प्रदूषण पर नियंत्रण पाने के लिए करने होंगे ठोस उपाय
दिल्ली विश्व के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में शामिल हो चुकी है। यहां की हवा में शामिल जहरीले तत्व हमारी सेहत के लिए जानलेवा साबित हो रहे हैं।
नई दिल्लीे (स्पेशल डेस्क) पिछले साल दिल्ली स्मॉग चैंबर बनी तो तमाम बातें हुईं, योजनाएं बनीं, बैठकों का दौर चला मगर हम चेते नहीं। लिहाजा फिर हालात वही बन गए हैं। दिल्ली विश्व के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में शामिल हो चुकी है। यहां की हवा में शामिल जहरीले तत्व हमारी सेहत के लिए जानलेवा साबित हो रहे हैं। लेकिन अगर जनता और सरकारों का यही रवैया रहा तो आने वाले वक्त में यही स्थिति देश के अन्य हिस्सों की भी होने वाली है।कभी-कभी मुझे लगता है कि प्रदूषण से जंग में हम हार रहे हैं। मुझे याद है पिछली सदी के आखिरी दशक के मध्य में जब हमने स्वच्छ हवा के लिए काम करना शुरू किया था तब लोगों को यह भी नहीं पता था कि वाय प्रदूषण हमारे शरीर को किस तरह और किस हद तक प्रभावित करता है।
जब हमने यह मुद्दा उठाया कि डीजल के धुएं में मौजूद प्रदूषक तत्व कैंसर कारक भी हो सकते हैं तो एक बड़े ऑटोमोबाइल निर्माता ने हम पर सौ करोड़ की मानहानि का दावा ठोंक दिया था। हालांकि कोर्ट और सरकार ने कड़ा निर्णय लेते हुए प्रदूषण की जांच कराई और सारा सच सामने आ गया। आज ऐसा लगता है कि हम फिर उसी दौर में लौट रहे हैं जहां से शुरू किया था। वायु प्रदूषण तेजी से बढ़ रहा है जबकि सरकारें इसकी गंभीरता को नकारने में लगी हैं।
इसके समाधान के लिए फौरी कदमों की बात करें तो आज सर्वाधिक प्रदूषण फैलाने वाला ईंधन कर से मुक्त है। जबकि स्वच्छ ईंधन पर भारी कर लगाया गया है। वस्तु एवं सेवा कर अधिनियम (जीएसटी) के तहत प्रदूषण फैलाने वाले और जहरीला फर्नेस तेल इस्तेमाल करने वाले उद्योगों को पूर्ण रिफंड दिया जाता है। लेकिन प्राकृतिक गैस को जीएसटी से बाहर रखा गया है। रिफंड भी संभव नहीं है। मतलब, अगर उद्यमी साफ हवा में अपना योगदान देना भी चाहे तो नहीं दे सकता। हम दुनिया में सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले ईंधन पेटकॉक (पेट्रोलियम इंडस्ट्री का सह उत्पाद है, जिसमें हेवी मेटल्स के उत्सर्जन और सल्फर की अत्यधिक मात्रा होती है) का अमेरिका से आयात कर रहे हैं। अमेरिका में यह प्रतिबंधित है, लेकिन हमें कोई समस्या नहीं है। चीन ने भी इसका आयात बंद कर दिया है। लेकिन हमने ओपन जनरल लाइसेंस के तहत इसकी इजाजत दे रखी है।
तीन साल पहले हमने इसका 60 लाख टन आयात किया था। पिछले साल मार्च के अंत तक हमने इसमें बड़ी वृद्धि करते हुए 140 लाख टन का आयात किया। यह हमारे घरेलू उत्पादन के बराबर है जो करीब 120-140 लाख टन है। इसके इस्तेमाल पर रोक लगाने के लिए कोई कदम नहीं उठाए गए हैं और न ही इसके इस्तेमाल के मानक तय किए गए हैं। इसके बाद दीर्घकालिक एजेंडा आता है। प्रदूषण में ऑटोमोबाइल का सबसे ज्यादा योगदान है। मौजूदा समय में प्रयास हो रहे हैं कि पहले उत्सर्जन मानकों और हवा की गुणवत्ता में सुधार किया जाए, फिर वाहनों पर सख्ती बरती जाए। लेकिन यह काफी नहीं है। भले ही हम हर वाहन से उत्सर्जन कम कर दें मगर सड़क पर वाहन बढ़ते जाएंगे तो सारा प्रभाव बेकार चला जाएगा। इससे बचने का एकमात्र उपाय सार्वजनिक यातायात में बड़े पैमाने पर सुधार है। लेकिन पिछले कई सालों से दिल्ली में एक भी बस नहीं बढ़ाई गई है।
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में इंटर सिटी पब्लिक ट्रांसपोर्ट नहीं है। मैं जरूरी मगर लागू करने में मुश्किल श्रेणी में सड़क और निर्माण कार्यों की धूल तथा कूड़ा जलाने को भी शामिल करूंगी। मशीनी सफाई कर्मियों के पास उस स्थिति में कोई जवाब नहीं होगा जब हर क्षण सड़क की खोदाई या सड़क ही नहीं होगी। सरकारों को अपना काम एक साथ करना होगा। ठंड के महीनों में ही नहीं बल्कि पहले और हर समय समस्या के निदान के लिए काम करना होगा। कूड़ा जलाने के साथ भी यही है। हम अधिक चौकसी से आग लगाने की घटनाओं को नियंत्रित कर सकते हैं। पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश सहित अन्य राज्यों में पराली जलाने की जो समस्या है, उसका भी समाधान मुमकिन है। इसके बाद किसानों के पास पुआल के उपयोग का विकल्प भी उपलब्ध हो जाएगा। फिर से कहना चाहूंगी कि छाती पीटने से कुछ हासिल नहीं होगा। कार्रवाई की जरूरत है। मुश्किल समस्याओं के समाधान के लिए उपाय भी मुश्किल भरे ही होते हैं।
(संजीव गुप्ता से बातचीत पर आधारित)
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