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दिल्‍ली समेत कई राज्‍यों में प्रदुषित पानी की समस्‍या लेकिन जानें कैसे इन देशों ने पाया पार

जापान और कंबोडिया समेत कुछ अन्‍य देशों ने गंदे पानी को दोबारा इस्‍तेमाल करने लायक बनाने का सफल प्रयोग किया है। हम भी इससे सीख सकते हैं।

By Kamal VermaEdited By: Updated: Sun, 24 Nov 2019 12:14 PM (IST)
दिल्‍ली समेत कई राज्‍यों में प्रदुषित पानी की समस्‍या लेकिन जानें कैसे इन देशों ने पाया पार
नई दिल्‍ली जागरण स्‍पेशल। पानी की महत्ता उस प्यासे गले से पूछिए जिसे इसकी एक बूंद अमृत सरीखी लगती है। कोई भी तरल अगर इसका विकल्प नहीं बन सका है तो यही इस प्राकृतिक संसाधन के अनमोलपने को बताने के लिए काफी है। एक तो हम धरती को बेपानी करते जा रहे हैं। दूसरे जो कुछ पानी धरती के जल स्नोतों और भूगर्भ में शेष बचा है, उन्हें प्रदूषित, शोषित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे हैं। शायद हम अपनी भावी पीढ़ियों के सुखमय जीवन के प्रति कतई बेपरवाह हैं। तभी तो पेयजल की हाहाकारी किल्लत, और प्रदूषण की भयावह स्थिति को बताने वाले तमाम शोधों के निष्कर्ष हमें डरा नहीं पाते हैं। खैर, चैन से जीना है तो अब डर जाइए। भविष्य की चिंता छोड़िए, अपनी खैर मनाइए। आप जो पानी शहरों में पी रहे हैं, वह किसी धीमे जहर से कम नहीं है। हाल ही में भारत के करीब दो दर्जन शहरों में आपूर्ति किए जाने वाले पेयजल की गुणवत्ता पर भारतीय मानक ब्यूरो ने एक रिपोर्ट जारी की है। इन राज्यों में नल के पानी से लिए गए नमूनों का दस मानकों पर परीक्षण किया गया।

हैरानी की बात

आप हैरान होंगे कि सिर्फ मुंबई को छोड़कर बाकी किसी भी शहर का पानी सभी मानकों पर खरा नहीं उतर पाया। दिल्ली का पानी तो सभी दस मानकों पर विफल साबित रहा। अब सोचिए, आजादी के सात दशक बाद भी अगर हमें साफ पानी पीने को मयस्सर नहीं है तो गलती किसकी है? सरकारों पर दोषारोपण करने से पहले अपने गिरेबां में भी हमें झांकना होगा। देश की करीब साठ फीसद आबादी ग्रामीण है। वहां जलापूर्ति की व्यवस्था नहीं है, लेकिन भूगर्भ से जो पेयजल वे निकाल रहे हैं, वह भी प्रदूषकों से विषाक्त हो चला है। जैसा बोएंगे वैसा ही काटेंगे। प्रकृति का बहुत स्पष्ट फलसफा है। ताली दोनों हाथों के मिलने पर ही बजेगी। तभी संभव होगी एक बूंद जिंदगी की।

टॉयलेट टू टैप

पिछले कई वर्षों से अमेरिकी राज्य कैलिफोर्निया सूखे की चपेट में है। इससे निजात पाने के लिए स्थानीय निकाय ने टॉयलेट टू टैप नाम से वेस्ट वॉटर मैनेजमेंट की एक परियोजना शुरू की। परियोजना के तहत लोगों के घरों से निकलने वाले दूषित जल का सौ फीसद शोधन होता है। तीन प्रक्रियाओं के जरिए दूषित जल को पीने लायक पानी में बदला जाता है। यह संयंत्र सीवेज से रोजाना 37 करोड़ लीटर शुद्ध जल बना रहा है। यह पानी शुद्धता के अंतरराष्ट्रीय मानकों पर खरा उतरता है।

नदी में फूंक दी जान

दक्षिण भारतीय राज्य केरल में एक नदी है कोटम्परूर। एक दशक पहले जो नदी 12 किमी लंबी और सौ मीटर चौड़ी हुआ करती थी वह प्रदूषण और रेत खनन माफिया के चलते अब खत्म होने की कगार पर थी। नदी को सुधारने के लिए ग्राम पंचायत ने पहल की। मनरेगा योजना के तहत 700 लोगों ने 70 दिन लगातार काम किया। लोगों ने नदी में जमा प्लास्टिक और कूड़ा-कचरा गहराई में जाकर निकाला। नदी की धार अवरुद्ध कर रहे शैवाल और पेड़ पौधे निकाले गए और यह नदी अपने पुराने स्वरूप में लौट आई

जापान का प्रयोग

टॉयलेट फ्लश करने में पानी की सबसे अधिक बर्बादी होती है। फ्लश टैंक के आकार के आधार पर प्रत्येक फ्लश के साथ पांच से सात लीटर पानी बर्बाद होता है। इसे रोकने के लिए जापान ने एक नवोन्मेषी तरीका अपनाया। वहां की एक कंपनी ने शौचालय के फ्लश टैंक के ऊपर ही हाथ धोने के लिए वॉश बेसिन लगवा दिए। इससे हाथ धोने के बाद ये पानी फ्लश टैंक में चला जाता है और टॉयलेट फ्लश करने के लिए इस्तेमाल होता।

