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प्राण बच गए, लेकिन जीवन खतरे में..

गौरीकुंड से डेढ़ किमी ऊपर बसे गौरी गांव के 11 परिवारों ने गांव छोड़ देने से इसलिए साफ इनकार कर दिया है कि वह अपने मवेशियों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं।

By Edited By: Updated: Sun, 30 Jun 2013 10:23 AM (IST)

देहरादून [दिनेश कुकरेती], गौरीकुंड से डेढ़ किमी ऊपर बसे गौरी गांव के 11 परिवारों ने गांव छोड़ देने से इसलिए साफ इनकार कर दिया है कि वह अपने मवेशियों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं।

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80 परिवारों वाले इस गांव के 69 परिवार घर-बार छोड़कर नाते-रिश्तेदारों के यहां आसरा लिए हुए हैं। लेकिन, इन 11 परिवारों ने दो टूक कह दिया है कि मवेशी उनके जीवन का आधार हैं। जियेंगे तो इनके साथ और मरेंगे भी तो.।

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सच भी है, प्राण तो ऑक्सीजन सिलेंडर पर बचे रहे सकते हैं, लेकिन जीवन नहीं। गौरीकुंड निवासी राजेंद्र गोस्वामी व सुरेंद्र गोस्वामी की जुबानी कहें तो 'सरकार के लिए भले ही जानवरों की कोई अहमियत न हो, लेकिन गांव वालों की रोजी-रोजी तो इन्हीं के भरोसे चलती है। वह जीवन की डोर अपने हाथों ही क्यों काटेंगे।' केदारघाटी समेत चारों धाम में मची तबाही से आहत 'सरकार' अब राहत कार्यो में तेजी लाने को चिंतित दिखाई दे रही है।

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हालांकि, उसे राजधानी की सुभाष रोड में बैठे-बैठे संतोष है कि हजारों यात्री वहां से सुरक्षित बाहर निकाल लिए गए। पर शायद उसे उन हजारों लोगों का ध्यान नहीं, जो इस यात्र का आधार हैं। इनके बिना यात्रा की पूर्णता की कल्पना तक नहीं की जा सकती। हालात को देखकर कम से कम मैंने तो यह धारणा बना ली है कि अपनी सरकार को प्राण और जीवन के बीच का फर्क मालूम ही नहीं।

प्राण बचाने का मतलब जीवन देना कतई नहीं हो सकता। जीवन, प्राण की तरह हवा नहीं। वह तो हमारे आसपास के परिवेश में पलता है। उसे बचाए रखने को निरीह पशु भी चाहिए और निर्जीव हल भी। खेत-खलियान इसके महत्वपूर्ण अंग हैं ही। सच कहें तो रुद्रप्रयाग जिले के एक बड़े भूभाग में जीवन बचा ही नहीं।

तबाही के 13 दिन बाद भी इस जीवन की सरकार को परवाह नहीं। तभी तो अब तक यह मालूम नहीं कि पूरी तरह अथवा आंशिक रूप से प्रभावित बताए जा रहे 172 (जो वास्तव में इससे अधिक हैं) इन गांवों की कितने खेत बह गए, कितने मवेशी थे। इस बारे में इन 13 दिनों में किसी भी जिम्मेदार के मुंह से एक शब्द तक नहीं फूटा।

गढ़वाल केंद्रीय विवि में राजनीति विज्ञान के प्राध्यापक धारगांव-फाटा निवासी डा.मदनमोहन सेमवाल कहते हैं कि सरकार आपदा प्रभावितों को कुछ दिन ब्रेड-बिस्कुट बांटेगी। तन ढकने के लिए कुछ कपड़े और एकाध कंबल भी मिल जाएगी। लेकिन, यह तो सिर्फ कुछ दिन प्राण बचाने के साधन हैं, जीवन नहीं। वह कहते हैं देहरादून में बैठकर जीवन के सपने तो संजोये जा सकते हैं, उसे बचाया नहीं जा सकता।

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