कोहिनूर ही नहीं, ब्रिटेन में मौजूद इन चार ऐतिहासिक धरोहरों पर भी भारत का दावा है
भारत देश का इतिहास बहुत पुराना है और इससे जुड़ी हुई चीजें अनमोल हैं उन्ही अनमोल चीजों में से एक है कोहिनूर हीरा जो ब्रिटेन में है लेकिन क्या आपको पता है कि इस हीरे के अलावा भी बहुत सी चीजें है जो ब्रिटेन की शान बनी हुई हैं, जानिए..
क्या भारत को कभी कोहिनूर हीरा वापस मिल पाएगा? 13वीं शताब्दी में खोजा गया यह कीमती पत्थर अंग्रेजों ने 1850 में पंजाब के महाराजा दिलीप सिंह से हासिल किया था। भारत अंग्रेजों से जिन ऐतिहासिक-सांस्कृतिक विरासतों को सौंपने की मांग करता है उनमें कोहिनूर सबसे ऊपर है। लेकिन इसकी भारत में वापसी बड़ा ही पेचीदा मुद्दा है।
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सिर्फ कोहिनूर ही नहीं बल्कि भारत की चार और कलाकृतियां ब्रिटेन में हैं और भारतीय इतिहास की धरोहर रही हैं इन पर भारत का दावा है। इनकी वापसी कभी हो पाएगी या नहीं ये आने वाला वक्त ही बताएगा लेकिन आपके लिए इनके बारे में जानना जरूरी है। जानिए इनके बारे में-
सुल्तानगंज के बुद्ध
बुद्ध की यह साढ़े सात फुट ऊंची मूर्ति पिछले डेढ़ सौ साल से इंग्लैंड के बर्मिंघम म्यूजियम में सैलानियों और विशेषज्ञों के आकर्षण का केंद्र रही है। यदि 1861 में बिहार के सुल्तानगंज से इस मूर्ति को अंग्रेज अपने साथ न ले गए होते तो आज यह बिहार के गौरवशाली इतिहास का हिस्सा होती। इससे जुड़ी एक और विडंबना यह भी है कि अब इसे ‘बर्मिंघम बुद्धा’ के नाम से पुकारा जाना लगा है।
इस मूर्ति का इतिहास जानें-
यह मूर्ति गुप्त-पाल शासनकाल यानी 500 से 700 ईसवी के समय की है। भागलपुर के पास रेलवे निर्माण कार्य की शुरुआत में खुदाई के दौरान यह मूर्ति मिली थी। आधे क्विंटल से ज्यादा वजनी यह मूर्ति अशुद्ध तांबे से बनी है। इसमें गौतम बुद्ध खड़े हैं और उनका एक हाथ अभयमुद्रा में हैं। इसे बर्मिंघम के उद्योगपति सैम्यूएल थॉर्टन ने तब 200 पौंड में खरीदा था और फिर इसे बर्मिंघम म्यूजियम में रखवा दिया था।
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कोहिनूर हीरे के साथ-साथ सुल्तानगंज की यह बुद्ध मूर्ति भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (एएसआई) की कलाकृतियों की उस सूची में है जो वह ब्रिटेन से वापस चाहता है।
महाराजा रणजीत सिंह का सिंहासन
1830 के दशक में महाराजा रणजीत सिंह का सिख साम्राज्य अपने वैभव के शिखर पर था। इसी समय शाही सुनार हाफिज मुल्तानी ने उनके लिए एक स्वर्णजड़ित सिंहासन तैयार किया था। आम सिंहासनों से अलग इसका आकार कमल के फूल से प्रेरित था। अष्टकोण वाले इस आसन के चारों ओर सोने का पत्तर चढ़ा था।
जानिए इसका इतिहास
सन 1849 में जब पंजाब कंपनी राज का हिस्सा बना तो अंग्रेजों ने सिंहासन को ‘सरकारी संपत्ति’ घोषित करते हुए कब्जे में ले लिया।1851 में भारतीय-अंग्रेज साम्राज्य की एक विशाल प्रदर्शनी ‘ग्रेट एग्जिबिशन’ लंदन में आयोजित हुई थी जिसमें पहली बार इस सिंहासन को दिखाया गया था। इस समय यह विक्टोरिया एंड अल्बर्ट म्यूजियम में रखा गया है।
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हाल के सालों तक दिलीप सिंह, जिन्होंने अंग्रेजों को कोहिनूर दिया था, के वंशज इस सिंहासन और साथ में कोहिनूर भारत वापस भेजने की वकालत करते रहे हैं।
अमरावती के शिल्पकारी वाले चूना पत्थर
आंध्र प्रदेश की नई राजधानी अमरावती बौद्ध धर्म का एक बड़ा केंद्र रही है। यहां अमरावती नाम का एक कस्बा है जो पहले गुंटूर जिले में पड़ता था। यहां स्थित बौद्ध स्तूप के चारों तरफ चूने के पत्थरों का एक घेरा और दरवाजा बनाया गया था। इन पत्थरों पर सुंदर डिजाइन और कहानियां उकेरी गई थीं।
ये रहा इसका इतिहास
यह बौद्ध स्तूप ईसा से तीसरी शताब्दी पूर्व का है और पहली ईसवी से आठवीं ईसवी के बीच इन चूना पत्थर की शिलाओं से इसे घेरा गया था। चूना पत्थरों की सपाट शिलाओं पर जातक कथाएं उकेरी गई हैं।
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स्तूप के अवशेष 17वीं शताब्दी के अंतिम दशक में एक अंग्रेज अधिकारी ने खोजे थे। इसके बाद 1850 के दशक में मद्रास सिविल सर्विस के एक अधिकारी सर वॉल्टर इलियट ने यहां खुदाई करवाई। यहां से शिल्पकारी वाले कई चूना पत्थर निकले थे। इनमें से कुछ भारत के संग्रहालयों में हैं लेकिन सबसे ज्यादा 120 पत्थर ब्रिटिश म्यूजियम में रखे हैं। इन्हें 1850 के दशक में ही इंग्लैंड भिजवाया गया था।
भोजशाला की सरस्वती/अंबिका मूर्ति
ब्रिटिश म्यूजियम में 1890 के दशक में एक चार फुट ऊंची संगमरमर की मूर्ति भिजवाई गई थी। अंग्रेजों को यह मूर्ति मध्य प्रदेश के धार जिले से मिली थी। मूर्ति के आधार हिस्से में संस्कृत का एक आलेख दर्ज है। इसके आधार पर म्यूजियम का दावा है कि मूर्ति 11वीं शताब्दी की है और यह जैन धर्म से संबंधित अंबिका की मूर्ति है।
हालांकि पिछले दो दशकों के दौरान हिंदूवादी संगठनों जैसे हिंदू जागरण मंच, बजरंग दल आदि के साथ ही भाजपा की तरफ से यह दावा किया जाता रहा है कि यह सरस्वती री मूर्ति है जो धार स्थित भोजशाला परिसर में स्थापित थी और इसे भारत वापस लाया जाना चाहिए।