कंबोडिया का कमाल

कंबोडिया की राजधानी नॉम पेन्ह एक ऐसा शहर है जो तकनीक और विशेषज्ञता के मामले में भारत के दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों से काफी पीछे है। वर्ष 1993 तक नॉम पेन्ह की जल आपूर्ति भारत के किसी भी बड़े शहर की तुलना में बदतर थी। कुशल प्रबंधन और मजबूत राजनीतिक सहयोग के दम पर 2003 तक इस शहर ने लोगों को 24 घंटे ऐसे पानी की आपूर्ति सुनिश्चित की जिसे बिना किसी चिंता के सीधा नल से ग्रहण किया जा सकता था। नॉम पेन्ह वाटर सप्लाई अथॉरिटी जो कि एक सरकारी कंपनी है, 2003 से लाभ में है। सभी को पानी की आपूर्ति के बदले भुगतान करना होता है। केवल गरीबों को इस पर छूट उपलब्ध कराई गई। यदि इस कंपनी का प्रदर्शन देखा जाए तो यह लंदन और लॉस एंजिलिस जैसे शहरों की जल आपूर्ति से बेहतर है। ऐसे में भारत के राजनेताओं और विशेषज्ञों को खुद से एक सवाल पूछना चाहिए कि यदि नॉम पेन्ह जैसा छोटा शहर इस समस्या का कुशलतापूर्वक समाधान निकाल सकता है तो दिल्ली, मुंबई और चेन्नई जैसे शहर 24 घंटे स्वच्छ जल आपूर्ति क्यों नहीं उपलब्ध करा सकते? दरअसल दृढ़ इच्छाशक्ति के अभाव में यह मसला कभी प्राथमिकता में ही नहीं आ पाया।

दिल्ली की परेशानी 

  • दिल्ली जलबोर्ड का दावा है कि सोनिया विहार सबसे अच्छे जल शोधन संयंत्रों में से एक है। आइए जानते हैं कि गंगा से आने वाला पानी दिल्ली के घरों में पहुंचने तक किन-किन शोधन चरणों से गुजरता है।
  • मुरादनगर से गंगा का पानी संयंत्र तक पहुंचता है।
  • कैस्केड एयरेटर प्रक्रिया द्वारा पानी को गंधहीन बनाया जाता है।
  • ऑक्सीजन स्तर बढ़ाया जाता है।
  • ऑक्सीकरण द्वारा बैक्टीरिया को कम किया जाता है। 
  • क्लोरीन मिलाकर पानी को मथा जाता है।
  • पॉली एल्युमिनियम क्लोराइड मिलाकर पानी को सेडीमेंटेशन टैंकों में भेज दिया जाता है। 
  • गुरुत्व बल के कारण अशुद्धियां सेडीमेंटेशन टैंक की तली में बैठ जाती है। 
  • फिल्ट्रेशन टैंक के सैंड बेड फिल्टर चैंबर से पानी को गुजारा जाता है।
  • क्लोरीनेशन के बाद पानी को पंपिंग केंद्रों तक पहुंचाया जाता है।
ऐसे हुआ बदलाव

  • 2012-13 में जलजनित बीमारियों के प्रकोप के बाद बीएमसी ने जल आपूर्ति तंत्र के बदलने का निश्चय किया।
  • सतह की जलापूर्ति स्टील की पाइपलाइनों से होती थी। इसे भूमिगत कंक्रीट वाटर टनल में बदल दिया गया। आज ऐसी 14 टनल शहर में जलापूर्ति कर रही हैं।
  • सीवेज लाइन के साथ-साथ जा रही वाटर पाइपलाइनों को एक छह या नौ इंच की पाइपलाइन से बदला गया।
  • नेशनल एनवायरमेंटल इंजीनिर्यंरग रिसर्च इंस्टीट्यूट (नीरी) की मदद से जल जांचने वाली प्रयोगशालाओं को आधुनिक किया गया।
  • मेम्ब्रेन फिल्टर तकनीक अपनाई गई जो 24 घंटे में ही सटीक रीडिंग देती है।
  • नमूनों की जांच जल आपूर्ति विभाग की जगह स्वास्थ्य विभाग देने लगा। वही प्रमाणित करता है कि यह पानी इंसानों के पीने योग्य है या नहीं।
  • जलापूर्ति के हर केंद्र से नमूने लिए जाने शुरू हुए।
  • दूषित पानी की शिकायत पर कदम उठाए जाने के समय में काफी कमी की गई। शिकायत मिलने पर तुरंत नमूने लिए जाते हैं। क्षेत्र की जलापूति रोक दी जाती है। टैंकर तैनात कर दिए जाते हैं। उस पूरे इलाके के आपूर्ति तंत्र का पानी निकाला जाता है। फिर से आपूर्ति शुरू की जाती है और नमूने लिए जाते हैं। सही पाए जाने पर ही आपूर्ति शुरू की जाती है।
मुंबई की कहानी

भारतीय मानक ब्यूरो की जांच में मुंबई के घरों में आपूर्ति हो रहे पानी के सभी नमूने सारे मानकों पर खरे साबित हुए। आर्थिक राजधानी ने यह उपलब्धि ऐसे नहीं हासिल की। कभी यहां एक लाख मामले गंभीर डायरिया के हुआ करते थे। बीएमसी (बृहनमुंबई म्युनिसिपल कारपोरेशन) के अनुसार 2018-19 के दौरान रोजाना जांचे जा रहे नमूनों में सिर्फ 0.7 फीसद में ही कोलीफॉर्म बैक्टीरिया के प्रति पॉजिटिव पाए गए। विश्व स्वास्थ्य संगठन का इसके लिए मानक 5 फीसद नमूने हैं।

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