पाकिस्तान, चीन समेत ये देश दे सकते हैं तालिबान सरकार को मान्यता, जानें- क्या हैं इसके मायने
पाकिस्तान और तालिबान के संबंध बेहद पुराने हैं। वहीं 90 के दशक में तालिबान सरकार को मान्यता देने में सबसे आगे पाकिस्तान ही था इसके अलावा सऊदी अरब और यूएई ने भी इस सरकार को मान्यता दी थी।
By Kamal VermaEdited By: Updated: Wed, 18 Aug 2021 09:19 AM (IST)
नई दिल्ली (जेएनएन)। तालिबान के अफगानिस्तान पर कब्जे के बाद भले ही कई देश उन्हें मान्यता देने से इनकार कर रहे हों, लेकिन, दूसरी तरफ कुछ देश ऐसे भी हैं जो तालिबान की सत्ता को न सिर्फ मान्यता देने का इरादा रखते हैं बल्कि इन देशों की तालिबान को स्थापित करने में एक अहम भूमिका भी रही है। तालिबान को मान्यता देने का सीधा अर्थ ये भी है कि वो देश तालिबान के साथ कूटनीतिक, व्यापारिक रिश्ते भी रख सकेंगे।
अफगानिस्तान में पहले भी सरकार बना चुका है तालिबानआगे बढ़ने से पहले आपको ये बता दें तालिबान दूसरी बार अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज हुआ है। पहली बार अफगानिस्तान में तालिबान 1990 के बाद आया था और इसके करीब छह वर्ष (1996-2001) बाद तालिबान अफगानिस्तान के कंधार समेत काफी हिस्से में आ गया था। कुल मिलाकर इस देश के अधिकतर हिस्से में इसका ही शासन था। उस वक्त केवल तीन इस्लामिक देशों ने ही इस सरकार को मान्यता दी थी, जिनमें सबसे पहले पाकिस्तान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात शामिल था। आपको जानकर हैरानी हो सकती है कि ये सभी देश सुन्नी बहुल हैं और अफगानिस्तान भी सुन्नी बहुल ही है।
इस बार कौन देगा साथ तालिबान के दूसरी बार सत्ता में आने पर ये सवाल उठ रहा है कि आखिर कौन कौन से देश इस बार तालिबान को अपना समर्थन देने वाले हैं। इसको दूसरी भाषा में समझा जाए तो कौन-कौन से देश तालिबान की सत्ता को स्वीकृत करेंगे। आपको ताज्जुब होगा कि इस बार पिछली बार के मुकाबले तालिबान को अधिक देशों की स्वीकृति मिल सकती है।
पाकिस्तान मान्यता देने में होगा सबसे आगे
इसमें वो देश तो शामिल हैं ही जिन्होंने पिछली बार उन्हें मान्यता दी थी (पाकिस्तान, सऊदी अरब, यूएई) लेकिन इस बार इसमें कुछ और नाम भी जुड़ने की पूरी उम्मीद है। ये तीनों देश हमेशा से ही तालिबान के बड़े समर्थक रहे हैं। तालिबान की फंडिंग में जहां इन देशों का पूरा हाथ रहा है वहीं पाकिस्तान में तालिबान के आतंकियों को आईएसआई की निगरानी में ट्रेनिंग भी दी जाती है। वहीं पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने अपने बयान में कहा है कि तालिबान ने काबुल पर कब्जा कर वर्षों पुरानी गुलामी की जंजीरें तोड़ दी हैं।
सऊदी अरब और यूएई का रुख सऊदी अरब और यूएई का रुख इस बार अब तक साफतौर पर सामने नहीं आया है। माना जा रहा है कि अमेरिका से नजदीकी की वजह से ऐसा हो रहा है। यदि ये सच्चाई है तो ये मुमकिन हो सकता है कि ये दोनों देश इस बार पर्दे के पीछे रहकर ही तालिबान की सरकार के साथ रहें। वहीं चीन, रूस और तुर्की की बात की जाए तो ये तीनों ही देश तालिबान के संपर्क में हैं। चीन और रूस ने हाल ही में तालिबान के साथ वार्ता भी की है। तुर्की राष्ट्रपति ने भी साथ कर दिया है कि वो कुछ दिनों में तालिबान के साथ बैठक करने वाले हैं।
कतर के मान्यता देने के पूरे आसार इसके अलावा कतर, जहां पर तालिबान ने अपना राजनीतिक कार्यालय खोला हुआ है, वो भी इस बार इसकी सरकार को मान्यता दे सकता है। इसकी पूरी संभावना है। आपको बता दें कि कतर ही तालिबान और विभिन्न पक्षों के बीच हो रही बातचीत में मध्यस्थ की भूमिका निभा रहा है।