Move to Jagran APP

क्षेत्र और जाति की राजनीति

आम चुनाव की तैयारी के लिए कमर कसते ही राजनीतिक दलों में आम मतदाताओं को लामबंद करने के लिए जातीय और क्षेत्रीय अस्मिताओं को आधार बनाने की होड़ सी लग गई है। चाहे वे राष्ट्रीय दल हों या क्षेत्रीय, सभी इन अस्मिताओं को अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं। क्षेत्रीयता का अपना अलग समाजशास्त्र है, जिसे हम भाषा व सं

By Edited By: Updated: Sun, 23 Mar 2014 01:06 PM (IST)

आम चुनाव की तैयारी के लिए कमर कसते ही राजनीतिक दलों में आम मतदाताओं को लामबंद करने के लिए जातीय और क्षेत्रीय अस्मिताओं को आधार बनाने की होड़ सी लग गई है। चाहे वे राष्ट्रीय दल हों या क्षेत्रीय, सभी इन अस्मिताओं को अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं। क्षेत्रीयता का अपना अलग समाजशास्त्र है, जिसे हम भाषा व संस्कृति से अलग नहीं कर सकते। भाषाई अस्मिता क्षेत्रवाद को जन्म देती है। इसका ज्वलंत उदाहरण 1956 में देखने को मिला था। राज्य पुनर्गठन आयोग की संस्तुति पर तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने भाषाई आधार पर राज्यों का गठन किया। होना यह चाहिए था कि कई भाषाओं को मिलाकर एक राज्य बनाया जाता, ताकि भाषा के आधार पर वर्चस्व को रोका जा सकता और मिश्रित भाषाओं के आधार पर प्रांत विकसित हो सकते। जातीयता और जातिवाद राष्ट्रनिर्माण के मार्ग में बाधक हैं।

पढ़ें: मौकापरस्त राजनीति

भारतीय राजनीति में जातीय और क्षेत्रीय अस्मिताओं का इस्तेमाल हमेशा ही होता रहा है, लेकिन इस बार के आम चुनाव की तैयारी के लिए कमर कसते ही राजनीतिक दलों में आम मतदाताओं को लामबंद करने हेतु इन दोनों अस्मिताओं को आधार बनाने की होड़ सी लग गई है। चाहे वे राष्ट्रीय दल हों या क्षेत्रीय, सभी इन अस्मिताओं को अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं। अगर एक राष्ट्रीय दल दलितों को लुभाकर राज्यसभा भेज रहा है या फिर एक प्रांत में गठबंधन कर रहा है, तो दूसरी ओर दूसरा दल पिछड़ेपन के आधार पर जाटों को पिछड़ी जाति की सूची में डाल रहा है। इसी कड़ी में कुछ क्षेत्रीय राजनीतिक संगठन तेलंगाना पर राजनीति करते रहे और अंत में जब चुनाव के ऐन मौके पर केंद्र सरकार ने आंध्र प्रदेश विभाजन की घोषणा की तो वे अनशन पर चले गए। इस सबके दौरान हिंसा भी हुई और ऊर्जा व समय की बर्बादी भी। लगता है कि दलों और संगठनों की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा। आश्चर्य की बात है कि आर्थिक व सांस्कृतिक रूप से पिछड़े पूर्वोत्तर व छोटा नागपुर पठार के आदिवासियों पर बहस न के बराबर है।

पढ़ें: नीतिविहीन राजनीति

क्षेत्रीयता का अपना अलग समाजशास्त्र है, जिसे हम भाषा व संस्कृति से अलग नहीं कर सकते। भाषाई अस्मिता क्षेत्रवाद को जन्म देती है। इसका ज्वलंत उदाहरण 1956 में देखने को मिला था। राज्य पुनर्गठन आयोग की संस्तुति पर तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने भाषाई आधार पर राज्यों का गठन किया। इसके अंतर्गत एक भाषा के आधार पर एक राज्य का गठन कर दिया गया, लेकिन इस व्यवस्था से भारतीय प्रजातंत्र मजबूत नहीं हुआ। आज एक ही राज्य में एक भाषा बोलने वालों का ही वर्चस्व हो गया है। होना यह चाहिए था कि कई भाषाओं को मिलाकर एक राज्य बनाया जाता, ताकि भाषा के आधार पर वर्चस्व को रोका जा सकता और मिश्रित भाषाओं के आधार पर प्रांत विकसित हो सकते। अगर इसे अब भी नहीं रोका गया तो महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) जैसे राजनीतिक दल क्षेत्रीयता के सहारे अपनी राजनीति चमकाते रहेंगे। मनसे प्रमुख राज ठाकरे की क्षेत्रीयता की राजनीतिक सोच मौलिक नहीं है। उन्होंने यह सोच अपने चाचा बाला ठाकरे की शिवसेना से उधार ली है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि कैसे 1960-1970 के दशक में शिवसेना आमची मुंबई का नारा देकर सत्ता के लिए दक्षिण भारतीय और उत्तर भारतीयों को निशाना बनाती थी। नब्बे के दशक तक उसने बंबई का नाम बदलकर मुंबई रख दिया। फिर क्या था मद्रास-चेन्नई हो गया, कलकत्ता-कोलकाता, बैंगलौर-बेंगलूर, पांडिचेरी-पुडूचेरी हो गए। सवाल यह उठता है कि क्या इस सबसे यहां पर रहने वालों के जीवन में गुणात्मक सुधार आया?

