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अब भी नहीं चेते तो और भयावह होंगे हालात

रुद्रप्रयाग, केदार दत्त। बैकुंठ धाम से निकलकर मां धारी देवी के चरणों को स्पर्श कर शांत भाव से आगे बढ़ रही अलकनंदा को देख कतई नहीं लगता कि 10 दिन पहले यही नदी बदरीधाम से लेकर देवप्रयाग तक भारी तबाही का सबब बनी। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी था कि आखिर अलकनंदा को इतना गुस्सा क्यों आया? देवप्रयाग से रुद्रप्रयाग तक पहं

By Edited By: Updated: Thu, 27 Jun 2013 10:02 PM (IST)

रुद्रप्रयाग, केदार दत्त। बैकुंठ धाम से निकलकर मां धारी देवी के चरणों को स्पर्श कर शांत भाव से आगे बढ़ रही अलकनंदा को देख कतई नहीं लगता कि 10 दिन पहले यही नदी बदरीधाम से लेकर देवप्रयाग तक भारी तबाही का सबब बनी। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी था कि आखिर अलकनंदा को इतना गुस्सा क्यों आया? देवप्रयाग से रुद्रप्रयाग तक पहुंचते-पहुंचते जगह-जगह नदी से सटकर हुए अतिक्रमण और निर्माण कार्याें को देख इन सवालों का जवाब भी मिलने लगा। बात समझ आने लगी कि यदि नदी को नाले में तब्दील करने की कोशिश होगी तो उसे क्रोध आएगा ही।

विकास की अंधी दौड़ में लोग 'नदी तीर का रोखड़ा, जतकत सैरो पार' (नदी किनारे रहने पर वह कभी भी मुसीबत का सबब बन सकती है) वाली कहावत भी भूल बैठे। देवप्रयाग से लेकर श्रीनगर और फिर रुद्रप्रयाग और इससे आगे भी अतिक्रमण से नदी से पटी पड़ी है। कुछेक निर्माण तो नदी तट पर ही हुए हैं। प्रशासन के आंकड़ों का ही जिक्र करें तो क्षतिग्रस्त हुए दो सौ से अधिक निर्माण नदी की सीमा के अंतर्गत थे। न सिर्फ अलकनंदा, बल्कि उसकी सहायक नदियों पिंडर, मंदाकिनी आदि का आलम भी इससे जुदा नहीं है। रही-सही कसर पूरी कर दी बिना सोचे समझे और यहां की परिस्थितियों का आकलन किए बनाई गई विकास योजनाओं ने। ऐसे में अलकनंदा को गुस्सा नहीं आएगा तो क्या होगा? पर्यावरणविद् भी इससे इत्तेफाक रखते हैं। उनका कहना है कि विकास जरूरी है, लेकिन यह ऐसा हो जो विनाश का कारण न बने।

'समूचा हिमालयी क्षेत्र बेहद संवेदनशील है। ऐसे में यदि नदियां नालों का रूप लेंगी और उनका प्रवाह बाधित किया जाएगा तो वे प्रलयकारी होंगी ही। अलकनंदा के मामले में भी ऐसा ही है। ऐसे में हमें सोचना होगा कि विकास ऐसा हो, जो यहां की आजीविका, सुंदरता को उजाड़ विनाश का कारण न बने।'

-पद्मश्री चंडी प्रसाद भट्ट, पर्यावरणविद्

'कुदरत ने जैसा प्रकोप बरपाया उससे साफ है कि वह हमसे रुष्ट है। अभी तक उसने धैर्य धरा हुआ था, लेकिन अब सहन सीमा पार हो चुकी है। इसकी वजह है पारिस्थितिकी आधारित विकास की अनदेखी। यदि हम अब भी नहीं चेते तो स्थिति के और विकराल होते देर नहीं लगेगी।'

-पद्मश्री डा.अनिल जोशी, पर्यावरणविद्

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