Lalit RaiEdited By: Updated: Sun, 19 Nov 2017 01:13 PM (IST)
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ओबीसी साहित्य का सवाल: इस विषय पर आत्मचिंतन की जरूरत

ओबीसी साहित्य’ का नाम मैंने पहली बार चार साल पहले महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा में सुना था। तब मैं वहां अतिथि लेखक था। उन्हीं दिनों एक ओबीसी शिक्षक के मुंह से, जो अपने को प्रभाष जोशी के शब्दों में फन्ने खां समझते थे, ओबीसी साहित्य का नाम सुना। वह हिंदी पढ़ाते थे। उनका बहुत मासूम-सा सवाल था-जब दलित साहित्य हो सकता है, तब ओबीसी साहित्य क्यों नहीं हो सकता? मैंने सोचा वह मजाक कर रहे हैं, पर वह गंभीर थे।मुझे क्या पता था कि वह भविष्यवाणी कर रहे हैं। उनकी बात सही निकली। पिछले साल अप्रैल में भोपाल में ओबीसी साहित्य सम्मेलन हुआ। कुछ अन्य गोष्ठियों में भी ओबीसी साहित्य का मुद्दा उठाया गया है। मुझे कतई उम्मीद नहीं थी कि ओबीसी साहित्य का जुमला चल निकलेगा, क्योंकि किसी भी दृष्टि से यह व्यावहारिक प्रतीत नहीं होता था। साहित्य की कोई अलग श्रेणी निरूपित करने के लिए कुछ कॉमन लक्षण होने चाहिए या उसकी कोई खास पहचान होनी चाहिए। ओबीसी साहित्य में इसकी जरा-सी भी संभावना नहीं है, लेकिन मेरा अनुमान गलत निकला। ओबीसी साहित्य नाम की कोई साहित्य श्रेणी स्थापित भले ही न हुई हो, पर यह नाम तो चल ही निकला है। संभव है, जल्द ही कोई ओबीसी लेखक संघ नाम का संगठन सामने आए या क्या पता बन चुका हो, पर हमें उसकी सूचना न हो।

दरअसल, भारतीय समाज में ओबीसी समुदाय का एक विचित्र स्थान है। वह न इधर का है न उधर का। वह इतना दीन-हीन भी नहीं है कि दलित साहित्य के समानांतर ओबीसी साहित्य रच सके। न वह विद्या-बुद्धि से इतना संपन्न है कि जिसे ब्राम्हण या अभिजनवादी साहित्य कहा जाता है, उसके मुकाबले, एक समूह के रूप में, खड़ा हो सके। ओबीसी को तो यह भी पता नहीं था कि वह ओबीसी है। यह मंडल का कमाल था कि इस नाम से एक पूरी बिरादरी उठ खड़ी हुई। वैसे मंडल के पहले से ही ओबीसी जातियां कर्नाटक, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, बिहार आदि में आर्थिक और राजनीतिक तौर पर उभरने लगी थीं। इसका मुख्य कारण था सवर्ण राजनीति की संपूर्ण विफलता। आजादी के बाद बाभन-ठाकुरों ने ही राज किया, लेकिन वे संपूर्ण समाज को अपने साथ ले कर नहीं चल सके। कुशासन और भ्रष्टाचार का अंबार खड़ा करने में भी उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। इसका कोई न कोई विकल्प उभरना ही था। यह विकल्प ओबीसी समुदाय से ही आ सकता था और आया भी। मंडल की मान्यता ने उसे और मजबूती दी। कहा जा सकता है कि इमरजेंसी के बाद जनता पार्टी का जो राष्ट्रीय प्रयोग था, वह ऐसा ही एक समन्वय था, जिसमें अगड़ी जातियों ने भी हिस्सा लिया। जनता पार्टी का विघटन सिर्फ कुछ नेताओं की क्रूर महत्वाकांक्षा का नतीजा नहीं था, उसके पीछे वर्ग और जाति स्वार्थ भी थे। यह यों ही नहीं था कि मोरारजी देसाई के बाद उत्तर प्रदेश के जाटों के नेता चरण सिंह प्रधानमंत्री बने। जाट आज आरक्षण के सब से बड़े दावेदार हैं।

