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मजबूत संसद चाहता है देश

संसद में सांसदों के आचरण और कामकाज को लेकर समय-समय पर सवाल उठते रहे हैं। 15वीं लोकसभा का कार्यकाल कई मायनों में सवाल खड़े करता है कि आने वाले समय में हमारी संसद की तस्वीर कैसी होगी और क्या इसी तरह सब कुछ होता रहेगा या स्थिति में बदलाव की उम्मीद की जा सकती है। निश्चित ही यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर यहां चुनकर आने

By Edited By: Updated: Thu, 27 Mar 2014 11:25 AM (IST)

संसद में सांसदों के आचरण और कामकाज को लेकर समय-समय पर सवाल उठते रहे हैं। 15वीं लोकसभा का कार्यकाल कई मायनों में सवाल खड़े करता है कि आने वाले समय में हमारी संसद की तस्वीर कैसी होगी और क्या इसी तरह सब कुछ होता रहेगा या स्थिति में बदलाव की उम्मीद की जा सकती है। निश्चित ही यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर यहां चुनकर आने वाले जनप्रतिनिधियों पर निर्भर करता है। आज स्थिति यह है कि 78 फीसद जनप्रतिनिधि ऐसे हैं, जिनके विरोधियों को उनसे कहीं अधिक वोट मिले हैं। आंकड़े बताते हैं कि यह लोग महज 15 फीसद वोट बैंक की बदौलत चुनाव जीतने में सफल रहे हैं। कहने का आशय यही है कि इन्हें तकरीबन 85 फीसद जनता ने वोट नहीं दिया है या नकार दिया है। यह लोग धनबल, बाहुबल या अन्य कारणों से चुनाव जीतते हैं। यह लोग जातीय आधार, वोटों को खरीदकर या अपनी दबंगई और माफियागीरी की बदौलत चुनाव जीतने में सफल रहते हैं। अगर देखा जाए तो यह जनता के प्रतिनिधि या सच्चे नुमाइंदे नहीं हैं। जब ऐसे लोग संसद में पहुंचेंगे तो उनसे किस तरह के आचरण की अपेक्षा की जा सकती है या आप कैसे सोच सकते हैं कि वह आम आदमी के हित के काम करेंगे और उनके बारे में सोचेंगे।

निर्वाचन व्यवस्था में सुधार की दरकार

यह एक ऐसी स्थिति है जिसका समाधान निर्वाचन व्यवस्था में सुधार से ही संभव है। चुनाव में अपनाए जाने वाले तरह-तरह के हथकंडों के अलावा बढ़ता निर्वाचन खर्च एक बड़ी समस्या है। एक सांसद ने खुलासा किया कि उसने लोकसभा टिकट पाने के लिए पांच करोड़ रुपये खर्च किए। टिकट पाने के बाद चुनाव लड़ने के लिए औसतन प्रति प्रत्याशी तकरीबन 10 करोड़ रुपये खर्च करता है। इस तरह कुल 15 करोड़ रुपये एक चुनाव में खर्च होता है। इसके अतिरिक्त अगले चुनाव के लिए भी सांसदों को इतनी ही राशि जुटानी होती है। जाहिर है कि इन सांसदों को कुल 30 करोड़ रुपये जुटाने होते हैं। जाहिर है कि इतनी राशि खर्च करके चुनाव जीतने वाले सांसद जनता के लिए नहीं, बल्कि अपने लिए या कहें पैसा कमाने के लिए काम करेंगे। हमारे देश में कुल 1400 राजनीतिक दल पंजीकृत हैं। इन दलों पर कोई कानून लागू नहीं होता और इनमें आंतरिक लोकतंत्र का भी अभाव है। आज आवश्यकता इस बात की है कि इनके खातों का ऑडिट कराया जाए और बाहर से आने वाले पैसों पर रोक लगे। राजनीतिक दलों की बढ़ती संख्या पर रोक लगनी चाहिए। इसके लिए निर्वाचन आयोग और संसद को विचार करना चाहिए। राजनीतिक दलों में लोकतंत्र और पारदर्शिता लाए बिना हम साफ-स्वच्छ व ईमानदार राजनीति की अपेक्षा नहीं कर सकते। संसद की गरिमा बहाल रखने के लिए जरूरी है कि यहां चुनकर आने वाले जनप्रतिनिधि भी साफ-स्वच्छ व ईमानदार हों तथा सही मायने में जनता के प्रतिनिधि हों। ऐसा न होने के कारण ही हमें दिनों-दिन अधिकाधिक घोटाले और भ्रष्टाचार देखने-सुनने को मिल रहे हैं।