आज भी विकास का सहारा लेकर दो राज्यों के मुख्यमंत्री अपने प्रांत की आस्मिताओं की आड़ में मतदाताओं की भावनाओं से खिलवाड़ कर रहे है। बार-बार गुजराती और बिहारी अस्मिता के आधार पर लोगों को भावनात्मक रूप से छला जाता है। यह क्षेत्रीयता प्रजातांत्रिक राष्ट्रीय राजनीति हेतु राष्ट्रवाद के रास्ते में रोड़ा भी अटकाती है। शायद इसी कारण हमारे संविधान निर्माताओं ने तीन भाषाओं का समीकरण प्रतिपादित कर हिंदी, अंग्रेजी और एक मात्र को (स्थानीय भाषा) केंद्र में रखा। साथ ही 22 मातृभाषाओं को हिंदी, संस्कृत, उर्दू, पंजाबी, बंगाली, सिंधी आदि भाषाओं के साथ संवैधानिक दर्जा भी दिया। यह सब प्रायोजन इसलिए था कि भाषा के आधार पर राष्ट्रीयता व राष्ट्रनिर्माण किया जा सके।

जातीयता और जातिवाद राष्ट्रनिर्माण के मार्ग में बाधक हैं। आज भारत के हर प्रांत में एक या दो शक्तिशाली जातियों ने राजनीति में अपना प्रभुत्व जमा रखा है। जैसे कर्नाटक में वोकल्लिगा व लिगायत, तमिलनाडु में वंटीयार व चेट्टीयार, आंध्र में रेड्डी व काम्मा, महाराष्ट्र में मराठा व कुनबी, गुजरात में पटेल, उत्तर प्रदेश व बिहार में यादव व कुर्मी, पंजाब व हरियाणा में जाट। इन सभी जातियों की विशेषता यह है कि भारतीय सामाजिक संरचना में यह द्विज जातियों की तरह अगड़ी जातियां नहीं हैं। वर्ण आश्रम धर्म के आधार पर इनको पिछड़ी जाति में रखा गया। मंडल आयोग ने संवैधानिक जामा पहनाकर 3743 जातियों को पिछड़ा घोषित कर दिया। इतना ही नहीं मंडल आयोग ने भारतीय मुस्लिम समाज में भी 88 जातियों को पिछड़ी जाति में शामिल कर आरक्षण का लाभ दिया। कांग्रेस, सपा व बसपा उत्तर भारत में और वामदल बंगाल में दलित व पिछड़े मुस्लिमों के आरक्षण के प्रतिशत को बढ़ाने की मांग करते रहते हैं। प्रत्येक प्रांत में इन जातियों ने सामाजिक अलगाव के आधार पर अपना राजनीतिक वर्चस्व स्थापित कर रखा है।

अगर हम जाति के आधार पर राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के संगठनात्मक ढांचे को देखें तो उनमें हमें साफ तौर पर एससी/एसटी सेल या अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति प्रकोष्ठ मिल जाएंगे, जो प्रत्यक्ष रूप में इन जातियों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए बनाए गए हैं। हालांकि, वास्तविकता में ये दल इनका वोट तो ले लेते है, लेकिन इनके विकास के लिए कुछ नहीं करते। राज्य पार्टियों में भी लगभग यह व्यवस्था है। उदाहरण के लिए यूपी में समाजवादी पार्टी को ही ले लें। राज्य में 2012 के चुनावों में सपा ने लगभग 58 आरक्षित सीटों पर कब्जा किया, लेकिन जब पदोन्नति में आरक्षण की बात चली, तो इन विधायकों ने एक बार भी मुंह खोलकर पार्टी के आलाकमान का विरोध नहीं किया। आज इस स्थिति पर राज्य के कर्मचारियों के बीच खिचाव साफ देखा जा सकता है। दूसरी ओर राजस्थान में लगातार गुर्जरों के आरक्षण को लेकर कांग्रेस व भाजपा आमने-सामने रहे हैं, जिससे सामाजिक अलगाव बना रहता है। भारतीय राजनीति में जातियों के प्रयोग का दुष्परिणाम ही है कि कुछ जातियों ने सत्ता व शासन में एकाधिपत्य बना लिया है। इसका परिणाम यह भी हुआ कि मजबूर होकर कमजोर जातियों ने भारतीय प्रजातंत्र में भागीदारी के लिए अपने संगठन बनाना शुरू कर दिए। अगर हमें प्रजातंत्र को शक्तिशाली बनाना है तो सभी आस्मिताओं को स्वाभाविकता के आधार पर सम्मिलित करना होगा।

- प्रो. विवेक कुमार, (लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफेसर हैं।)