साढ़े चार साल के बाद समलैंगिक संबंध बनाना अब फिर अपराध हो गया है। सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को दिल्ली हाई कोर्ट का वह फैसला रद कर दिया, जिसमें दो वयस्कों के बीच समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने 153 साल पुराने भारतीय दंड संहिता (आइपीसी) की धारा 377 को संवैधानिक ठहराया है। हालांकि, कोर्ट ने धारा 377 को कानून की किताब से हटाने का फैसला सरकार और संसद पर छोड़ दिया है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले की देश और विदेश में जबरदस्त आलोचना हो रही है। इसके पहले शायद ही कभी सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर इतनी तीखी प्रतिक्रिया हुई हो। आलोचनाओं के बीच गृह मंत्रालय के एक अधिकारी ने कहा है कि यदि समलैंगिक संबंधों के हिमायती धारा-377 को खत्म करने का प्रतिवेदन देते हैं, तो उसपर विचार किया जाएगा।
By Edited By: Updated: Thu, 12 Dec 2013 12:08 AM (IST)
जागरण ब्यूरो, नई दिल्ली। साढ़े चार साल के बाद समलैंगिक संबंध बनाना अब फिर अपराध हो गया है। सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को दिल्ली हाई कोर्ट का वह फैसला रद कर दिया, जिसमें दो वयस्कों के बीच समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने 153 साल पुराने भारतीय दंड संहिता (आइपीसी) की धारा 377 को संवैधानिक ठहराया है। हालांकि, कोर्ट ने धारा 377 को कानून की किताब से हटाने का फैसला सरकार और संसद पर छोड़ दिया है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले की देश और विदेश में जबरदस्त आलोचना हो रही है। इसके पहले शायद ही कभी सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर इतनी तीखी प्रतिक्रिया हुई हो। आलोचनाओं के बीच गृह मंत्रालय के एक अधिकारी ने कहा है कि यदि समलैंगिक संबंधों के हिमायती धारा-377 को खत्म करने का प्रतिवेदन देते हैं, तो उसपर विचार किया जाएगा।
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समलैंगिकों पर फैसले से बॉलीवुड जगत नाखुश सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अप्राकृतिक यौनाचार और समलैंगिक संबंधों को अपराध मानने वाली धारा 377 पहले की तरह ही लागू हो गई है। इस अपराध में उम्रकैद तक का प्रावधान है। समलैंगिक संबंधों के अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे गैर सरकारी संगठनों और उनके कायकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर गहरी निराशा जताई है। उन्होंने फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दाखिल करने की बात कही है। ज्ञात हो कि दुनिया के 90 से अधिक देशों में किसी न किसी रूप में ऐसे संबंधों को मान्यता मिल चुकी है। दिल्ली हाई कोर्ट ने 2 जुलाई 2009 को फैसला सुनाया था, जिसमें दो वयस्कों के बीच एकांत में बनाए गए समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था। विभिन्न सामाजिक और धार्मिक संगठनों ने हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी।
न्यायमूर्ति जीएस सिंघवी व न्यायमूर्ति सुधांशु ज्योति मुखोपाध्याय ने फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए 27 मार्च 2012 को फैसला सुरक्षित रख लिया था। बुधवार को फैसला सुनाते हुए पीठ ने कहा कि दिल्ली हाई कोर्ट का फैसला कानूनन बने रहने लायक नहीं है। पीठ ने कहा कि आइपीसी की धारा 377 में कोई कानूनी खामी नहीं है। साथ ही समलैंगिक संबंधों की पैरवी करने वालों की ये दलील खारिज कर दी कि धारा 377 के आधार पर समलैंगिक समुदायों (एलजीबीटी-समलैंगिक, उभयलिंगी और किन्नर) को ब्लैकमेल और प्रताडि़त किया जाता है। हालांकि, कोर्ट ने कहा कि धारा 377 को कानून में बनाए रखने पर विचार करते समय विधायिका के लिए यह पहलू महत्वपूर्ण हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उनका फैसला सिर्फ धारा 377 की वैधानिकता के बारे में दिए गए दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश पर है। उन्होंने पाया कि ंधारा 377 में कोई संवैधानिक खामी नहीं है। हालांकि कोर्ट ने साफ किया कि उनका यह फैसला विधायिका को कानून की किताब से धारा 377 हटाने या अटार्नी जनरल के सुझाव के मुताबिक कानून में संशोधन करने के आड़े नहीं आएगा। विधायिका ऐसा करने को स्वतंत्र है।
कोर्ट ने कहा कि हाई कोर्ट ने तथाकथित एलजीबीटी बिरादरी के हितों को बचाने की हड़बड़ी में धारा 377 को निजता , स्वायत्ता और व्यक्तिगत गरिमा के खिलाफ ठहरा दिया है। इसके लिए हाई कोर्ट ने जिन फैसलों को आधार बनाया है, उनका दायरा अलग है। यद्यपि ये फैसले लैंगिक अल्पसंख्यको के व्यक्तिगत अधिकारों से जुड़े हैं, लेकिन इनके आधार पर आंख मूंद कर कानून को अवैध नहीं ठहराया जा सकता। फैसले के बाद जस्टिस सिंघवी से पत्रकारों ने एलजीबीटी बिरादरी की निराशा पर प्रतिक्रिया जाननी चाही तो उन्होंने कहा कि पहले फैसला पढि़ए और तब मेरे पास आकर प्रश्न पूछिए। ये भी पढ़ें:
इनके बीच असल में घटा फिल्म फायर का अफसाना और. --- 'प्रताड़ना के आधार पर किसी कानून को अवैध नहीं घोषित किया जा सकता है। पुलिस द्वारा कानून का दुरुपयोग किया जाना भी उस कानून को अवैधानिक नहीं बनाता।' -फैसला सुनाने वाली पीठ --- 'संवैधानिक मूल्यों के विस्तार का ऐतिहासिक मौका गंवा दिया गया। कई मामलों की समीक्षा करने वाली कोर्ट ने समलैंगिकता के मुद्दे पर गेंद संसद के पाले में डाल दी।' - इंदिरा जयसिंह, एडिशनल सॉलीसिटर जनरल ---
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