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'परिवार के साथ डर से कांपते उस दिन कितनी दूर तक बर्फ के बीच पैदल चले पता नहीं'

कश्‍मीरी पंडि़तों को अपना घर छोड़े तीन दशक बीत चुके हैं। 19 जनवरी का दिन इन लोगों के लिए हर वर्ष की तरह इस बार भी अपनी जमीन से बेदखल करने का दर्द लेकर आया है।

By Kamal VermaEdited By: Updated: Tue, 21 Jan 2020 06:51 AM (IST)
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'परिवार के साथ डर से कांपते उस दिन कितनी दूर तक बर्फ के बीच पैदल चले पता नहीं'
नई दिल्‍ली [जागरण स्‍पेशल]। कश्‍मीरी पंडितों को अपनी जमीन छोड़े तीन दशक बीत चुके हैं। 1990 में जब कश्‍मीर में आतंकवाद ने अपने पांस पसारने शुरू किए तब से ही हर दिन इन लोगों के लिए दहशत का पर्याय बन गया। आतंकवाद ने इन लोगों को अपनी जमीन को रातोंरात छोड़ने पर मजबूर कर दिया। जिसके हाथ जो लगा वो उसको ही लेकर अपनी और अपने परिवार की जान बचाने के लिए अपना घर छोड़ कर रातोंरात कूच कर गया। इस चक्‍कर में कई के कई अहम दस्‍तावेज तक वहीं पर छूट गए। जिस घर में उन्‍होंने अपना बचपन बिताया या उनके बच्‍चों के होने की किल‍कारियां गूंजीं और जहां इनके बाप-दादा ने आखिरी वक्‍त गुजारा उसको रातोंरात छोड़ने का दर्द इनके अलावा कोई दूसरा नहीं जान सकता। तीन दशक गुजरने के बाद भी इन्‍हें अपनी जमीन खोने का दर्द आज भी सालता है। साथ ही इन्‍हें उम्‍मीद है कि एक दिन ये अपने उसी घर में वापस जाएंगे जहां से ये तीन दशक पहले बिछड़े थे। 19 जनवरी को कश्‍मीरी पंडित विस्‍थापन दिवस के रूप में मनाते हैं। हाल ही में रिलीज फिल्‍म 'शिकारा' भी इन्‍हीं लोगों की जिंदगी की कहानी को बयां करती है। लेकिन इस कहानी से दूर इन लोगों का दर्द काफी कुछ और भी कहता है। इनका कहना है कि  जिस पर बीतती है उसका दर्द भी वही जानता है। इस मौके पर हमने भी जम्‍मू-कश्‍मीर से अपना घर छोड़कर आए कुछ लोगों से उनका दर्द साझा करने की कोशिश की।  

धमकियों के बीच हर वक्‍त मौत का साया

एमके भट्ट, रवि कौल एलआईसी से और एम धर बैंक से रिटायर होकर फिलहाल गाजियाबाद में रहते हैं। इन सभी का दर्द और उम्‍मीद एक जैसी है। ये लोग तीन दशक बाद भी उस रात को नहीं भूले हैं जब इन्‍हें अपना घर छोड़कर सभी की जान बचाकर परिवार के साथ भागना पड़ा था। ये 90 के दशक का दौर था जब जम्‍मू कश्‍मीर में आतंकवाद तेजी से पांव पसार रहा था। इन आतंकियों के निशाने पर कश्‍मीर पंडित थे। इन्‍हें कई बार आतंकियों द्वारा तो कई बार मस्जिदों से इन्‍हें अपना घर छोड़कर जाने की धमकी दी जा रही थी। हर रोज लोगों की हत्‍या की खबर सामने आ रही थी। रवि कौल बताते हैं कि वह अपनी मां, बीवी और बच्‍चों के साथ अनंतनाग में रहते थे। जिस वक्‍त राज्‍य में आतंकवाद शुरू हुआ तब वहां धीरे-धीरे सरकारी ऑफिस भी अपना कामकाज समेटने लगे थे। एलआईसी की जिस ब्रांच में कौल काम करते थे वहां पर भी आतंक का साया नजर आने लगा था। आतंकियों की नजरें कश्‍मीरी पंडितों पर लगी थीं। उनका मकसद या तो उन्‍हें मारना था या फिर उन्‍हें भगाना था।