समझौतों पर चलती सरकारें

इस सबके लिए गठबंधन सरकारों का दौर भी एक हद तक जिम्मेदार है। गठबंधन सरकारों के दौर में किसी भी एक दल के पास स्पष्ट बहुमत के अभाव में कई घटक दलों और नेताओं से सरकार बनाने वाली पार्टी को समझौता करना होता है। उनकी ऐसी शतर्ें माननी पड़ती हैं, जो राष्ट्रीय हित में नहीं होतीं। स्पष्ट बहुमत के अभाव में सरकारों का अपने घटक दलों पर नियंत्रण भी नहीं रहता। इस कारण सभी मनमानी करने को स्वतंत्र होते हैं। ऐसे में एक कमजोर इच्छाशक्ति वाली सरकार आग में घी का काम करती है, जैसा कि वर्तमान संप्रग सरकार के मामले में देखने को मिला। जाहिर है अगर सरकार कमजोर होगी तो संसद भी कमजोर होगी, क्योंकि संसद की कार्यवाहियों और उसके कामकाज को घटक दल प्रभावित करने की स्थिति में होते हैं। वर्तमान स्थिति भी संक्रमण की स्थिति है।

आंकड़े बताते हैं कि 15वीं लोकसभा में सबसे कम कामकाज हुआ और सबसे कम विधेयक पारित हुए। जाहिर है विधायी कार्यो की बजाय गैर-विधायी कायरें में समय ज्यादा खर्च हो रहा है और आम जनता के हित में न तो सरकार कोई निर्णय ले पा रही है, न ही संसद में ठीक तरह से विचार हो पा रहा है। जब सरकार कमजोर होती है तो लोकसभा अथवा राज्यसभा अध्यक्ष भी खुद को कमजोर अथवा असहाय पाते हैं और वह कोई भी कड़ी कार्रवाई नहीं कर पाते। संसद की कार्यवाही को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए हमारे संविधान में समुचित प्रावधान किए गए हैं जो पर्याप्त भी हैं, लेकिन आज इनका प्रभावी अनुपालन नहीं हो पा रहा है।

छोटे-छोटे दलों की अड़चनें

छोटे-छोटे दल संसद के कामकाज में बार-बार अड़चनें डालते हैं, ताकि वह अपने क्षेत्रों या राज्यों में जनता को बता सकें कि वे उनके हितों के लिए काम कर रहे हैं। यह स्थिति राष्ट्रीय संदर्भ में कई बार घातक भी साबित होती है। उदाहरण के तौर श्रीलंका का मामला। स्थानीय मुद्दों का राष्ट्रीय मुद्दा बनना चिंता की बात नहीं, लेकिन अगर वह हमारे राष्ट्रीय हित को प्रभावित करने लगें और बड़े नीतिगत मसलों में बाधा बनने लगें, तो निश्चित ही चिंता की बात है। इसके लिए राजनीतिक दलों में राष्ट्रीय हित के आधार पर समन्वय और सहमति आवश्यक है, जिसमें सबसे बड़ी भूमिका सरकार को निभानी होती है। अगर हम भ्रष्टाचार की रोकथाम के संदर्भ में लोकपाल बिल की ही बात करें तो यह संसद में आठ बार पहले भी पेश हुआ था और फिर नौंवी बार इसे लोकसभा में पेश और पारित किया गया। इसके लिए अन्ना आंदोलन को श्रेय दिया जाता है, जो पूरा सच नहीं है। सरकार की इच्छाशक्ति इसके मूल में है।

जब तक सरकार में बैठे लोग जनता के हितों के प्रति ईमानदार नहीं होंगे, तब तक हम यह अपेक्षा भी नहीं कर सकते कि उसके लिए जरूरी विधानों को संसद में पारित कराया जा सकेगा। संसद में हो-हंगामे और अराजकता जैसी स्थिति इसीलिए देखने को मिलती है, क्योंकि स्पष्ट बहुमत के अभाव में सरकारें संसद में बहस और वोटिंग से बचना चाहती हैं और इसके लिए राजनीतिक दल अपने सदस्यों को इस तरह के व्यवहार के लिए प्रेरित करते हैं ताकि लोगों का ध्यान भटकाया जा सके और येन-केन प्रकारेण अपनी सरकार को चलाते रहा जाए।

(लेखक संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ व लोकसभा के पूर्व महासचिव हैं)

- सुभाष कश्यप