पाकिस्तान में सूफी संत की कब्र के बगल में दफन हुआ हिंदू ब्राह्मण
मामला पाकिस्तान का है। सुखदेव हिंदू ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए और पले बढ़े, फिर देश का बटवारा हुआ और वो पाकिस्तान से हिंदुस्तान चले आए।
नई दिल्ली,[अतुल गुप्ता]।
‘वफादारी बशर्ते उस्तवारी अस्ले ईमां है
मरे बुतखाने में तो काबे में गाड़ो बरहमन को’
मिर्जा गालिब का ये शेर जिसमें वो काबा में ब्राह्मण को दफनाने की ख्वाहिश बयां रहे हैं वो पूरी हो गई है। जी हां, जन्म से हिंदू और वो भी ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए एक शख्स को काबा में दफनाया गया है क्योंकि ये उसकी आखिरी इच्छा थी।
धर्म से ऊंचीं मुहब्बत की मिसाल
मामला पाकिस्तान का है। सुखदेव हिंदू ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए और पले बढ़े, फिर देश का बंटवारा हुआ और वो पाकिस्तान से हिंदुस्तान चले आए। हिंदुस्तान में मन नहीं लगा तो वापस पाकिस्तान के मीरपुर लौट गए। सुखदेव पाकिस्तान जाकर मुसलमान बन गए और नाम रखा अब्दुल्ला। मीरपुर के लोगों ने अब्दुल्ला का प्यार से नाम रख दिया सोहनी फकीर क्योंकि सुखदेव से अब्दुल्ला और फिर सोहनी फकीर ट्रांसजेंडर थी।
मीरपुर खास की बाबर्स कॉलोनी में सोहनी अपने परिवार के साथ रहती थी। सोहनी बहुत ही खुशमिजाज थी और लोगों से बहुत मुहब्बत से बात करती थीं। वो मंदिर भी जाती और पास ही के आऱिब शाह बुखारी के इमामबाड़े में भी जियारत करती जोकि मीरपुर में काफी प्रसिद्ध इमामबाड़ा है।
आखिरी इच्छा, इमामबाड़े में दफनाया जाए
सोहनी फकीर की इस इलाके में धीरे धीरे काफी इज्जत बढ़ गई। लोग उनसे दुआएं लेने आते और शादी-विवाह के कार्यक्रमों में भी उन्हें बुलाया जाता। बच्चों का नाम रखने के लिए भी सोहनी फकीर के पास लोगों आया करते थे।
सोहनी फकीर इमामबाड़े की दिल से सेवा करती, इमामबाड़े का रेनोवेशन का काम भी सोहन फकीर ने ही ट्रांसजेंडर फंड से कराया। कुछ दिन पहले सोहन फकीर ने इमामबाड़े से कुछ लोगों को बुलवाया और उनसे पूछा कि क्या आपको लगता है कि मैने इमामबाड़े की ढग से सेवा की है?
उन्हें जवाब मिला जी हां, आपने और बाकी के ख्वाजासराओं यानि ट्रांसजेंडरों ने ही तो इमामबाड़े का ख्याल रखा है। इसपर सोहनी बोलीं कि मेरी ख्वाहिश है कि मेरी लाश को इमामबाड़े में दफन किया जाए, क्या ये मुमकिन है? इमामबाड़े के लोगों ने उस वक्त कोई जवाब नहीं दिया और सोचने के लिए वक्त मांगा।
विरोध के बावजूद पूरी हुई आखिरी ख्वाहिश
दो दिन बाद ही सोहन फकीर की मौत हो गई और लोगों को सोहन फकीर की आखिरी ख्वाहिश याद आई। कुछ लोगों ने कहा कि हिजड़े की लाश को सूफी संत के बराबर में कैसे दफनाया जा सकता है? विरोध हुआ लेकिन विरोध के बावजूद सोहन फकीर को इमामबाड़े में दफनाया गया। आज सूफी संत आरिब शाह की मजार के करीब ही सोहनी फकीर भी दफन है। ये तो पता नहीं कि पाकिस्तान के लोगों ने गालिब को पढ़ा है या नहीं लेकिन इस कहानी को जानकर गालिब का एक शेर याद आता है कि
'मरने के बाद काबा किसने देखा है ग़ालिब
जहां ज़िंदा में दिल लगे, तू वहीं दफन करवा देना मुझे'
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