घर से बाहर नहीं निकल पाते थे बच्‍चे 

अनंतनाग में सरकारी जॉब और दहशत के बीच दिन काट रहे कौल बताते हैं कि आतंकवाद का डर उनके और उनके परिवार के दूसरे लोगों पर इस कदर व्‍याप्‍त था कि बच्‍चों का घर से बाहर निकलना बंद हो गया था। इस डर को झेलने वाला केवल उनका अकेला परिवार ही नहीं था बल्कि कई दूसरे परिवारों के मन में भी यही डर था। इसकी वजह से कई बच्‍चों की पढ़ाई बीच में ही छूट गई। वो बताते हैं कि जब भी गेट बजता था तब मन में यही सवाल होता कि न मालूम गेट के दूसरी तरफ कौन हो। एक दिन उनका ये डर सच साबित हुआ। रात करीब दस बजे उनके गेट को किसी ने तेजी से खटखटाया। कौल साहब के के परिवार के दूसरे लोगों का डर इस खटखटाहट को सुनकर और अधिक बढ़ गया था। डरते-डरते उन्‍होंने गेट खोला तो सामने चार आतंकी हाथों में एके 47 लिए खड़े थे। उन्‍होंने मुंह पर कपड़ा बांधा हुआ था। गेट खुलते के साथ ही एक आतंकी ने उन्‍हें धक्‍का मारकर जमीन पर गिरा दिया और सभी घर में दाखिल हो गए। इस घटना ने परिवार के दूसरे लोगों के होश कुछ समय के लिए उड़ा दिए थे। सभी को कुछ अनहोनी होने का डर सताए जा रहा था। एक आतंकी ने कौल के सीने पर राइफल तान दी। इससे घबराई कौल साहब की पत्‍नी आतंकियों से उनके जीवन की भीख मांगने उनके पांव पर गिर गई थी। परिवार का हर व्‍यक्ति खुद को लाचार महसूस कर रहा था। बच्‍चों के शरीर डर के मारे थर-थर कांप रहे थे।

बस गोली ही नहीं मारी

कौल साहब बताते हैं कि वो दिन शायद अच्‍छा था कि आतंकियों ने उन्‍हें गोली नहीं मारी और ये कहते हुए वहां से चले गए कि दिन निकलने से पहले वो यहां से चले जाएं, नहीं तो अगले दिन सभी को मार दिया जाएगा। आतंकियों के जाने के बाद बिना देर किए कौल साहब ने कुछ सामान लिया और रातोंरात घर से निकल गए। दिल में दहशत थी और आंखों में आंसू थे। दिल में अपना ही घर छोड़ने का दर्द था। वो नहीं जानते थे कि उन्‍हें कभी वापस आने का मौका मिलेगा भी या नहीं। सुनसान सड़क पर वह काफी दूर तक पैदल अपने परिवार के साथ आगे बढ़ रहे थे। कुछ किलोमीटर चलने के बाद उन्‍हें एक टैक्‍सी दिखाई दी जिससे वो किसी तरह से जम्‍मू पहुंचे और यहां से फिर दिल्‍ली आ गए। उन्‍हें दिल्‍ली में नए ऑफिस में ज्‍वाइनिंग मिल गई। लेकिन वर्षों तक उनके और परिवार के दूसरे लोगों के मन में उस रात की याद कभी धुंधली नहीं हो सकी। करीब 15 वर्षों तक वह अपने घर नहीं जा सके। उनकी बूढ़ी मां ने भी दिल्‍ली में ही आखिरी सांस ली।

