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चलता रहेगा चुनावी चंदे का पुराना खेल

राजनीतिक दलों के चंदे के मामले में इस बार का चुनाव भी पिछले चुनाव से अलग नहीं रहेगा। चुनाव से पहले इस मुद्दे पर चुनाव आयोग से लेकर राजनीतिक दलों, उद्योग जगत व गैर सरकारी संगठनों की तरफ से खूब आवाज उठाई गई, समितियां बनीं और सुझाव मांगे गए, लेकिन नतीजा वही ठाक के तीन पात। न तो चुनाव आयोग ने सख्ती दिखाई, और

By Edited By: Updated: Sun, 09 Mar 2014 08:40 AM (IST)
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[जयप्रकाश रंजन], नई दिल्ली। राजनीतिक दलों के चंदे के मामले में इस बार का चुनाव भी पिछले चुनाव से अलग नहीं रहेगा। चुनाव से पहले इस मुद्दे पर चुनाव आयोग से लेकर राजनीतिक दलों, उद्योग जगत व गैर सरकारी संगठनों की तरफ से खूब आवाज उठाई गई, समितियां बनीं और सुझाव मांगे गए, लेकिन नतीजा वही ठाक के तीन पात। न तो चुनाव आयोग ने सख्ती दिखाई, और न ही राजनीतिक दलों ने अपना रवैया सुधारा। यही वजह रही कि राजनीतिक दलों को बड़े पैमाने पर चंदा देने वाले इंडिया इंक ने भी चुप रहने में ही भलाई समझी।

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दिखावे की सख्ती:

दो साल पहले राजनीतिक दलों को चंदे को लेकर नए दिशानिर्देश बनने के बाद ऐसा लगा था कि इस बार चुनाव आयोग कुछ बड़े बदलाव करेगा। मौजूदा नियम के मुताबिक, हर पार्टी को 20 हजार से ज्यादा के चंदे के बारे में सूचना आयोग को देनी होती है। इसे बदलते हुए किसी भी राशि के चंदे को सिर्फ चेक से स्वीकार करने की बाध्यता लागू करने पर विचार हुआ, लेकिन आयोग ने इसे लागू करने को लेकर गंभीरता नहीं दिखाई।

आंकड़े बताते हैं कि कांग्रेस को जितना चंदा मिलता है, उसमें 51 फीसद योगदान 20 हजार से कम राशि देने वालों का है। भाजपा के मामले में 20 हजार से ज्यादा की राशि का योगदान देने वालों का हिस्सा सिर्फ 12 फीसद है। वर्ष 2011 में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स (आइसीएआइ) ने चुनावी खर्चे को परदर्शी बनाने के जो सुझाव दिए, आयोग उन्हें भी नहीं लागू कर पाया। आयोग के सुझाव पर देश के प्रमुख 60 राजनीतिक दलों में सिर्फ 11 ने ही जवाब दिए।

बहाना बनाती सरकार:

चुनावी चंदे को पारदर्शी बनाने पर संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार का रिकार्ड भी संदेहास्पद रहा। वर्ष 2011 में जब बाबा रामदेव ने कालेधन का मामला उठाया तो तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता में सरकारी खर्चे पर चुनाव कराने पर सुझाव देने के लिए मंत्रिसमूह का गठन हुआ।

समूह की बैठकें हुई और इसने सरकार को कई कानूनों में बदलाव कर चुनावी चंदे और इसके खर्चे को पारदर्शी बनाने के लिए सुझाव दिए। इसके बाद दो वर्षो के दौरान सरकार ने समूह के किसी भी सुझाव को स्वीकार नहीं किया। हां, पिछले दिनों देश में हर संसदीय सीट पर वैधानिक खर्चे की सीमा जरूर बढ़ा दी गई।

गौरतलब है कि वर्ष 1998 में भी तत्कालीन गृह मंत्री इंद्रजीत गुप्त की अध्यक्षता में इस विषय पर मंत्रिसमूह गठित हुआ और उसकी सिफारिशें अभी तक ठंडे बस्ते में हैं।

इंडिया इंक भी बेपरवाह:

छह माह पहले देश के सबसे बड़े उद्योग चैंबर फिक्की ने एलान किया कि वह चुनावी फंडिंग को लेकर एक व्यापक 'कोड ऑफ कंडक्ट' तैयार करना चाहता है, जिसका पालन सभी कंपनियां करेंगी। इसके लिए समिति गठित हुई।

पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी की मदद ली गई, लेकिन अब पता चला है कि फिक्की इस तरह का कोई दिशानिर्देश बनाने नहीं जा रहा है। कुछ बड़ी कंपनियों ने चंदे के लिए अलग से ट्रस्ट जरूर बनाया है, लेकिन उनकी संख्या बहुत कम है।