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2014 के बाद कांग्रेस की 6 राज्यों में हार, राहुल की रणनीति पर उठे सवाल

पांच राज्यों में आए विधानसभा चुनावों के नतीजों के बाद कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की रणनीति पर फिर सवाल खड़े हो गए हैं। कांग्रेस में फिर से गठबंधन परिवर्तन की मांग हो रही है।

By Manish NegiEdited By: Updated: Fri, 20 May 2016 11:47 AM (IST)
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नई दिल्ली। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजों से एक बार फिर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की रणनीति पर सवालिया निशान खड़े हो गए हैं। इन पांच राज्यों में पुडुचेरी को छोड़कर बाकी राज्यों में कांग्रेस को काफी नुकसान हुआ है। कांग्रेस के 163 विधायकों की संख्या घटकर 115 हो गई है। कांग्रेस के पास अब सिर्फ कर्नाटक, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय और मिजोरम की सत्ता बची है।

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संगठन में बदलाव की मांग

चुनावों में हार के बाद संगठन में बदलाव की मांग पर बहस फिर शुरु हो गई है। हार से नाराज कार्यकर्ताओं ने संगठन में बदलाव की मांग की है। पार्टी के कार्यकर्ताओं का मानना है कि नए लोगों को पार्टी में तरजीह दी जाए। एआईसीसी के ज्यादातर पदाधिकारी इन चारों राज्यों में अपनी जिम्मेदारी निभाने में नाकाम रहे हैं। संगठन में बदलाव की मांग नई नहीं है। लोकसभा चुनाव में शिकस्त मिलने के बाद से ही यह मांग उठ रही थी। लेकिन अब चार राज्यों में हार के बाद इस मांग पर को ज्यादा बल मिलेगा।

बिहार को छोड़ दे तो राहुल गांधी के नेतृत्व पर सवाल बड़ा होता जा रहा है। क्योंकि दो साल लोकसभा चुनाव में 44 सीटें मिलने के बाद भी कांग्रेस को विधानसभा चुनावों में ज्यादा राहत नहीं मिली।

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घर को ठीक रखने की चुनौती

असम में हिमंत बिस्वा शर्मा के भाजपा में जाने से कई राज्यों में वैसे कई कांग्रेसी नेता ऐसा करने के लिए प्रेरित हो सकते हैं, जो राहुल के राजनीतिक और संगठन प्रबंधन के खिलाफ है। हरियाणा, महाराष्ट्र, कर्नाटक और चुनावी राज्य पंजाब और यूपी में पहले ही पार्टी के भीतर शिकायतों के सुर सुने जा रहे हैं। केरल और तमिलनाडु में गुटबाजी तेज हो सकती है।

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गायब होते क्षत्रप

ओमन चांडी और तरुण गोगोई जैसे नेताओं की हार से अब कांग्रेस क्षत्रपों के मामले में सिर्फ वीरभद्र सिंह और हरीश रावत तक सिमट कर रह हई है। सिद्धारमैया अब तक उस स्तर पर खुद को साबित नहीं कर पाए हैं।

विपक्ष के भीतर की चुनौती

कांग्रेस की लगातार हार का मतलब ये भी हो सकता है कि उसे संसद के भीतर और बाहर विपक्षी राजनीतिक का केंद्र बनने में दिक्कत पेश आने लगे। खासतौर पर ऐसे वक्त में जब क्षेत्रीय पार्टियों के कई नेता खुद को इस खांचे में फिट करने को बेकरार हों।

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