घर वापसी की उम्‍मीद

वो बताते हैं कि उनकी मां को अंतिम समय तक अपने घर पर जाने की आस सालती रही। यह पल उनके लिए काफी बुरा था, क्‍योंकि वो अपनी मां की आखिरी ख्‍वाहिश पूरी करने में नाकाम साबित हुए थे। डेढ़ दशक के बाद जब उन्‍हें वापस अनंतनाग जाकर अपने घर जाने का मौका मिला तो वहां पर काफी कुछ बदल चुका था। दूसरे लोग घर में बस चुके थे। उनके लिए वह अंजान थे। उनके आसपास जो भी हिंदू रहते थे वो भी दूसरी जगह पर जा चुके थे। वहां पर वो अंजान थे। कुछ पल अपने घर को देखने के बाद वो उलटे पांव आंखों में आंसू भरकर वापस दिल्‍ली लौट आए। 

महज दो लाख में बेचना पड़ा था घर 

कौल साहब इस कहानी के केवल एक किरदार ही नहीं है। एनके भट्ट की भी कहानी ऐसी ही है। जिस वक्‍त घाटी आतंकवाद की चपेट में नहीं आई थी तब उनके पड़ोस में रहने वाले एक शख्‍स ने उनके मकान के 15 लाख रुपये लगाए थे। लेकिन आतंकवाद के पनपने और कौल साहब की तरह ही उनके परिवार को आतंकियों की धमकी मिलने के बाद भट्ट साहब को अपना मकान रातोंरात महज दो लाख की कीमत में बेचना पड़ा। उन्‍हें आज भी वो पल याद है जब वह अपना घर छोड़कर परिवार को लेकर हमेशा के लिए जान बचाकर दिल्‍ली भाग आए थे। उनके घर पर किसी ने रात में पेट्रोल बम से हमला किया था। घर के बाहर खड़े कुछ लोग उन्‍हें लगातार यहां से भाग जाने की बात कहते हुए धमकी दे रहे थे। परिवार की मदद करने के नाम पर पड़ोस के ही एक शख्‍स ने दो लाख रुपये में घर का सौदा कर लिया। जिस रात वो घर से निकले उस वक्‍त पूरे इलाके में बर्फ गिरने की वजह से रात में गाडि़यों की आवाजाही लगभग बंद थी। वो नहीं जानते कि उस सर्द रात में कितने किलोमीटर पैदल चलकर बस डिपो पहुंचे थे। वहां से जम्‍मू फिर ट्रेन से दिल्‍ली पहुंचे।   

श्रीनगर में जी रहे थे खुशहाल जिंदगी 

गाजियाबाद में ही रह रहे धर साहब बताते हैं कि उनके घर में करीब 15 कमरे थे। नौकर थे। वो श्रीनगर में हर तरह से बेहतर जिंदगी जी रहे थे, लेकिन आतंकवाद ने सब कुछ बर्बाद कर दिया। जो कभी अपने हुआ करते थे उन्‍होंने भी साथ छोड़ दिया। तीन दशकों से दिल्‍ली और फिर गाजियाबाद में रहने वाले धर बताते हैं कि जब वह कुछ माह पहले अपने घर की तरफ वापस गए तो वहां पर पहले जैसा कुछ नहीं रह गया था। उनके घर पर भी कई लोगों ने कब्‍जा कर लिया था। उसके हिस्‍से कर अलग-अलग उसको बेचा जा चुका था। वहां पर रहने वाले सभी लोग नए थे। उनके मुताबिक जिस गली में उनका घर था वहां के कई लोग अपना घर छोड़कर वहां से जा चुके थे। उन्‍हें लगा कि वह किसी अंजान जगह पर हैं। न कोई उन्‍हें जानता था और न ही वो किसी को जानते थे। मायूस होकर वापस लौटे धर साहब को भी अब उम्‍मीद है कि वो किसी न किसी दिन जरूर अपने घर वापस लौटेंगे।

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