ओबीसी नेतृत्व हो सकता है, ओबीसी सरकारें हो सकती हैं, तो ओबीसी साहित्य क्यों नहीं हो सकता? इस सवाल का संबंध साहित्य के यथार्थ से नहीं, जातियों के मनोविज्ञान से है। दलितों की तरह ही ओबीसी जातियों को भी समाज में सम्मान और प्रतिष्ठा नहीं थी। कह सकते हैं कि उनकी स्थिति दलितों से थोड़ी ही बेहतर थी। मुख्य फर्क यह था कि वे अछूत नहीं थीं, जब कि दलितों को अछूत माना जाता था। शास्त्रीय शब्दावली में ओबीसी को शूद्र माना गया है। जातियों को चार वर्गो में विभाजित किया गया था-ब्राrाण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। दलितों के लिए जाति व्यवस्था में कोई जगह नहीं थी। इसीलिए उन्हें पंचम वर्ण का दरजा दिया गया। शूद्र चौथे वर्ण में आते थे यानी वर्ण व्यवस्था में सब से नीचे। वास्तव में ये लोग कृषक तथा सोनार, लोहार, धोबी, राज मिस्त्री, गाड़ीवान आदि विभिन्न पेशों के लोग थे। उच्च वर्णो के षड्यंत्र के तहत, दलितों की तरह, इन्हें भी शिक्षा और शास्त्र से वंचित रखा गया। इसलिए इस समुदाय में उस ‘उच्च’ संस्कृति का विकास नहीं हो सका, जो द्विजों में हुआ। इस वजह से इस समुदाय में एक प्रकार की आत्महीनता भी विकसित हुई।

अब प्रश्न यह है कि आर्थिक तथा राजनीतिक क्षमता प्राप्त कर लेने के बाद अपने को सांस्कृतिक स्तर पर कैसे स्थापित किया जाए? आर्थिक और राजनीतिक क्षमता पा लेना आसान है, पर संस्कृति कहां से लाएं? ओबीसी जातियां चाहतीं तो एक भिन्न समाजवादी संस्कृति का विकास कर सकती थीं। यही उनके लिए उचित था और स्वाभाविक भी। डॉ. राममनोहर लोहिया का नेतृत्व विशेष रूप से पिछड़ी जातियों ने स्वीकार किया। जब तक वे जीवित रहे, पिछड़ी जातियों में सामाजिक-सांस्कृतिक नवोन्मेष दिखाई देता था। वे एक नई राजनीतिक संस्कृति की ओर बढ़ रहे थे, लेकिन लोहिया के चले जाने के बाद अचानक इस धारा में ठहराव आ गया। पहले ठहराव आया, फिर पतन का दौर शुरू हुआ। यह दौर कब तक जारी रहेगा, पता नहीं, लेकिन सभी समुदायों की तरह इस समुदाय में भी लेखक और कवि हैं। उनमें से कुछ प्रतिभाशाली भी हैं। उनकी समस्या यह है कि दलित लेखकों का तो सम्मान होता है, भले ही प्रतिभा कुछ कम हो, पर ओबीसी लेखकों के लिए कोई अलग जगह नहीं है। वे उच्च वर्गो के समूह में भी नहीं जा सकते, क्योंकि राजनीतिक स्तर पर उनके साथ तनावपूर्ण रिश्ता है। दलित उन्हें स्वीकार नहीं करेंगे, क्योंकि ओबीसी राजनीति के साथ उनका तनावपूर्ण रिश्ता है। बीच बहस में यह तथ्य नदारद हुआ जा रहा है कि साहित्य का इस तरह वर्गीकरण नहीं हुआ करता।

साहित्य साहित्य होता है, फिर भी स्त्रीवादी साहित्य, ब्लैक साहित्य, दलित साहित्य आदि हैं, तो इसलिए कि वे साहित्य की मुख्य धारा से कुछ अलग और खास का प्रतिनिधित्व करते हैं। ओबीसी समुदाय के अपने दुख-सुख हैं, पर वे मुख्य धारा में ही व्यक्त होते आए हैं। अब यह नया खाता खोलने की जरूरत है क्या?

राजकिशोर
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं) 

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