चौंका सकते हैं तमिलनाडु के नतीजे
तमिलनाडु में लगभग साढ़े तीन दशक बाद रोचक सियासी जंग की जमीन तैयार है। 1
By Edited By: Updated: Mon, 21 Apr 2014 08:29 AM (IST)
चेन्नई [राजकिशोर]। तमिलनाडु में लगभग साढ़े तीन दशक बाद रोचक सियासी जंग की जमीन तैयार है। 1977 के बाद यह पहला मौका है जब राज्य के दोनों प्रमुख द्रविड़ दलों अन्नाद्रमुक और द्रमुक का राष्ट्रीय दलों कांग्रेस या भाजपा के साथ समझौता नहीं है। जयललिता और करुणानिधि और कांग्रेस अलग हैं तो राज्य में अपनी जमीन बनाने को संघर्षरत भाजपा ने आधा दर्जन दलों के महागठबंधन के साथ चुनाव में उतरकर तमिलनाडु की सियासी जंग को खासा दिलचस्प कर दिया है। पिछले विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आई जयललिता को यहां बढ़त तो साफ दिख रही है, लेकिन तमिलनाडु के चौतरफा मुकाबले में चौंकाने वाले नतीजों से भी इन्कार नहीं किया जा सकता।
तमिलनाडु की 39 लोकसभा सीटों में दो दर्जन सीटों पर चतुष्कोणीय मुकाबला है। मतलब जया और करुणा के साथ-साथ यहां कांग्रेस और भाजपा नेतृत्व वाला राजग 24 सीटों पर जोरदारी से टकरा रहे हैं। एक दर्जन सीटें ऐसी हैं, जिनमें मुकाबला सीधे द्रमुक और अन्नाद्रमुक के बीच ही है। लिहाजा 24 सीटों पर ऊंट किस करवट बैठेगा, यह बेहद अहम होने जा रहा है। खासतौर से द्रमुक की भीतरी कलह और अन्नाद्रमुक सुप्रीमो जयललिता की महत्वाकांक्षा के बीच कांग्रेस और भाजपा की चुनौती ने मुकाबला दिलचस्प कर दिया है। खास बात है कि तमिलनाडु में चुनाव फिलहाल ऐसा हो गया है कि जैसे प्रधानमंत्री उन्हें ही चुनना है। जयललिता बनाम मोदीजया जहां खुद को तमिल प्रधानमंत्री के रूप में पेश कर अपने चुनावी अभियान को बढ़ा रही हैं तो आधा दर्जन द्रविड़ पार्टियों के साथ चुनाव में उतरी भाजपा नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री चुनने में राज्य के लोगों से आगे आने का आह्वान कर रही है। भाजपा के सहयोगी दल डीएमडीके, पीएमके, एमडीएमके, केएमडीके और एलजेके भी मोदी की लोकप्रियता और दिल्ली की सत्ता में तमिलनाडु की भागीदारी का कार्ड खेल रहे हैं। हालांकि, जयललिता ने वामदलों के साथ संबंध तोड़कर और कोलकाता की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार व ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के साथ अघोषित गठबंधन खड़ा कर तमिलनाडु के लोगों के बीच खुद को पीएम के रूप में पेश भी कर दिया है।
मदुरै कामराज विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर पवनंदी वेंबलूर कहते हैं कि 'वामदलों से नाता तोड़ और ममता के करीब जाकर जया ने राज्य में खुद ही चतुष्कोणीय मुकाबला कर लिया। अपनी महत्वाकांक्षा के लिए उन्होंने तमिलनाडु में थोड़ा-बहुत ही सही, लेकिन वामपंथी वोटरों को भ्रमित कर दिया है। हालांकि, उनकी सोच है कि वामपंथी वोटर विकल्पहीनता की स्थिति में उनके साथ आ सकता है। यह कुछ हद तक ठीक भी है क्योंकि उनको फिलहाल बढ़त तो है ही।' जाहिरा तौर पर भाजपा के पास तमिल प्रधानमंत्री के अभियान की सीधी काट नहीं है, लेकिन वह जयललिता की इस महत्वाकांक्षा को असंभव बताने में जुटे हैं। वैसे भी भाजपा इस राज्य में कभी भी अपने बूते एक भी सीट पाने की हैसियत में नहीं रही है। फिर भी वह इस दफा यह संदेश देने से नहीं चूक रहे कि चुनाव बाद जयललिता मोदी का समर्थन करेंगी। भाजपा सीटें कितनी जीतेगी, कहना मुश्किल है, लेकिन मोदी की लोकप्रियता इस राज्य में बढ़ी है। आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के प्रमुख सत्यमूर्ति साफ कहते हैं, 'भाजपा का वोट बढ़ेगा, इसमें कोई दो राय नहीं है, लेकिन वह सीटें जिताने तक पहुंचेगा या नहीं यह सबसे बड़ा सवाल है।'
कांग्रेस-द्रमुक हलकान संप्रग-एक और संप्रग-दो में एक दूसरे के सहयोगी रहे कांग्रेस और द्रमुक की हालत तमिलनाडु में खराब है। 2जी घोटाले के मुद्दे पर दोनों की दोस्ती टूट चुकी है। द्रमुक के ए.राजा और कनीमोरी जेल में रह चुके हैं। कांग्रेस भी इस कलंक से अछूती नहीं है। पिछले लोकसभा चुनाव में सूपड़ा साफ करने वाली द्रमुक के पास सिर्फ करुणानिधि की साख और उनके उत्तराधिकारी स्टालिन का चेहरा है। श्रीलंका में लिट्टे के खात्मे और तमिलनाडु पर अत्याचार के भावनात्मक मुद्दे के अलावा उनके पास कुछ नहीं है। सबसे दिलचस्प हालात कांग्रेस के होंगे। राज्य की सत्ता से बाहर हुए कांग्रेस को 46 वर्ष हो चुके हैं। किसी भी द्रविड़ दल की कनिष्ठ सहयोगी से ज्यादा उसकी हैसियत नहीं रही। 1971, 1980, 2004 और 2009 में द्रमुक तो 1984 से 1996 तक और 1999 में उसका अन्नाद्रमुक के साथ गठबंधन हुआ। इस दौरान सिर्फ 1998 में कांग्रेस अकेले लड़ी और उसे एक भी सीट नहीं मिली। इस दफा भी हालात कुछ अलहदा नहीं दिख रहे हैं।