पाकिस्तान की पुरानी नीति है 'जिंदा लौट आओ तो पाकिस्तान के, मर गए तो खुदा के'
पाक आतंकियों के शवों को लेने से इंकार करना वहां की सरकार की पुरानी नीति रही है। जिंदा लौट आओ तो पाकिस्तान के, मर गए तो खुदा के।
शीलेंद्र कुमार मिश्र
भारतीय सुरक्षा बलों का ऑपरेशन ऑल आउट, जम्मू-कश्मीर में अब प्रभावी असर दिखाने लगा है। जनवरी से 15 अगस्त 2017 तक लगभग 126 आतंकवादी मारे जा चुके हैं। इनमें कई तो पाकिस्तानी थे। मगर पाकिस्तान सरकार ने उनके शव लेने से इन्कार कर दिया, जबकि उनके परिजनों ने पाकिस्तानी नागरिक होने के पुख्ता सबूत भारत सरकार को दिए थे। यह पाकिस्तान की पुरानी नीति रही है कि जिंदा लौट आओ तो पाकिस्तान के, मर गए तो खुदा के। सुरक्षा बलों को अपने काम को अंजाम देने में जम्मू कश्मीर की आतंक पीड़ित जनता का भी अपूर्व सहयोग मिल रहा है।
सर्वविदित है कि अपराधियों की सही सुरागकशी तभी हो पाती है जबकि सुराग देने वाले को यह पूर्ण विश्वास होता है कि उसकी सटीक सूचना पर प्रभावी कार्रवाई की जाएगी न कि उनकी सही सूचना को राजनेताओं के दबाव में दबा दिया जाएगा। आश्चर्य तब होता जब भूतपूर्व मुख्यमंत्री भी पाकिस्तान की भाषा में बोलने लगते हैं। जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री कह रही हैं कि धारा 370 अथवा अनुच्छेद 35(ए) को खत्म या संशोधित किए जाने पर इस राज्य में भारत के झंडे को फहराने वाले लोग भी नहीं मिलेंगे। इस तरह के संघर्ष सिद्धांतों पर आधारित न होकर, अपने-अपने लाभ के लिए होता है। इसलिए उसका अंत भी दुर्दान्त होता है। जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद की आग पाकिस्तान ने लगाई है और उसे हवा दी वहां-यहां के नेताओं ने।
यही कारण है जिसकी वजह से कश्मीरी पंडितों को प्रताड़ित करके उन्हें पलायन करने को विवश कर दिया गया। अभी कुछ महीने पहले केंद्र सरकार द्वारा विस्थापित कश्मीरी पंडितों को लेकर जम्मू-कश्मीर में पुनर्वास के लिए एक योजना प्रस्तुत की गई थी तो पीडीपी की, पहले पिता, फिर बेटी की सरकार ने उसमें तमाम किन्तु-परन्तु लगा लगाकर, उसे अब तक लागू नहीं होने दिया है। मगर बड़ा सवाल है कि इस सरकार के सहयोगी दल भाजपा की ऐसी क्या मजबूरी है जो इन परिस्थितियों में भी पीडीपी का समर्थन किए जा रहे हैं। अब समय आ गया है जैसे भारतीय सुरक्षाबलाें द्वारा कदम उठाकर अबु कासिम बुरहान वानी, सज्जाद, जुनैद, सब्जार और अबु दुजाना तक, तमाम आतंकवादियों का अंत किया जा चुका है वैसे ही हिम्मत करके भारत सरकार भी हुर्रियत कांफ्रेंस के नेताओं और पत्थरबाजों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए ताकि कश्मीरयत वापस आ सके।
जम्मू-कश्मीर के इतिहास को यदि खंगाला जाए तो देखा जा सकता है कि वहां के तत्कालीन महाराजा हरि सिंह ने जम्मू-कश्मीर को भारत संघ में मिलाने का प्रस्ताव किया था। अब समय आ गया है कि जम्मू-कश्मीर का जो भाग पाकिस्तान ने अवैध रूप से कब्जा कर लिया है उसे पुन: भारत में मिलाया जाए। तभी कश्मीर के दिवंगत महाराजा हरि सिंह को सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकेगी। अभी हाल ही में नेशनल कांफ्रेंस के वरिष्ठ नेता फारूख अब्दुल्ला ने कहा था कि जम्मू कश्मीर के मसले को भारत और पाकिस्तान की सरकारों के बीच अन्य राष्ट्रों की मध्यस्थता से सुलझाया जाए। मगर जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री को कभी यह कहते नहीं सुना गया कि पाक अधिकृत कश्मीर में उनके कश्मीरी भाइयों को विशेष अथवा पाकिस्तान के अन्य नागरिकों के बराबर का दर्जा दिया जाए।
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ऐसे नेताओं को पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में रहने वाले लोगों की पीड़ा दिखाई नहीं देती है और न ही उन्हें अपने उन भारतीय भाइयों की पीड़ा दिखाई देती है जो कि पिछले लगभग 70 सालों से पाकिस्तान में मुहाजिरों यानी शरणार्थियों की जिंदगी जी रहे हैं और जिन्हें कि आज भी पाकिस्तान में दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता है। इसी वजह से उन्हें पाकिस्तान सरकार में महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्ति नहीं किया जाता है, जबकि जम्मू-कश्मीर के तमाम नागरिक भारत सरकार की उच्च सेवाओं जैसे कि भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय सेना सेवा, मेडिकल व इंजीनियरिंग आदि में उच्च पदस्थ हैं। ऐसे राजनेताओं को तो केवल केंद्र और राज्य की लोकतांत्रिक सरकार में कमी दिखती है। राज्य और संघ के रिश्तों में दरार डालने वाले ऐसे लोगों के खिलाफ क्या कोई वैधानिक कार्यवाही नहीं की जा सकती है? इस पर विचार किया जाना चाहिए।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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